भारत के ग्रामीण इलाकों में जुगाड़ तकनीक से चलने वाला वाहन कोई नई बात नहीं। यह सहज ही कहीं भी दिख जाएगा। इसे किसी पानी के पंप वाली मोटर से विकसित किया जाता है। आमतौर पर किसी खेत के इर्द-गिर्द, लकड़ी के बड़े-बड़े कुंदों और तख्तों, ट्रेलर और ट्रैक्टर-पाट्र्स के रूप में इसके दर्शन हो जाएंगे। उत्तर भारत में आमतौर पर दिखने वाले इस नजारे को सहज भारतीय जीवन के प्रतीक रूप में देखा जाता है। साल-दर-साल इसे नए-नए रूप मिले, तो जयदीप प्रभु, नवी राद्जू और सिमोन आहूजा जैसे नाम भी मिले, जो इस जुगाड़ तकनीक पर किताब लिख रहे हैं। उनकी नजर में यह नायाब खोज विचारों और उत्पादों के मामले में बिल्कुल नया इनोवेशन हैं।
राद्जू नाम से भ्रमित होने की जरूरत नहीं। वह दरअसल भारतीय ही हैं, बस इनके नाम का उच्चारण फ्रेंच है, जो राजू को राद्जू बना देता है। पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) में आपको ऐसे बहुत सारे नाम मिल जाएंगे। मेरा भी एक बिजनेस स्कूल वाला दोस्त ऐसा ही था, जिसका नाम कोउमाराने हुआ करता था यानी कुमारन लिखने की फ्रेंच शैली। मुझे तो इसमें भी जुगाड़ वाली भावना ही दिखाई देती है।
जिस किसी ने भी जुगाड़ तकनीक वाली इस सवारी का एक या उससे अधिक अवसरों पर इस्तेमाल किया होगा, उसे यह जुगाड़ गाड़ी कहीं से भी आरामदेह नहीं लगी होगी। और भारत तो भांति-भांति की खोज या इनोवेशन में माहिर रहा है, न कि जुगाड़ में।
आजादी के 70 साल हो गए। हां, इन 70 वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया है। कल हम एक बार फिर आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। नहीं भूलना चाहिए कि इस देश ने इस दौरान तमाम ऐसी मौलिक खोज या ईजाद की हैं, जिनमें से कई को तो वैश्विक स्वीकृति भी मिली। इन मौलिक ईजादों की मेरी सूची में सैशे सबसे ऊपर आता है। इसकी खोज उपभोक्ता सामानों की पैकिंग के लिए हमारे देश में हुई। इसे मैं सैशे क्रांति कहना चाहूंगा।
आज हर जगह दिखने वाला सैशे की संभवत: एक स्कूल टीचर से उद्यमी बने चिन्नी कृष्णन ने ईजाद की थी। दरअसल चिन्नी ने भी खुद से यह महान खोज कर डाली हो, ऐसा भी नहीं। असल में, यह खोज उनके बेटों की थी। उनके एक बेटे सीके राजकुमार ने अस्सी के दशक में एक प्लास्टिक सैशे में शैम्पू (वेलवेट) भरकर रोजमर्रा के लिए बेचने का आइडिया खोज निकाला और इसे बाजार में उतार दिया। एक अन्य पुत्र सीके रंगनाथन ने तो एक कंपनी ही शुरू कर दी, जो अब केविन केयर नाम से जानी जाती है। एक समय था, जब इसने हिन्दुस्तान यूनीलिवर जैसी कंपनी के मैनेजरों की नींद हराम कर दी थी। उपभोक्ता सामान बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सही मायने में सैशे के बाजार का अंदाजा अस्सी के दशक के अंत या नब्बे के दशक की शुरुआत में लगा। इसने एक बार इस्तेमाल होने वाले एक छोटे से सैशे के जरिए महंगे से महंगा ब्रांड आम उपभोक्ता तक पहुंचाने का काम किया। यह अलग बात है कि अधिसंख्य भारतीय एक सैशे का इस्तेमाल एक से ज्यादा बारकरते थे। मैनेजमेंट गुरु सीके प्रह्लाद के शब्दों में यह ‘बॉटम ऑफ पिरामिड’ रणनीति का दुर्लभ उदाहरण था। प्रह्लाद मानते हैं कि ‘भाग्य तो पिरामिड के निचले तल पर तय होता है’।
सन 2007 में भारत की स्वाधीनता की 60वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक समारोह में प्रह्लाद ने ‘75वें वर्ष में भारत’ शीर्षक से एक प्रेजेंटेशन दिया था, जिसमें 2022 के भारत की संभावित तस्वीर पेश की गई थी। यह प्रेजेंटेशन आज के नीति-नियंताओं को भी गंभीरता से देखना चाहिए। उन्हें इन्फोसिस द्वारा लोकप्रिय किए गए ‘इंडियन सॉफ्टवेयर्स ग्लोबल डिलीवरी मॉडल’पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इस इनोवेशन के सबसे भरोसेमंद जीवनी लेखक थॉमस फ्रेडमैन और बाद में नंदन नीलेकणि हैं। आज के समय की कृत्रिम बौद्धिकता और यांत्रिकीकरण यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और ऑटोमेशन से गंभीर चुनौती मिलने के बावजूद यह अब तक एक अनूठी ईजाद के रूप में मौजूद है, जो भारत की अपनी खोज है। मेरी तीसरी पसंद कमखर्ची या कम लागत वाला कोई भी निर्माण है।
कुछ लोगों को शायद यह मानने में दिक्कत हो, लेकिन सच यही है कि निर्माण की दिशा में भारत नई-नई ईजाद हमेशा से करता रहा है और यह भारत की ताकत रही है, भले ही यह टुकड़ों में हुआ हो। सुबूत के तौर पर किसी को बस भारतीय कंपनियों की उस सूची पर नजर डाल लेनी चाहिए, जिसकी शुरुआत गुणवत्ता के लिए डेमिंग पुरस्कार जीतने वाली सुंदरम क्लेटॉन लिमिटेड से होती है। इस सदी के पहले दशक के अंत में टाटा मोटर्स ने मात्र एक लाख रुपये की टाटा नैनो कार लांच करके एक मिसाल कायम की, जो अनूठी इंजीनियरिंग का कमाल थी। नैनो के भविष्य की बात छोड़ भी दें, तो यह निर्माण की दिशा में होने वाले भारतीय इंजीनिर्यंरग इनोवेशन के इतिहास में अब भी एक नायाब नमूना बनकर मौजूद है। विश्व की संभवत: सबसे सम्मानित ऑटोमोबाइल कंपनी कार्लोस घोस्न के सीईओ ने तो इसके बारे में यहां तक कह डाला कि ‘इसने तो मेरे दिमाग में असीमित संभावनाओं की उम्मीद जगाकर रख दी।’
भारत के खाते में और भी कई रोचक व्यावसायिक ईजाद हैं, जिन पर बात हो सकती है। मसलन भारती एयरटेल लिमिटेड की इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी, नेटवर्क और नेटवर्क मैनेजमेंट को आउटसोर्स करने का फैसला- जो प्रयोग टेल्को ने इससे पहले विश्व में कहीं भी नहीं किया था। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ चीजें बाद में नजीर बन गईं, जिसका खूब इस्तेमाल हुआ। लेकिन फिलहाल मैं तो फिर भी इन्हीं तीन की बात करूंगा, जो वाकई कुछ अलग हैं।