जिस रफ्तार से मिट्टी की उर्वरता में ह्रास हो रहा है उसे देखते हुए आने वाले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य हासिल हो पाएगा इसमें संदेह है। मांग के अनुरूप अन्न पैदावार में बढ़ोतरी की चुनौती तो भविष्य की बात है, कुपोषण की व्यापकता तो हमें कब का घेर चुकी है। यही कारण है कि भरपेट खाने के बावजूद कमजोरी महसूस होती है। परिवार के बुजुर्ग यह शिकायत करते रहते हैं कि आखिर अनाज इतने बेस्वाद व बेजान कैसे होते जा रहे हैं? दरअसल, इसकी जड़ उस मिट्टी में है जिसमें ये अनाज उगाए जा रहे हैं। पहले किसान एक साथ कई फसलें बोता था और एक ही फसल की सैकड़ों किस्में मौजूद थीं। खेती के साथ पशुपालन ग्रामीण जीवन का अभिन्न अंग हुआ करता था। दूध, दही, छाछ और घी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो ते थे। लेकिन हरित क्रांति के दौर में क्षेत्र-विशेष की पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके फसलें ऊपर से थोप दी गर्इं, जैसे दक्षिण भारत में गेहूं और पंजाब में धान की खेती।
अब किसान उन्हीं फसलों की खेती करने लगे जिनका बाजार में अच्छा मूल्य मिलता हो। इस प्रकार पेट के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए खेती की शुरुआत हुई। इससे दलहनी, तिलहनी फसलें अनुर्वर व सीमांत भूमियों पर धकेल दी गर्इं। पशुचारे की खेती तो उपेक्षित ही हो गई। इस प्रकार फसल चक्र रुका, जिससे मिट्टी की उर्वरता, नमी, भुरभुरेपन में कमी आनी शुरू हुई। इसकी भरपाई के लिए रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढ़ा और हरी खाद, कंपोस्ट आदि भुला दिए गए। रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग से शुरू में तो उत्पादकता बढ़ी लेकिन आगे चलकर उसमें गिरावट आने लगी। उदाहरण के लिए, 1960 में एक किलो रासायनिक खाद डालने पर उपज में पच्चीस किलो की बढ़ोतरी होती थी, जो कि 1975 में पंद्रह किलो और 2014 में चार किलो ही रह गई। अब सरकार विविध फसलों की खेती और कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट, हरी खाद जैसे कुदरती उपायों को बढ़ावा देने की बात कर रही है, लेकिन उसकी सबसिडी रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को समर्पित है।मिट्टी की सेहत पर ध्यान न दिए जाने का ही नतीजा है कि पिछले दो दशक में खाद्यान्न की उत्पादकता व पोषक तत्त्वों के उपभोग के अनुपात में लगातार गिरावट आई है। 1990-91 में यह अनुपात 14.06 फीसद था, जो कि 2010-11 में घट कर 8.59 फीसद रह गया है। यह हमारे कमजोर मृदा प्रबंधन को उजागर करता है और इसका कारण है असंतुलित फसल प्रणाली। इसके बावजूद पानी को लेकर तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ने और तेल खत्म होने की भविष्यवाणियां करने वाले लोग मिट्टी पर मंडराते संकट की चर्चा यदा-कदा ही करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि मिट्टी के बिना जीवन संभव नहीं है।
भले ही अधिकतर लोगों को खेतों की मिट्टी दिखाई न देती हो लेकिन यह हर साल 1.5 से 13 खरब डॉलर की भारी-भरकम राशि पारिस्थितिक तंत्र को मुहैया कराती है। मिट्टी की जीवंतता और संपन्नता का प्रमाण इससे मिलता है कि एक मुट्ठी मिट्टी अपने भीतर हजारों केंचुए, बैक्टीरिया, फंगस और अन्य सूक्ष्म जीवों को समेटे रहती है। इसी के बल पर मिट्टीमनुष्य की 99 फीसद आहार जरूरतों को मुहैया कराने में सक्षम होती है, जबकि पृथ्वी के 71 फीसद हिस्से को घेरने वाले समुद्र महज एक फीसद हिस्से की आपूर्ति करते हैं। भोजन के अलावा मिट्टी हमें आॅक्सीजन देने वाले सभी पेड़-पौधों को जीवन देती है। इतना ही नहीं, मिट्टी पानी की स्वच्छता, नदियों-झीलों से प्रदूषक तत्त्वों को बाहर करने और बाढ़ रोकने में अहम भूमिका निभाती है। समुद्र के बाद सबसे ज्यादा कार्बन सोखने का काम मिट्टी ही करती है।
