मौसम वैज्ञानिक पहले ही यह घोषणा कर चुके हैं कि देश में अच्छी बारिश होने का अनुमान है। मानसून-पूर्व बारिश से भी यही आसार नजर आ रहे हैं कि इस बार मानसून मजबूत रहेगा। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मानसून बहुत ज्यादा मजबूत नहीं रहेगा। बहरहाल, इस बारिश का पूरा फायदा तभी होगा जब हम जल संरक्षण की कोई गंभीर योजना बनाएंगे। कृषि की बढ़ती जरूरतों, ऊर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में यदि पानी की बर्बादी नहीं रोकी गई तो यह समस्या विकराल रूप ले सकती है।
जल संकट को लेकर चिंता वाजिब है क्योंकि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और तमिलनाडु समेत देश के अनेक भागों में भूजल-स्तर बहुत नीचे चला गया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज जल संकट को लेकर चिंता तो व्यक्त की जा रही है लेकिन इस संकट से निपटने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। हालांकि आज जल संकट से देश का आम आदमी ही अधिक जूझ रहा है लेकिन उसमें इस संकट से उबरने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई देती। जल संकट जब तक आम आदमी की चिंता नहीं बनेगा तब तक इस संकट से उबरने की बात सोचना शायद दिवास्वप्न ही होगा। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि जल संकट की चिंता बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों से निकल कर आम आदमी तक भी पहुंचे। यह तभी संभव हो पाएगा जबकि आम जनता के बीच इस विषय को लेकर युद्धस्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जाए।
पहले हमारे देश के गांव जल संरक्षण के प्रति ज्यादा जागरूक थे लेकिन विकास की आंधी ने ग्रामीणों की इस मानसिकता को हवा में उड़ा दिया। आज समृद्ध ग्रामीणों ने अपने घरों में बिजली के मोटर (सबमर्सिबल वाटर पम्प) लगा रखे हैं जिसके माध्यम से धरती से पानी खींच कर पशुओं को स्नान कराया जाता है। हमारे कस्बों और शहरों में गाड़ी, फर्श और अन्य चीजों को धोने में जल का अत्यधिक इस्तेमाल किया जाता है। इन सभी क्रियाकलापों में भारी मात्रा में जल का दुरुपयोग होता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज बाजारवाद ने पानी को भी अपनी चपेट में ले लिया है। पानी के नाम पर होने वाले व्यापार में भी लोग ईमानदारी नहीं बरत रहे हैं। बोतलबंद पानी का व्यापार लगातार जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है, उसी तेजी से बाजार में नकली बोतलबंद पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। कुछ लोग दुकानों और विभिन्न संस्थानों में प्यूरीफाइड़ जल उपलब्ध कराते हैं लेकिन वहां भी पानी की शुद्धता का पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता है।बुद्धिजीवियों द्वारा जब भी जल संकट की चर्चा की जाती है तो इस चर्चा में वर्षा जल के संग्रहण की सलाह दी जाती है। सरकार जन-जागरण अभियान के तहत सरकारी औपचारिकताओं को निभाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं में वर्षा जल संग्रहण के विज्ञापन प्रकाशित कराती है। लेकिन इस मामले में अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात ही है। गौरतलब है कि भारत में मात्र पंद्रह प्रतिशत जल काही उपयोग होता है, शेष जल बेकार बह कर समुद्र में चला जाता है। इस मामले में इजराइल जैसे देश ने, जहां वर्षा का औसत 25 सेमी से भी कम है, एक अनोखा उदाहरण पेश किया है। वहां जल की एक बूंद भी बेकार नहीं जाती है। अतिविकसित जल प्रबंधन तकनीक के कारण वहां जल की कमी नहीं होती। जल संकट से निपटने के लिए हमें भी अपने देश में ऐसा ही उदाहरण पेश करना होगा।
