जुगाड़ की मानसिकता और दुर्घटना– रघु दयाल

शनिवार को मुजफ्फरनगर के खतौली में हुए रेल हादसे से कई सवाल निकलते हैं। यह ट्रेन पटरी से क्यों उतरी? क्या इस हादसे से बचा जा सकता था? यदि जरूरी परिचलान प्रक्रिया का पालन किया जाता, तो वाकई इस हादसे को टाला जा सकता था। शुरुआती तथ्य इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि ज्वॉइंट पर फिश प्लेट टूटी हुई थीं और मरम्मत करने वाले इंजीनियरों ने 20 मिनट के ‘ब्लॉक’ की मांग की थी। यानी 20 मिनट तक गाड़ियों का परिचालन उस पटरी पर रोक दिया जाए। मगर किन्हीं वजहों से पटरी को दुरुस्त करने का काम बिना अनुमति से किया गया और फिर जो नतीजा निकला, वह हम सबके सामने है। सुरक्षा मानकों की अवहेलना कई जिंदगियों पर भारी पड़ गई।


रेलवे की नियमावली साफ-साफ बताती है कि इमरजेंसी की स्थिति में भी पटरियों को दुरुस्त करने का काम कुछ अनिवार्य सावधानी बरतकर किया जाना चाहिए। मसलन, ‘स्टॉप’ सिग्नल लगाए जाएं और जहां जरूरत हो, वहां डेटोनेटर का भी इस्तेमाल किया जाए। इसके अलावा, एक वरिष्ठ इंजीनियर-अधिकारी को मरम्मत वाली जगह से पहले ट्रेन को रोकना चाहिए और एक लिखित मेमो देकर ड्राइवर को यह बताना चाहिए कि ट्रेन को रोकने की आखिर जरूरत क्यों पड़ी? साथ-साथ उसे स्टेशन मास्टर को भी यह बताना पड़ेगा और इसके लिए उसकी लिखित अनुमति लेनी होगी। सवाल यह है कि खतौली हादसे में इस सुरक्षा प्रावधान की अवहेलना क्यों की गई? इसका जवाब तो जांच के बाद ही मिल पाएगा।


इस दुर्घटना के बाद लोगों की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया आई है, जो स्वाभाविक है। सरकार ने रेल सुरक्षा आयुक्त की निगरानी में जांच के आदेश दे दिए हैं, और एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए रेलवे बोर्ड के सदस्य (इंजीनियरिंग) के साथ दो अन्य बड़े अधिकारियों को जबरन छुट्टी पर भेज दिया है। कुछ अधिकारियों के स्थानांतरण व निलंबन के आदेश भी दिए गए हैं। सरकार द्वारा उठाए गए इस त्वरित और कठोर कदम का संकेत साफ है कि वह रेल हादसों को लेकर ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति पर चल रही है, लिहाजा इस वक्त इस घटना पर सियासी आरोप-प्रत्यारोप नहीं होना चाहिए। वैसे सत्ता में रही पार्टियों ने रेलवे की प्राथमिकता पर अगर पर्याप्त ध्यान दिया होता, तो यकीनन देश की इस जीवनरेखा की हालत यूं खस्ता नहीं होती।


यह एक जगजाहिर बात है कि किसी भी रफ्तार भरी गतिविधि में दुर्घटना की आशंका रहती है। फिर चाहे हमारा सड़क पार करना हो, या फिर चांद पर पहुंचने का अंतरिक्ष अभियान। रेल यातायात एक ऐसा माध्यम है, जिसमें दुर्घटनाएं अपने अस्तित्व में आने के समय से ही रही हैं। मगर आज तकनीक ने ऐसी रेल सेवा संभव बनाई है, जो कमोबेश जानलेवा नहीं है। मसलन, जापान की शिंकासेन बुलेट ट्रेन लगभग 50 वर्षों से चल रही है और इससे किसी दुखद मौत की खबर नहीं है। मगर ऐसी तकनीक काफी ज्यादा लागत की मांग तो करती ही है, साथ-साथ आधुनिक मानसिकता, बेहतर प्रबंधकीय ढांचा और दक्ष कामगारों की मांग भी करती है। आकलन है कि 85 फीसदी से अधिक रेल दुर्घटनाएं मानवीय चूक का नतीजा होती हैं।अच्छी बात है कि भारतीय रेल लगातार नई-
नई तकनीक के इस्तेमाल, रख-रखाव के यंत्रीकरण, पटरियों को उन्नत बनाने, उच्च दक्षता वाली लंबी ट्रेनों के परिचालन, उनके अल्ट्रासोनिक परीक्षण और पटरियों के इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग आदि पर काम कर रही है।


