प्लास्टिक कचरे से मुक्ति कब– ज्ञानेन्द्र रावत

प्लास्टिक कचरे का सवाल अकेले हमारे देश के लिए ही नहीं, वरन् समूचे विश्व के लिए अहम् है. वह बात दीगर है कि यह समस्या हमारे यहां ज्यादा गंभीर है. स्वच्छता अभियान के बावजूद प्लास्टिक युक्त कचरे ने गांव, कस्बा, नगर, महानगर यहां तक देश की राजधानी तक को चपेट में ले लिया है. सागर और महासागर भी नहीं बच सके हैं.

प्लास्टिक कचरा जानवरों के लिए तो काल बन चुका है. खास कर सड़क पर घूमनेवाले जानवरों यथा गाय, बैल, सांड़ और सूअर आदि के लिए तो मौत का सबव बन गया है. इनमें अधिकांशतः दुर्गति गायों की हो रही है, जो पेट में प्लास्टिक की थैलियां जमा होने से असमय मौत के मुंह में चली जाती हैं.

विडंबना देखिये कि गाय के नाम पर बावेला मचानेवाले गौरक्षकों को कतई चिंता नहीं है. गाय को मां माननेवाले गौरक्षक कहें या गौपालक दूध दुहने के बाद उसे सड़कों पर छोड़ देते हैं. नतीजतन वे सड़कों पर कूड़े से अपना पेट भरती हैं. सरकार को चाहिए कि वह ऐसी नीति बनाये, जिससे लोग मवेशियों को खुला न छोड़ें. असल में यही गंदगी ढेरों बीमारियों की जन्मदाता होती है.

देश में स्वच्छता अभियान का डंका पीटा जा रहा है. हालात इतने विषम हो गये हैं कि बीते दिनों एनजीटी को दिल्ली सरकार और तीनों नगर निगमों को कूड़े के ढेरों को हटाने के लिए निर्देश देना पड़ा. अधिक चिंता की बात यह है कि इस बाबत न तो नगर निवासी और न स्थानीय निकाय कतई गंभीर नहीं दिखायी देते हैं. कूड़े-कचरे के निस्तारण में लापरवाही असल में नगर निवासियों के जीवन के प्रति उनकी संवेदनहीनता का परिचायक कहें, तो गलत नहीं होगा.

जार्जिया यूनिवर्सिटी के एक शोध ने खुलासा किया है कि बीते 65 सालों में मानव ने तकरीब 8.3 अरब मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन किया है. इस बीच वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक का उत्पादन कई गुणा बढ़ गया है. साल 1950 में प्लास्टिक का उत्पादन समूची दुनिया में तकरीब 20 लाख मीट्रिक टन था, जो अब 2015 में बढ़ कर तकरीब 40 करोड़ मीट्रिक टन हो गया है. इसमें से 6.3 अरब टन प्लास्टिक का कचरे के रूप में ढेर लग चुका है. जबकि, कचरे की इस बड़ी मात्रा के केवल नौ फीसदी को ही अब तक रिसाइकिल किया जा सका है, 12 फीसदी हिस्सा जला कर नष्ट किया जा चुका है.

इसके बावजूद 79 फसदी हिस्सा लैंडफिल पर कचरे के रूप में पड़ा हुआ है. साइंस एडवांस्ड जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार कचरे की बढ़ोतरी की यही रफ्तार रही, तो 2050 में 12 अरब मीट्रिक टन कचरा पड़ा नजर आयेगा. अधिकांशतः प्लास्टिक का जैविक क्षरण नहीं होता. आज का प्लास्टिक कचरा सैकड़ों-हजारों साल तक हमारे जीवन और पर्यावरण से खिलवाड़ करता रहेगा. वर्ष 2010 तक तकरीब 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा महासागरों में मिल चुका है. आर्कटिक सागर के हिमखंड लगातार तेजी से पिघल रहे हैं. ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा असर आर्कटिक महासागर पड़ा है.

एक अध्ययन के अनुसार 2050 तक आर्कटिक महासागर में प्लास्टिक की मात्रा ज्यादा होगी और मछलियां बहुत ही कम. कारण विभिन्न धाराओं से आनेवालेछोटे-बड़े टुकड़े इस महासागर में लगातार जमा होते जा रहे हैं.
आर्कटिक के बहते जल में तकरीबन 100 से 1200 टन प्लास्टिक कचरा हो सकता है. सबसे अधिक मात्रा में प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास समुद्र में पाया गया है. प्लास्टिक के टुकड़े मछलियों के शरीर में भी पाये गये हैं. अन्य महासागरों में यथा हिंद महासागर, प्रशांत महासागर, अटलांटिक महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी आदि में भी इस तरह के अध्ययन की बेहद जरूरत है. हो सकता है कि इनमें प्रदूषण की मात्रा और अधिक हो. इन महासागरों में बहता पानी है, जिसे कतई साफ तो कहा ही नहीं जा सकता.

प्लास्टिक कचरा समुद्र ने तो पैदा किया नहीं है, इसके जनक हम ही हैं. इसलिए बेहद जरूरी है कि इनसान प्लास्टिक रहित दुनिया के बारे में विचार करे. इसके उत्पादन पर अंकुश लगायें और निस्तारण की तात्कालिक उचित व्यवस्था करें. समुद्र का प्रदूषण हमारी धरती के प्रदूषण का ही एक हिस्सा है.

पर धरती के प्रदूषण से भी अधिक यह समुद्री प्रदूषण खतरनाक साबित हो सकता है. इसे रोक पाना तभी संभव है जबकि धरती का प्रदूषण कम करने में हमें कामयाबी मिले. धरती को प्रदूषण मुक्त किये बिना यह असंभव है. समुद्र का प्रदूषण असलियत में हमारी जीवनशैली का ही नतीजा है. हमारे देश में प्लास्टिक पर पाबंदी एक दिखावा है.

सरकार इसके दुष्परिणामों से परिचित नहीं है, यह कहना गलत होगा. लेकिन इस दिशा में सरकारों की बेरुखी समझ से परे है. लगता है सरकारों को मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य की चिंता ही नहीं है. ऐसी स्थिति में प्लास्टिक कचरे में वृद्धि को रोक पाना बेमानी सा लगता है.

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