हार कर भी जीता आंदोलन — योगेन्द्र यादव

अब नर्मदा बचाओ आंदोलन अपनी लड़ाई के अंतिम दौर में प्रवेश कर चुका है. उधर सरदार सरोवर डैम की अपनी प्रस्तावित ऊंचाई तक पहुंच जाने से कुछ लोगों के लिए एक स्वप्न सरीखी जबकि दूसरों के लिए एक भयावह परियोजना वास्तविकता में बदल गयी है.

 

इस डैम के जल निकास द्वार बंद किये जा चुके हैं, नतीजतन इसके जलाशय में बढ़ता जलस्तर अब उन लोगों के घर-द्वार लील लेने को आगे बढ़ रहा है, जिन्हें सरकार ‘परियोजना प्रभावित लोग’ कहा करती है. उन्हें अपने घरों को छोड़ देने की अंतिम तिथि 31 जुलाई दी गयी थी. अब किसी भी दिन उन्हें वहां से जबरन निकालने की कार्रवाई शुरू हो सकती है.


मेधा पाटकर एक असंभव-से अवज्ञा आंदोलन का अब भी नेतृत्व कर रही हैं. हजारों परिवार सरकारी आदेश का उल्लंघन करते हुए अपने घरों में डटे हैं, सैकड़ों गांव जल-सत्याग्रह के अंतिम दौर में सहभागी हैं. सालों से इस आंदोलन पर अपनी निगाहें जमाये लोग यह जानते हैं कि इसके प्रत्येक नये चरण का सरोकार एक कदम पीछे से रहा है. पहले इसका उद्देश्य इस डैम को न बनने देना था, जो बाद में डैम की ऊंचाई कम करना हुआ और अब इसका यह अंतिम दौर मध्य प्रदेश में विस्थापित होनेवाले लोगों के लिए राहत तथा पुनर्वास पर केंद्रित है.


इस डैम के निर्माण की अनुमति देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्माण के पूर्व ही प्रभावितों के पुनर्वास की शर्त रखी थी. मगर, पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकार ने यह शर्त पूरी किये बगैर डैम की ऊंचाई बढ़ाने के रास्ते निकाल लिये. आंदोलनकारियों की अब यह मांग है कि पुनर्वास की व्यवस्था किये बगैर डैम के जल निकासी द्वारा बंद न किये जायें. मगर सरकार यह सब सुनने को तैयार नहीं है.


ऐसा प्रतीत हो सकता है कि अब सब कुछ समाप्त हो चुका है और नर्मदा को बचाने की 32 वर्ष पुरानी मुहिम अपने खात्मे के करीब है. मैं इससे सहमत नहीं.


इस आंदोलन ने महाराष्ट्र तथा गुजरात के विस्थापित परिवारों के लिए देश में अब तक का सर्वोत्तम पैकेज मुहैया कराया. इससे भी बढ़ कर, इसने ‘पर्यावरणीय प्रभाव आकलन’ को सरकारी प्रक्रिया का हिस्सा बना दिया. इसका श्रेय भी इसी आंदोलन को है कि 2013 का ‘भूअधिग्रहण एवं पुनर्वास’ विधेयक पारित हुआ. यही नहीं, इस आंदोलन ने ही विश्वबैंक को भी न केवल इस परियोजना के वित्तपोषण से अपने हाथ खींचने को मजबूर किया, बल्कि उसने मेगा डैम के वित्तपोषण की अपनी पूरी नीति की ही समीक्षा कर डाली.


प्रभावित आबादी को कई तरह से ‘विस्थापित जन’ की श्रेणी दिलाने में इस आंदोलन की वास्तविक जीत रही है. इस परियोजना के पूर्व भी भाखरा डैम, हीराकुंड डैम, चंडीगढ़ शहर का निर्माण जैसी कई मेगा परियोजनाएं कार्यान्वित की गयीं, जिन्होंने बड़ी आबादियां विस्थापित कीं, पर सरकारी कागजात को छोड़ कर उनकी कहीं कोई पहचान नहीं रही.


उनकी पीड़ाएं वैध नहीं समझी गयीं और उनके विरोध को राष्ट्र-निर्माण के हितों के विरुद्ध माना गया. नर्मदा आंदोलन ने विकास के पीड़ितों को भी ‘पीड़ित’ का दर्जा दिलाया. इस आंदोलन ने हमें पारिस्थितिकी के प्रति सचेत बनाया. मगर, इसने उससे भीबहुत आगे जाकर हमें विकास के आयातित मॉडल पर पुनर्विचार करने को आमंत्रित किया.


नर्मदा आंदोलन ने जन कार्रवाई की एक नयी इबारत भी लिखी. एक ऐसे वक्त, जब गांधीवाद अपना आकर्षण खो रहा था और क्रांतिकारी हिंसा एकमात्र विकल्प नजर आने लगी थी, मेधा पाटकर तथा उनके सहयोगियों ने मौलिक गांधीवाद को पुनर्जीवित किया, जिसमें अहिंसा के साथ संघर्ष एवं प्रतिरोध के प्रति प्रतिबद्धता समाहित थी. उन्होंने सरकारी कार्यालयों पर चढ़ कर उन पर कब्जा जमाने की बजाय पानी में खड़े रहने के द्वारा संघर्ष की एक नयी किस्म विकसित की.


इसलिए, इसमें भी कोई अचरज नहीं कि हालिया वक्त में इस आंदोलन ने अन्य किसी भी घटना से अधिक सांस्कृतिक गतिविधियों को जन्म दिया, जैसे गीत, संगीत, बैंड, फिल्में तथा कहानियां. छिछली राजनीति के इस युग में नर्मदा आंदोलन ने हमें संजीदा सियासत के मायने सिखाये.


इस आंदोलन के विषय में सोचते हुए मेरे जेहन में मेधा पाटकर की तस्वीर के साथ ही श्यामा भारत का अक्स भी उभरता है, जो धार जिले में बड़वानी तहसील स्थित पिछोदी गांव के मछुआरा समुदाय से आती हैं. मैंने पिछले ही महीने पहली बार उन्हें बोलते सुना. वे स्थानीय बोली में बोल रही थीं, मैं जिसे समझने की कड़ी कोशिश कर रहा था.


पर, उसकी कोई जरूरत न थी, क्योंकि वे अपने शब्दों से कहीं ज्यादा संप्रेषित करने में समर्थ थीं. एक सामान्य-सी इस ग्रामीण महिला में जैसे साहस मूर्तिमान हो उठा था और वह इस आंदोलन के असली योगदान का प्रतिनिधित्व कर रही थी. इस ऐतिहासिक आंदोलन की पराजय अतीत का हिस्सा है और इसकी विजय हमारे सामूहिक भविष्य का नियंता.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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