ऐसे वक्त में, जब भारतीय रेल में महंगे और बेहतर उपकरण शामिल किए जा रहे हैं और रख-रखाव पर ध्यान दिया जा रहा है, तब खतौली जैसे हादसों की वजह से होने वाला नुकसान स्वीकार्य नहीं हो सकता। ऐसे हादसे एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर भी इशारा करते हैं। मसलन साल 2015-16 में रेल पटरियों के दरकने के 3,237 मामले बढ़कर 2016-17 में 3,546 हो गए। इसी तरह, 4,500 घटनाएं इस साल डीजल और इलेक्ट्रॉनिक इंजन के फेल होने की सामने आ चुकी हैं। पैसेंजर डिब्बों के पटरी पर ट्रेन से अलग होने की 810 घटनाएं, ऊपर से गुजरने वाले बिजली के तारों के फेल होने की 447 घटनाएं और सिग्नल संबंधी उपकरणों के फेल होने की हजारों घटनाएं इस साल हो चुकी हैं।


बेशक जो जांच बिठाई गई है, वह इस हादसे के कारणों की पूरी पड़ताल करेगी, मगर सुरक्षा रेल परिचालन की दक्षता व अनुशासन का एक अनिवार्य लक्षण है और इसे तमाम परिचालन प्रक्रियाओं का अभिन्न अंग के रूप में देखना होगा। खतौली हादसा ने फिर से इस बात पर बल दिया है कि भारतीय रेल को एक ऐसे केंद्रीयकृत संगठनात्मक ढांचे की ओर बढ़ना चाहिए, जिसमें सुरक्षा मानक सर्वोपरि हो। 2012 में आई अनिल काकोदकर कमेटी ने 106 सिफारिशें दी थीं। इनमें काफी कुछ तकनीकी हैं, मगर मैनेजमेंट ढांचे को लेकर उन्होंने दो बातें बताई थीं। पहली, अलग-अलग विभागों में स्पद्र्धा रहती हैं। वे मिल-जुलकर काम नहीं करते। इस कारण दुनिया भर के खर्चे बढ़ते जा रहे हैं और सभी विभाग को साथ लेकर चलने का लक्ष्य पूरा नहीं होता। सबसे पहले इस ‘विभागीयकरण’ को समाप्त करने की व्यवस्था करनी होगी। और दूसरी बात, रेलवे का सबसे जरूरी काम यातायात से संबंधित उत्पादन, संचालन और उसकी मार्केटिंग है। चूंकि सियासत की वजह से रेलवे में तमाम विभागों के लोगों को एक समान बना दिया गया है, जिसके कारण अनुभवहीन लोग भी महत्वपूर्ण और अगुआ की भूमिका में आ जाते हैं, जबकि इस काम के लिए उन्हें ही आगे रखना होगा, जो इसके लिए प्रशिक्षित किए गए हैं।


हालांकि यह परंपरा सिर्फ रेलवे में नहीं है, मगर यह यहां इसलिए ज्यादा खटकती है, क्योंकि यह हमारी जीवन रेखा है। लिहाजा यह वक्त बदलाव का है। रेल को लेकर हमें नए सिरे से सोचना होगा। इसे विकास का अगुआ बनाना होगा। इसके लिए हमें ‘जुगाड़’ या ‘चलता है’ की मानसिकता बदलनी ही होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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