इस तरह की घटनाओं के बारे में हम आए दिन सुनते-पढ़ते हैं। विडंबना यह है कि हमारे यहां इस तरह की लगभग सभी घटनाओं को पहले तो दबाने की कोशिश होती है और उनके फिर भी प्रकाश में आ जाने पर पीड़िता को न्याय और दोषी को कड़ा दंड दिलवाने की पेशकश के बजाय पीड़िता को ही किसी ‘अस्त्रियोचित आचरण से ऐसी हिंसा न्योतने का दोषी माना जाना आम है। परिवार, पत्रकार और पुलिस, हर स्तर पर अधिकतर पीड़िता का पक्ष जानने की बजाय उस पर हुए हिंसक हमले पर लीपापोती करने और मामला दबाने की तमाम कोशिशें होती हैं। यदि अभागी औरत बच रही तो देश से परिवार तक की इज्जत और मासूम बच्चों का हवाला देकर उस पर दबाव डाला जाने लगता है कि वह पुलिस थाने से अपनी शिकायत वापिस ले ले और अत्याचारियों से तालमेल बिठाने के सत्प्रयास करे।
यहां पर गौरतलब है कि उच्चायोग के अधिकारी महोदय ने पत्नी और पड़ोसियों की रपट के खिलाफ अपने राजनयिक विशेषाधिकारों की ओट ली और ब्रिटिश दंड प्रक्रिया से बचकर स्वदेश लौट आए। हिंसा की शिकार पत्नी ने जब स्वदेश वापसी पर पति से अपनी और अपने बच्चे की जान को खतरा बताते हुए ब्रिटेन में शरण मांगी तो कहा गया कि पत्नी चूंकि सरकारी अधिकारी थीं और अवकाश पर चल रही थीं, लिहाजा सेवा नियमों के अनुसार उनके लिए भी पति की वापसी के बाद वीजा नियमों की तहत स्वदेश लौटना जरूरी था। किस्सा खतम।
इसी तरह लंबे समय से गहरी हिंसा झेलती रही कन्न्ड़ फिल्म अभिनेता की पत्नी भी जब फिल्मोद्योग के वरिष्ठ लोगों के पास मदद मांगने गई तो उसे भी यही सलाह दी गई कि पति-पत्नी के झगड़े को आखिर इतना तूल क्यों? उसे एक पतिव्रता पत्नी की तरह अपनी शिकायत वापस लेते हुए सुलह कर लेनी चाहिए ताकि उसके मासूम बच्चे का पिता औरएक लोकप्रिय अभिनेता (जिसकी फिल्मों पर फिल्म इंडस्ट्री ने खुद भी करोड़ों रुपए लगा रखे थे) जेल से बाहर आ सके। इस सबसे वह, जिसके शरीर को बेरहम पति द्वारा सिगरेटों से जलाया गया था, मारपीट से हड्डियां तोड़ दी गई थीं और जिसके बच्चे की कनपटी पर वहशी पिता ने पिस्तौल रखकर धमकाया था, इतनी टूट गई कि उसने शिकायत वापस ले ली। यह बात और है कि जब मीडिया में इसको लेकर खूब शोर मचा और अदालत ने अभिनेता को जमानत देने से इनकार कर दिया तो इंसाफ के नाम पर इंडस्ट्री ने जिस सह-अभिनेत्री को लेकर पति-पत्नी के बीच इस कदर तकरार हुई थी, उसके कन्न्ड़ फिल्मों में काम करने पर लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया।
हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में घरेलू हिंसा का विषय ‘इंसाफ का तराजू, ‘खून भरी मांग और ‘भूमिका सरीखी फिल्मों में सार्थक तरह से उठाकर उससे भरपूर रुपया जरूर बटोरा जाता है। लेकिन खुद बॉलीवुड में जब घरेलू हिंसा की घटनाएं घटती हैं तो उनको हल्का घरेलू वैमनस्य या प्रेम-त्रिकोण का सामान्य मामला कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। बाहर हुई हिंसा के दोषियों को दंडित कराना अपेक्षाकृत आसान है। लेकिन घर के भीतर परिवारजनों के हाथों लगातार की जाने वाली हिंसा की तफ्तीश और कठोरतम दंड देने को लेकर अभी भी हमारे यहां हर जाति, धर्म, आयु और आयवर्ग के बीच एक सरीखा अरुचिभरा अंधत्व व्याप्त है।
महिलाओं के लिए अच्छे और बुरे देश कौन-कौन से हैं? इस सवाल पर एक जानी-मानी अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका की (165 देशों के सर्वेक्षण पर आधारित) रपट के अनुसार न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के पैमानों पर भारतीय महिलाओं की दशा खासी बुरी (141वीं पायदान पर) थी, जबकि वर्ष 2006 में हमारी संसद ने घरों के भीतर महिलाओं पर होती व्यापक हिंसा का संज्ञान लेते हुए उनकी सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा निरोधक कानून (प्रोटेक्शन ऑफ वुमन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट) बनाया, जो पीड़िताओं को मजिस्ट्रेट की मदद से विशेष आदेश के तहत विशेष रूप से नियुक्त अफसरों की निगरानी में तुरंत सुरक्षा पाने हक देता है। पर विधि विशेषज्ञों के शोध के अनुसार कई को (अन्य कई अग्रगामी कानूनों की तरह) इसके प्रभावी होने के लिए जरूरी ढांचागत और आर्थिक संसाधन अभी भी उपलब्ध कराने हैं। केरल को छोड़कर अधिकतर राज्यों में इन प्रकोष्ठों का प्रभार नाम के वास्ते ऐसे अफसरों को सौंपा पाया गया, जिन पर पहले से ही कई तरह के प्रशासकीय कामों का भार है। इसलिए अचरज नहीं कि फिर भी पाया गया कि इस कानून के बनने के बाद पांच साल के भीतर देश में घरेलू हिंसा की शिकायतें दर्ज कराने में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई। हिंसा की व्यापकता इतनी है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रपट के अनुसार देश की कम से कम 37 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं, जिनमें से 16 फीसदी शहरी
उत्पीड़िताएं दसवीं से अधिक पढी थीं।
मार्कंडेय पुराण में कहा गया है – ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु तव देवि भेदा:। इसका आशय है –हेदेवि, संपूर्ण सृष्टि की महिलाएं वस्तुत: तुम्हारे ही विभिन्न् स्वरूप हैं।
क्या सीमापार की चुनौतियों, किसानी प्रदर्शनों और एसेंबली चुनावों में शक्ति-प्रदर्शन में मशगूल संसद को याद दिलाना होगा कि साल में दो बार धूप-दीप जलाकर भरे कलश के आगे नतमस्तक होकर वे जिस शक्ति का ‘इह आगच्छ, इह तिष्ठ, इह वरदा बभूव कहकर आवाहन करते हैं, हिंसा की शिकार वे अनगिनत औरतें भी उसी का अंश हैं?
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)