वर्षा के जल को जितना हम जमीन के अंदर जाने देंगे उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे। इस विधि से मिट्टी का कटाव भी रुकेगा और हमारे देश को सूखे और अकाल का सामना भी नहीं करना पडेगा। एक आंकडेÞ के अनुसार यदि हम देश के जमीनी क्षेत्रफल में से सिर्फ पांच फीसद क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल का संग्रहण कर सकें तो एक अरब लोगों को प्रतिव्यक्ति सौ लीटर पानी प्रतिदिन मिल सकता है। आज हालात ये हैं कि वर्षा का पचासी फीसद जल नदियों के माध्यम से समुद्र में बेकार बह जाता है। फलस्वरूप निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को जमीन के भीतर पहुंचा दिया जाए तो इससे एक ओर बाढ़ की समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाएगी, वहीं दूसरी ओर भूजल स्तर भी बढ़ेगा।
जनसंख्या में हुई तीव्र वद्धि से हमारे देश में पानी की खपत लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि सतही एवं भूमिगत दोनों ही स्रोतों से पानी का उपयोग किया जा रहा है लेकिन भूमिगत पानी पर हमारी निर्भरता कुछ अधिक है। भूमिगत पानी की अत्यधिक निकासी से इसका स्तर लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। गौरतलब है कि दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग सत्तर फीसद भाग जल से भरा हुआ है लेकिन पीने लायक मीठा जल सिर्फ तीन फीसद है। शेष खारा जल है। इसमें से भी हम सिर्फ एक फीसद मीठे जल का ही उपयोग करते हैं। धरती पर उपलब्ध संपूर्ण जल, जल चक्र में चक्कर लगाता रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि औद्योगीकरण व जनसंख्या विस्फोट के कारण जहां एक ओर जल प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर जल-चक्र भी बिगड़ता जा रहा है। हालांकि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी ही है जितनी कि दो हजार साल पहले थी। अंतर है तो बस इतना कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में सिर्फ तीन फीसद थी।
गौरतलब है कि सन 1947 में प्रतिव्यक्ति मीठा जल 6 हजार घन मीटर उपलब्ध था, जो सन 2000 में सिर्फ 2300 घन मीटर रह गया। पानी की बढ़़ती खपत को देखते हुए यह आंकडा सन 2025 तक सिर्फ 1600 घन मीटर हो जाने का अनुमान है। ‘अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान’ के एक अनुमान के अनुसार अगले बीस वर्षों में ही भारत में पानी की मांग पचास फीसद बढ़ जाएगी। हमारे देश में समस्त उपलब्ध जल के नब्बे प्रतिशत का उपयोग कृषि उत्पादन में किया जाता है। यदि कृषि उत्पादन में समुचित जल निकासी व जल उपयोग के वैज्ञानिक तरीकों काइस्तेमालकिया जाए तो बीस फीसद तक जल की बचत हो सकती है। इसी प्रकार दुनिया का लगभग 22 फीसद जल उद्योगों में उपयोग किया जाता है। यदि औद्योगिक क्षेत्र पानी की बचत करना शुरू करें और पानी का दोबारा उपयोग सुनिश्चित करें तो इस संकट से काफी हद तक बचा जा सकता है। हालांकि जल संकट से निपटने के लिए जल संग्रहण के प्रति आम जनता जागरूक नहीं है, लेकिन कुछ स्थानों पर स्थानीय लोगों ने जल संग्रहण के सराहनीय प्रयास किए हैं जो अनुकरणीय हैं। जल संरक्षण के मामले में सुंदरलाल बहुगुणा और राजेंद्र सिंह जैसे व्यक्ति भी हमें प्रेरणा दे सकते हैं। हम अपने मकान की छत पर वर्षाजल को एकत्रित करके मकान के नीचे भूमिगत अथवा भूमि के ऊपर टैंक में जमा कर सकते हैं। प्रत्येक बारिश के मौसम में सौ वर्ग मीटर आकार की छत पर पैंसठ हजार लीटर वर्षाजल एकत्रित किया जा सकता है जिससे चार सदस्यों वाले एक परिवार की पेयजल और घरेलू जल आवश्यकताएं 160 दिनों तक पूरी हो सकती हैं। भारत जैसे देश में जहां पानी का प्रमुख स्रोत बरसात है वहां रेन वॉटर हार्वेस्टिंग या पानी को जमा करना बेहतर उपाय है।