इस देश में गरीब कौन है? हमें मालूम है कि उनका वजूद तो है। हम उन्हें चित्रों में देखते हैं। हम उन्हें तब देखते हैं जब कोई भीषण बाढ़ हो या भयंकर सूखे ने उनकी आजीविका छीन ली हो। सच तो यह है कि हम उन्हें तब से देख रहे हैं जब सुनील जानाह के 1943 में पड़े बंगाल के अकाल के फोटो ने दुनिया की चेतना को झकझोर दिया था। उन खौफनाक छवियों ने हमारे स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज हम गरीबों को सामने आते तब देखते हैं जब जाति व साम्प्रदायिक उपद्रवों में दंगाई भीड़ द्वारा उनके घर जलाने के बाद टेलीविजन के रिपोर्टर उन तक पहुंचते हैं या फिर मरी हुई गाय की खाल निकालने पर गोरक्षक उन्हें निर्दयता से पीटते हैं।
हम गरीबों को चौराहों पर भी देखते हैं, जब लाल सिग्नल पर हमारी कारें वहां ठहरती हैं। हम अखबारों में पढ़ते हैं कि खराब वक्त के दौरान कालाहांडी में वे चींटियां खाते हैं। हम सुनते हैं कि कैसे वे अपने छोटे बच्चों को शहरों में कोई भी ऐसा काम खोजने भेज देते हैं, जो उन्हें क्रूर व निर्दयी दुनिया में जिंदा रख सके। ऐसी दुनिया जहां उन्हें प्राय: पीटा जाता है, बेचकर फिर बेच दिया जाता है। उनका बचपन छिन जाता है और वे छोटे-मोटे गुनाह करने लगते हैं तथा सुधारगृहों में पहुंच जाते हैं। ये उन जेलों से भी बदतर होते हैं, जहां से वे बचने की कोशिश करते हैं। आज़ादी के सात दशकों बाद उन्हें आखिरकार समझ में आ गया है कि किसी को उनकी परवाह नहीं है। गलियों में भिखारी कम ही रह गए हैं। इससे भी कम तो फुटपाथ पर सोते हैं (फुटपाथ ही गायब हो गए हैं)। सड़कों के नुक्कड़ पर आप जिन्हें देखते हैं वे बूढ़े लोग हैं, आमतौर पर उन्होंने आपकी-मेरी तरह कपड़े पहने होते हैं। एक मौन में उनके हाथ भीख के लिए फैले होते हैं। वे इतने शर्मिंदा हैं कि भीख नहीं मांग पाते। उनकी कहानियां एक जैसी होती हैं। उन्हें उनके मालिकाना हक के मकान से बाहर निकाल फेंका गया होता है। गांवों में मकानों को सड़कें, हाईवे, नई टाउनशिप बनाने के लिए उनके परिवारों ने बेच दिया होता है। शहरों में ये गगनचंुबी इमारतों और मॉल की बलि चढ़ जाते हैं।
बूढ़े पालकों के लिए अंतिम आश्रय वृद्धाश्रम बंद होते जा रहे हैं, क्योंकि लालची बिल्डर मुंबई की ओल्ड ट्रस्ट जमीनों में से जो भी बच गया है उसे खरीदने में लगे हैं। यह हर शहर की कहानी है। विश्व बैंक कहता है कि हमारे यहां गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले सर्वाधिक लोग हैं। यह कोई नई बात नहीं है। हम इसे बरसों से सुन रहे हैं। हर सरकार इसे कम करने का दावा करती है, लेकिन कहां? दुनिया के हर तीन गरीब लोगों में से एक अब भी भारत में रह रहा है।
हम किसानों की आत्महत्या के बारे में सुनते हैं। अख़बार उनकी खबरें देते हैं। नेता उनकी बातें करते हैं, क्योंकि किसान बहुत बड़ा वोटबैंक है। इसलिए हमलोन माफ कर देते हैं, जबकि हम जानते हैं कि लोन माफ करने से समस्या नहीं सुलझेगी। इससे तो राजनीतिक वर्ग ही धनी होगा। किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्या हाल की बम्पर फसल के बाद ही की। प्रचुरता की समस्या उतनी बुरी है, जितनी अभाव की समस्या। केवल वही सरकार जो समस्या को समझती है उसका समाधान निकाल सकती है बजाय इसके कि बड़े पैमाने पर पैसा देने के जैसे सारी समस्याओं का यह रामबाण समाधान है। यह शायद ही कभी समाधान होता है।
