प्रधानमंत्री का कहा और सत्य– कुमार प्रशांत

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले के अायोजन से जुड़े एक बड़े अधिकारी ने कार्यक्रम की समाप्ति के बाद राहत की गहरी सांस ली थी अौर मुझसे जो कहा, उसका मतलब इतना ही था कि चलो, अपना काम पूरा हुअा; अब किसने क्या अौर कैसा कहा, यह सब अाप लोग जानते-छानते रहो.

हम सबने मिल कर देश को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां सार्वजनिक कुछ भी करना अौर कहना सुरक्षित नहीं माना जाता है. एक भयाक्रांत समाज, एक डरी हुई व्यवस्था अौर एक निरुपाय सरकार- ऐसे त्रिभुज में हम कैद हुए जा रहे हैं.

प्रधानमंत्री जब लालकिला पर झंडा फहरा रहे थे और योगी अादित्यनाथ सत्ता की योग-साधना का पाठ लखनऊ में पढ़ रहे थे, तब उत्तर प्रदेश के उसी बीआरडी अस्पताल में बच्चों की मौत हो ही रही थी.

अॉक्सीजन की अापूर्ति बंद होने से बच्चों की मौत वैसी ही है, जैसे हिटलर के गैस चैंबर में यहूदियों की मौत. हिटलर कौन है अौर यहूदी कौन, यह पूछनेवाला भी यहां कोई बचा नहीं है. परिजन भी कैसे कुछ पूछ सकेंगे, क्योंकि उनकी दलीय या जातीय या सांप्रदायिक हैसियत का फैसला नहीं हुअा. गरीब के बच्चों का क्या! उनकी मौत हम पर भारी पड़े तो पड़े, उन्हें तो जिंदगी अौर मौत का फर्क भी कम ही मालूम होगा. अाप नकली दवा देकर, गंदी सूई चुभो कर किसी प्रतिवाद के बिना उनकी जान ले सकते हैं, लेते ही रहते हैं. कोई वेदना कहीं नहीं दिखती कि इतने बच्चों की जान कैसे चली गयी; किसकी जिम्मेदारी है? प्रधानमंत्री ने भी एक पंक्ति में अपना शोक दर्ज करवाने से ज्यादा कुछ नहीं कहा. कुछ न सही, योगी अादित्यनाथ ने माफी ही मांग ली होती, लेकिन नहीं, सत्ता ऐसी कमजोरियां दिखाती ही नहीं है.

जब लालकिला से झंडा फहराया जा रहा था, तब मेधा पाटकर अपने कई साथियों के साथ मध्य प्रदेश के धार की जेल में बंद रखी गयी थीं. मेधा पाटकर से हमारी असहमति हो सकती है, उनकी मांगों को हम अनुचित भी करार दे सकते हैं, लेकिन क्या कोई भी साबित दिमाग हिंदुस्तानी यह कह सकता है कि मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ता की जगह जेल में होनी चाहिए? अगर नरेंद्र मोदी चुनावी रास्ते से देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तो मेधा पाटकर संघर्ष के रास्ते अाज देश की चेतना की प्रतीक बनी हैं. इनमें से एक लालकिले पर अौर दूसरा धार की जेल में, इससे हमारे लोकतंत्र का चेहरा कितना विकृत दिखायी देता है.

प्रधानमंत्री ने कश्मीर के बारे में भी कुछ नहीं कहा. जिस बात का खूब प्रचार करवाया जा रहा है, उस ‘गाली-गोली से नहीं गले लगाने से’ वाली बात का यदि कोई मतलब है, तो अब तक हमारी फौज अौर सुरक्षा बल के हाथों कश्मीरियों की अौर कश्मीरियों के हाथों इन सबकी जो जानें गयी हैं अौर जा रही हैं, उसका क्या? क्या प्रधानमंत्री मान रहे हैं कि वह गलत रास्ता है? अगर अाज ही यह समझ में अाया है, तो भी हर्ज नहीं है, लेकिन फिर यह तो बतायें अाप कि नये रास्ते का प्रारंभ बिंदु क्या है? ध्यान रहे, बातें जबजुमलों में बदल जाती हैं, तब जहर बन जाती हैं.


उन्होंने जरूरत नहीं समझी कि चीन के साथ जैसी तनातनी चल रही है, उसे देश के साथ साझा करें. यह अापकी सरकार अौर अापकी पार्टी से कहीं बड़ा सवाल है, क्योंकि शपथ-ग्रहण के दिन से अाज तक प्रधानमंत्री विदेश-नीति को बच्चों का झुनझुना समझ कर जिस तरह उससे खेलते रहे हैं, वह सारा एकदम जमींदोज हो चुका है. अब तो हमारे सारे पड़ोसी देश कहीं दूसरा पड़ोस खोजने की कोशिश में हैं.

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से भी प्रधानमंत्री मोदी को दिखायी दी, तो केवल अपनी सरकार अौर अपनी पार्टी. इसलिए अासन्न चुनावों की किसी रैली में बोलने से अलग वे कुछ भी नहीं कह सके.

अाधे-अधूरे मन से बोले उनके वाक्य लड़खड़ा रहे थे, शब्दों का उनका बेतुका खेल बहुत घिसा-पिटा था. अास्था की अाड़ में हिंसा बर्दाश्त नहीं जैसे जुमले किसके लिए थे? आज संघ परिवार के अलावा अाज कौन है जो हिंसा अौर धमकी से लोगों को डरा रहा है? गो-रक्षक किसी दूसरी पार्टी के तो नहीं हैं न?

अपनी उपलब्धियों के अांकड़ों का जाल प्रधानमंत्री ने जिस तरह बिछाया, उसमें अात्मविश्वास की बेहद कमी थी, क्योंकि उन्हें पता था कि अांकड़ों के जानकार उनका समर्थन नहीं करेंगे. अौर तो अौर, उनकी ही सरकार के मंत्रियों ने संसद में जो अांकड़े पेश किये हैं, वे ही प्रधानमंत्री की चुगली खाते हैं.

सरकार के मंत्रियों ने, विभागों ने, इसी सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों ने, स्वतंत्र अध्येताअों ने, सबने अब तक विकास के जितने अांकड़े देश के सामने रखें हैं, या तो वे सारे आंकड़े गलत हैं या प्रधानमंत्री गलत हैं. सरकार व सरकारी व्यवस्था के दो लोग एक ही बारे में दो तरह के अांकड़ें दें, तो इस हाल में बेचारा अांकड़ा ही मारा जायेगा. विडंबना है कि वह रोज-ब-रोज मारा जा रहा है.

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