मिट्टी के महत्त्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस मिट्टी की दो सेंटीमीटर मोटी परत बनने में पांच सौ साल लग जाते हैं वह महज कुछ सेकेंडों में नष्ट हो जाती है। पर हमारी अदूरदर्शी नीतियों के चलते हर साल 1.2 करोड़ हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी बंजर में तब्दील होती जा रही है। इस मिट्टी से दो करोड़ टन खाद्यान्न पैदा किया जा सकता है। अपरदन के चलते पिछले चालीस वर्षों में धरती की तीस फीसद उपजाऊ मिट्टी अनुत्पादक बन चुकी है। इसके बावजूद हमारी आंख नहीं खुल रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक यदि इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया तो दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरना असंभव हो जाएगा। जिस रफ्तार से दुनिया की आबादी और लोगों की क्रय-क्षमता बढ़ रही है उसे देखते हुए 2050 में 2006 की तुलना में साठ फीसद अधिक अनाज की जरूरत पड़ेगी। मिट्टी अपरदन के साथ-साथ शहरों का फैलाव भी उपजाऊ मिट्टी के लिए काल बन गया है। शहरी आबादी में दस लाख की बढ़ोतरी चालीस हजार हेक्टेयर कृषिभूमि को निगल जाती है। एक अन्य अनुमान के मुताबिक औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण दुनिया में हर साल करीब 24 अरब टन उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो रही है।
मिट्टी अपरदन का सीधा संबंध ग्लोबल वार्मिंग से भी है क्योंकि अपरदन से मिट्टी में समाहित कार्बन निकल कर वायुमंडल में मिल जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी अपनाकर इस प्रवृत्ति को उलटा जा सकता है, जैसे जुताई के बजाय ड्रिल करके बुवाई, फसल अवशेषों को मिट्टी में दबाना। जब एक पौधा उगता है तो वह वायुमंडल से कार्बन डाइआॅक्साइड खींच कर आॅक्सीजन देता है। पौधों के सूखने पर उसमें समाहित कार्बन डाइआॅक्साइड मिट्टी में मिल जाती है। स्पष्ट है, कार्बन भंडारण की सबसे सुरक्षित जगह है मिट्टी। मिट्टी को 1.5 फीसद कार्बन की जरूरत होती है। कार्बन से परिपूर्ण मिट्टी सूखा जैसे मौसमी उतार-चढ़ाव को सफलतापूर्वक झेल लेती है। लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश मिट्टी में तीस से साठ फीसद तक कार्बन की कमी है। इसका कारण है कि मिट्टी रूपी बैंक से हमने जितना कार्बन लिया उतना लौटाया नहीं। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल, नहरों से होने वाले जल प्लावन के साथ-साथ बिजलीघरों से निकलने वाली राख और र्इंट निर्माण भी उपजाऊ मिट्टी निगल रहे हैं। मिट्टी की र्इंट बनाने वाले देशों में दूसरे नंबर पर गिने जाने वाले भारत में हर साल लगभग 265 अरब ईंटें बनती हैं। इन ईंटों को बनाने में 54 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी इस्तेमाल की जाती है। नतीजतन हर साल उपजाऊ जमीन का 50हजारएकड़ रकबा हमेशा के लिए परती में तब्दील हो जाता है। इस प्रकार लोगों को छत मुहैया कराने वाली र्इंट देश की उपजाऊ मिट्टी को बंजर बना रही है।
दशकों की उपेक्षा के बाद, केंद्र सरकार ने मिट्टी की सुध लेते हुए फरवरी 2015 में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत 2014-17 के बीच 14 करोड़ किसानों को मृदा कार्ड वितरित करने का लक्ष्य रखा गया। इस कार्ड का हर तीन साल पर नवीनीकरण किया जाएगा ताकि किसानों को मिट्टी की बदलती जरूरत का पता चलता रहे। 25 जुलाई 2017 तक 9 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड किसानों को वितरित किए जा चुके हैं और सोलह राज्यों ने लक्ष्य पूरा कर लिया है। मृदा कार्ड में मिट्टी जांच पर आधारित फसलवार उर्वरक की जरूरत का उल्लेख रहता है जिससे किसान अनावश्यक उर्वरक इस्तेमाल से बच जाते हैं। मृदा कार्ड के अनुरूप उर्वरक इस्तेमाल का ही नतीजा है कि 2015-16 की तुलना में 2016-17 में उर्वरकों की खपत में आठ से दस फीसद की कमी आई और उत्पादकता में दस से बारह फीसद की बढ़ोतरी हुई।