भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कई प्रकार से शैक्षिक भेदभाव व्याप्त है, खासतौर पर स्कूली शिक्षा में इसकी जड़ें बहुत गहरे जम चुकी हैं। इस विषबेल को खाद, पानी, पोषण देने वाला ताकतवर समूह शिक्षा का बाजारीकरण कर उस बाजार का नियंत्रक बना बैठा है, जो कि संगठित माफिया की तरह कार्यरत है। वह न केवल नियमों को तोड़ता है बल्कि मनमाफिक नियम निर्धारण में भी पर्याप्त सक्षम है। गरीबों और अमीरों के बच्चों के स्कूल अलग हैं जिनमें स्पष्ट दिखने वाले अंतरों में अधोसंरचना (भवन) की भव्यता, बच्चों की मनभावन वर्दियां, चमचमाती स्कूल बसें, कैंटीन और कैंटीन का मेनू, स्कूल के स्टाफ का व्यावसायिक प्रस्तुतीकरण आदि जैसे कारकों को तो प्राथमिक रूप से अभिजात वर्ग औचित्यपूर्ण मान सकता है, हालांकि मेरे विचार में यह परिदृश्य भी भारतीय संविधान में पहले पन्ने पर ही वर्णित उद््देशिका के अनुरूप नहीं प्रतीत होता, जो कि प्रतिष्ठा और अवसर की समता की बात करता है। खैर, शैक्षिक व्यवस्था में संवैधानिक उद््देश्यों के अवमूल्यन पर तो इतना लिखा जा सकता है कि उपन्यास भी कम पड़ जाएं, हम अपने मूल विषय पर चलते हैं और बात करते हैं उस भेदभाव की, जो दिखाई नहीं देता या हम देखना नहीं चाहते।
जो भेदभाव समतायुक्तसमाज की अवधारणा को देश के नागरिकों के बाल्यकाल में ही अंगूठा दिखाता हुआ, ढिठाई के साथ मखौल उड़ाता है वह है स्कूलों में अकादमिक भेदभाव। कहने में बेशक यह नया या अजीब लग सकता है, पर नियामक संस्थाओं ने ही इसका बीजारोपण किया है, जिसके बारे में देश भर में बहस शुरू करने की आवश्यकता है। सन 2002 में छियासीवें संवैधानिक संशोधन के बाद शिक्षा को मूलाधिकार के रूप में अंगीकार किया गया। तब तय किया गया कि राज्य इसके लिए रीति का अवधारण कानून लाएगा। इसके परिणामस्वरूप 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में आया, जिसकी धारा 29 में अकादमिक प्राधिकरण को पाठ्यक्रम के निर्धारण का जिम्मा दिया गया, जिसमें मूल्यांकन पद्धति भी शामिल हो। सरकार ने अकादमिक प्राधिकरण के रूप में एनसीइआरटी को अधिसूचित किया है। कानून के मुताबिक पाठ्यक्रम की अंतर्वस्तु समान होनी चाहिए।
देश में इस वक्त चौदह लाख स्कूलों में प्राथमिक व पूर्व माध्यमिक (आठवीं) कक्षा तक की शिक्षा दी जाती है, जबकि मात्र साढ़े अठारह हजार विद्यालय सीबीएसइ बोर्ड से संबद्ध हैं, जिनका काम उच्च माध्यमिक कक्षाओं की परीक्षा आयोजित करना है, जैसा कि उनके नामकरण की शब्दावली से ही स्पष्ट है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए अधोसंरचना के निर्माण और निजीकरण को बढ़ावा देने के चलते सीबीएसइ से संबद्ध स्कूल भारी फीस लेने वाले निजी स्कूलों के रूप में पहचान (केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों के अपवाद को छोड़ कर) बनाए हुए हैं। लेकिन सीबीएसइ द्वारा गरीबों और अमीरों के बच्चों की शैक्षणिक सुविधाओं में फर्क की खाई पाटने के बजाय शैक्षणिक अंतर्वस्तु में भी अंतर किया गया, जो कि बच्चों के समता के अधिकार का हनन है।
सीबीएसइ ने 2012 में ऐसी गंभीर चूक की, जो अवैधानिक और अव्यावहारिक तो थी ही, बाजार तंत्र द्वारा प्रभावित/नियंत्रित भी प्रतीत होती है। सीबीएसइ ने 2012 में सतत व व्यापक मूल्यांकन के लिए जो सामग्री तैयारकी वह एनसीइआरटी द्वारा प्रतिपादित सामग्री के अनुरूप नहीं थी, साथ ही साथ सीबीएसइ ने अपना कार्यक्षेत्र लांघते हुए छठी से आठवीं कक्षा के लिए भी मूल्यांकन पद्धति का निर्धारण कर दिया, जिससे सीबीएसइ का सीधे तौर पर कोई वास्ता नहीं था।
इससे सीबीएसइ से संबद्ध स्कूलों के बच्चों की मूल्यांकन पद्धति अन्य पौने चौदह लाख स्कूलों के बच्चों से अलग हो गई, जिसका फायदा इस क्षेत्र के कारोबारियों को हुआ, तथा बच्चों के साथ अकादमिक भेदभाव अपने चरम पर पहुंच गया। इसकाखमियाजा सबसे ज्यादा उन बच्चों को भुगतना पड़ा जो सीबीएसइ से संबद्ध स्कूलों में अध्ययन कर रहे थे, और जिस मूल्यांकन पद्धति को इन बच्चों को ही शैक्षिक रूप से ‘विशेष’ दर्जा देने के लिए बनाया गया था।