हमारे गांवों, छोटे कस्बों में अब भी ऐसे लोग हैं, जिनकी एकमात्र आजीविका टॉयलेट और जमी हुई नालियां साफ करना है। वे पीढ़ियों से ऐसा कर रहे हैं। शहरों में वे विषैले ड्रेनेज सिस्टम में उतरकर जान जोखिम में डालते हैं। हम उन्हें हीरो की तरह नहीं देखते, तब भी नहीं जब वे काम करते हुए मर जाते हैं। हम तो उन्हें कामकाजी लोग भी नहीं मानते। वे नए अदृश्य लोग हैं। हम उनके स्पर्श से बचते हैं और उनके हाथों से एक गिलास पानी लेने में हिचकते हैं। आज़ादी के सत्तर साल उन्हें वह गरिमा नहीं दे सके, जो वे चाहते हैं। एक के बाद एक सरकारें आती रहीं, गरीबों, न्याय और समानता के नाम पर अरबों रुपए का टैक्स वसूला गया पर उनकी जिंदगियां बदलने में नाकाम रहीं। वे अब भी अवैध झुग्गियों में रहते हैं, जो मानसून में टूट जाती हैं। नगर पालिकाएं उन्हें सजा देती हैं, झुग्गी मालिक उन्हें धोखा देते हैं। व्यापक समाज ने उन्हें उनके भरोसे छोड़ दिया है। सिर्फ यही लोग नहीं हैं। जाति और धर्म हर दिन अधिकाधिक लोगों को अलग-थलग कर रहे हैं। अारक्षण ने तो कुछ पोस्टर बॉय बनाए हैं और मुस्लिमों को तो यह सुविधा भी नहीं है। जिस राष्ट्रवाद की हम इतनी बातें करते हैं उसने हमारे समाज को फाड़कर रख दिया है।
मैं जिस भारत में पला-बढ़ा उसमें कोई राष्ट्रवाद की बात नहीं करता था। यह मानकर चला जाता था कि कोई कहीं से भी आया हो, उसकी भाषा कोई भी हो, कुछ भी खाता हो, किसी भी ईश्वर की आराधना करता हो, कोई भी जाति क्यों न हो सब मिलकर एक राष्ट्र हैं। कोई इस पर सवाल नहीं उठाता था, वे भी नहीं, जिन्होंने विभाजन की विभीषिका देखी। यदि कोई विभाजन था ही तो यह कि हम कितने धनी या गरीब हैं। इन दोनों के बीच वह विशाल तबका था, जो न तो इतना धनी था और न इतना गरीब था, जो खुद को मध्यवर्ग कहता था। मैं इसी वर्ग में पैदा हुआ था। आज इतने बरसों बाद मैं आज भी उसी वर्ग का हूं, पूरे गर्व के साथ।
सरकारें गरीबों के नाम पर शासन करती हैं। 1973 में मैं जब कविताएं लिख रहा था, मोरारजी देसाई लोगों पर 97.75 फीसदी टैक्स लगा रहे थे। फिर 8 फीसदी संपदा कर भी था और 85 फीसदी अचल संपत्ति शुल्क था। मोरारजी ने एक बार दावा किया था कि उन्होंने समृद्ध वर्ग को उसकी जगह पहुंचा दिया है। शायद उन्होंने ऐसा किया, लेकिन उससे गरीबोंकोकहां मदद मिली? इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाने की कसमें खाईं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। प्रीवी पर्स ले लिए गए। धनी वर्ग को दंडित करने के लिए फेरा जैसे कानून बने। अभी इसका फैसला नहीं हुआ है कि इस सबसे हासिल क्या हुआ है। धनी लोगों से वसूली करके आप गरीबों की मदद नहीं कर सकते। गरीबों को अपने लिए खुद कोशिश करनी पड़ती है। वे अब भी ऐसा ही कर रहे हैं, जबकि उनके नाम पर राजनीतिक दल वोट जीतती हैं। और राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी इस बात पर लड़ते हैं कि कौन अधिक दलित है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)