इसके दो प्रमुख दुष्परिणामों में से एक तो स्कूली बस्ते के बढ़ते वजन के रूप में दिखा, और दूसरा था ‘अतिरिक्त शैक्षणिक दबाव’, जिसकी सामान्यत: अनदेखी ही हुई। जब मूल्यांकन की पद्धति एनसीइआरटी के अनुरूप नहीं रही तो उसकी पुस्तकों को लागू किया जाना दूर की कौड़ी हो गया। इसके फलस्वरूप निजी प्रकाशकों की पुस्तकें विद्यालयों में लागू की गर्इं और बस्ते का वजन बढ़ता गया।
चूंकि पाठ्यक्रम निर्धारण में पाठ्य सामग्री के साथ-साथ उसे पढ़ाने का तरीका व मूल्यांकन के तरीके, सभी का समावेश होता है, ये कड़ियों की तरह एक-दूसरे में गुंथे हुए अवयव हैं, जिसकी व्याख्या कोई प्राथमिक का शिक्षक भी आसानी से कर सकता है, पर बड़े-बड़े अफसरों से यह चूक होना संदेह पैदा करता है।
अतिरिक्त शैक्षणिक दबाव को जानने के लिए तकनीकी विश्लेषण में जाना पड़ेगा। सतत व व्यापक मूल्यांकन के लिए यूनेस्को सहित दुनिया के अनेक अकादमिक संस्थानों ने जो मॉडल प्रतिपादित किया वह प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के बहुत करीब है जिसमें मुख्यत: दो अवयव हैं। एक, संरचनात्मक आकलन। दो, समेकित आकलन।
एक बहुत बड़ी त्रुटि संरचनात्मक आकलन को लेकर सीबीएसइ की पद्धति में थी, जिसके कारण विद्यालयों के शिक्षक रिपोर्ट कार्ड में प्रत्येक तिमाही में बच्चों द्वारा किए जा रहे प्रोजेक्ट-कार्य तथा अन्य गतिविधियों को संरचनात्मक आकलन के अंतर्गत रिपोर्ट करते रहे हैं।
दरअसल, संरचनात्मक सतत आकलन का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उसे बच्चे के रिपोर्ट कार्ड में दर्ज करके सूचित किया जाए। संरचनात्मक सतत आकलन का अर्थ है सीखने की प्रक्रिया की संरचना; यह आकलन सीखने-सिखाने के दौरान बच्चों की प्रगति केनिरीक्षण और उसमें सुधार लाने के लिए होता है। इसे सीखने का आकलन भी कहा जाता है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के दौरान बच्चे के सीखने के बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी, उदाहरण के लिए लिखित कार्य, मौखिक उत्तर या केवल बच्चे की गतिविधियों का अवलोकन, आदि का प्रयोग संरचनात्मक रूप से बच्चे के सीखने में सुधार के लिए होना चाहिए था, जो एक तरह से सीखने की प्रक्रिया का आकलन होता है, जो शिक्षक द्वारा सिखाने की प्रक्रिया का स्वमूल्यांकन भी है। जबकि समेकित आकलन बच्चे की अधिगम उपलब्धि का आकलन होता है, जिसमें विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से बच्चे ने क्या और कितना सीखा है इसका मूल्यांकन किया जाता है।
पर सीबीएसइ की सतत व व्यापक मूल्यांकन पद्धति ने संरचनात्मक तथा समेकित आकलन, दोनोंकेयोग के आधार बच्चे का मूल्यांकन निर्धारित करने की एक नई प्रक्रिया ही ईजाद कर दी। इसके दुष्प्रभाव-स्वरूप बच्चे का उस आधार पर भी मूल्यांकन किया गया जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था। आखिरकार पढ़ाए जाने के तरीके से बच्चे के मूल्यांकन का क्या संबंध हो सकता है? मार्च माह में सत्र 2017 से लागू किए जाने हेतु सीबीएसइ ने मूल्यांकन के लिए छठी से आठवीं कक्षा की खातिर फिर एक नए मॉडल की अवधारणा प्रस्तुत की है, जिसमें अर्धवार्षिक, वार्षिक परीक्षा के प्राप्तांकों के आधार पर मूल्यांकन किया जाना है।
दुर्भाग्यवश यह पद्धति भी एनसीइआरटी द्वारा जनवरी 2017 में पुन: जारी किए गए सतत व व्यापक मूल्यांकन मॉडल के अनुरूप नहीं है। इस कारण तमाम सख्ती दिखाए जाने के बावजूद एनसीइआरटी की किताबों को सीबीएसइ से संबद्ध स्कूलों में लागू किया जाना संभव नहीं प्रतीत हो रहा है, तथा निकट भविष्य में न तो बस्ते का वजन घटने की उम्मीद दिखती है न ही देश के बच्चों को समान पाठ्यक्रम में समान अंतर्वस्तु का अधिकार प्राप्त होता दिख रहा है।