इस बात का जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है कि युवाओं को अपने खुद के उद्यम (स्टार्ट-अप) खोलने चाहिए और सरकारी नीतियों का रुख अब स्टार्ट-अप की ओर ही रहेगा। क्या स्टार्ट-अप की राह पर चल कर हमारे देश में बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी की समस्या का समाधान किया जा सकता है? जवाब पाने के लिए इस मसले पर तफसील से निगाह डालनी होगी।मोटे अनुमान के मुताबिक आने वाले बीस बरसों के दरम्यान हर साल तकरीबन सवा करोड़ लोग काम करने के लिए अर्थव्यवस्था में प्रवेश करेंगे। दूसरे लफ्जों में कहें तो इस दौरान हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा यानी तिरासी करोड़ से ज्यादा लोग पैंतीस बरस से कम आयु के हैं। इन्हीं के बल पर कहा जा रहा है कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है और जनसंख्या का बहुत सकारात्मक पक्ष है जिसके बल पर भारत जनसंख्या के ‘बोझ’ को वरदान में बदल सकता है। ये उस आयु वर्ग के लोग हैं, जो उत्पादन करने में सक्षम हैं और जिन्हें सामाजिक सुरक्षा या स्वास्थ्य सहायता जैसे सरकारी समर्थन की कम जरूरत है। अगर इन हाथों को रोजगार उपलब्ध कराया जाए तो अर्थव्यवस्था की तकदीर बदल सकती है।
भारतीय नीति-निर्माताओं ने रोजगार सृजन के लिए स्टार्ट-अप का रास्ता चुना है। स्टार्ट-अप उन उद्यमों को कहा जाता है जो पूरी तरह नए विचार पर आधारित होते हैं। इन्हें पहली पीढ़ी के कारोबारी शुरू करते हैं और इनका बाजार में प्रवेश पहले से मौजूद परंपरागत कंपनियों के कारोबार को खत्म कर देता है। इसलिए स्टार्ट-अप को ध्वंसात्मक विचार (डिसरप्टिव आइडिया) कहा जाता है। दुनियाभर के टैक्सी बाजार में तूफान लाने वाली ट्राविस क्लानिक की उबर स्टार्ट-अप का सबसे मौजूं उदाहरण है। विचार के स्तर पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि स्टार्ट-अप खड़े करने वाले युवा उबर के सीइओ ट्राविस क्लानिक की माफिक अपने लिए न केवल अपनी बेरोजगारी खत्म करते हैं बल्कि दूसरे लोगों के लिए भी रोजगार के अवसर पैदा करते हैं।मगर क्या स्टार्ट-अप संस्कृति को भारत में अपनाया जा सकता है? सबसे पहली बात तो यह है कि हमारे यहां विश्वविद्यालयों और समाज के बीच वैसा जुड़ाव नहीं है, जैसा दुनिया में सबसे ज्यादा स्टार्ट-अप कंपनियां खड़ी करने वाले अमेरिका में है। जानकार कई मर्तबा इस बात की ओर इशारा कर चुके हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में होने वाले शोध में मौलिकता का बड़ा अभाव है। स्टार्ट-अप किसी अलग टापू पर नहीं खड़े किए जाते हैं बल्कि समाज के भीतर रहकर उसकी समस्याओं को दूर करने की ललक रखने वालों द्वारा खड़े किए जाते हैं। मौलिकता का अभाव हमारे यहां पैदा हो रही कथित स्टार्ट-अप संस्कृति में भी झलकता है। कुछ मिसाल देखिए। जब स्टार्ट-अप की बात चलती है तो हमारे यहां सरकार और समाज आॅनलाइन शॉपिंग कंपनी फ्लिपकार्ट का नाम सबसे पहले लेते हैं। लेकिन क्या फ्लिपकार्ट को भारतीय स्टार्ट-अप कहा जा सकता है?
आॅनलाइन शॉपिंग करने का विचार दुनिया में सबसे पहले अमेजन कंपनी की स्थापना करने वाले अमेरिका के जेफ बेजोस ने पेश किया था। बेजोस भारत की फ्लिपकार्ट की स्थापना से दस साल पहलेअमेजन की नींव रख चुके थे। इतना ही नहीं, फ्लिपकार्ट के संस्थापक बिन्नी बंसल और सचिन बंसल अमेजन में काम कर चुके हैं। भारत की लगभग हर बड़ी स्टार्ट-अप कंपनी किसी न किसी विदेशी कंपनी की नकल पर खड़ी की गई है। उबर की नकल पर ओला और आइकिया की नकल पर पीपरफ्रे की स्थापना हुई है। फेहरिस्त काफी लंबी है।
दूसरी बात, हमारे यहां स्टार्ट-अप लोगों की समस्याओं का समाधान करने की गरज से पैदा नहीं हो रहे हैं। अमेरिका में 80 फीसद से ज्यादा आबादी तक इंटरनेट की पहुंच है वहीं भारत में महज 20 फीसद है। ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा और ज्यादा बुरा है। हमारे यहां स्टार्ट-अप के नाम पर कर सुविधाओं का फायदा ले रही कंपनियों में से 90 फीसद से ज्यादा इंटरनेट आधारित हैं। और भी तह में जाएं तो अधिकांश स्टार्ट-अप कंपनियां का कारोबारी मॉडल एक जैसी हैं। ये कंपनियां ग्राहकों को सामान बेचने वालों से जोड़ती हैं और इसके लिए एक साझा इलेक्ट्रॉनिक मंच उपलब्ध कराती हैं। अधिकांश स्टार्ट-अप कंपनियां शॉपिंग सुविधा, होटल बुकिंग, कैब बुकिंग और फिल्म टिकट खरीदने जैसी सुविधाएं देने वाले कारोबारियों से ग्राहकों को जोड़ती हैं। कारोबार की भाषा में इसे मार्केटप्लेस मॉडल कहा जाता है।
जाहिर है, केवल मध्यम और उच्च वर्ग इन सुविधाओं का फायदा उठा सकते हैं। देश की विशाल आबादी के लिए इन आॅनलाइन एग्रीगेटर कंपनियों का कोई मतलब नहीं है। हमारे यहां कोई ऐसा स्टार्ट-अप सामने नहीं आया है कि जो बड़े पैमाने पर आम लोगों की दिक्कतों को दूर करने का रास्ता सुझाता हो। जब इन कथित स्टार्ट-अप कंपनियों का दायरा ही देश की बीस फीसद आबादी तक सीमित है तो देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले युवाओं को रोजगार कैसे दिया जा सकता है? इंटरनेट सुविधाओं पर पनपने वाली ये स्टार्ट-अप कंपनियां केवल एग्रीगेटर (मध्यस्थ) की भूमिका निभाती हैं और रोजगार के नाम पर केवल नाममात्र की नौकरियां पैदा होती हैं जो कंप्यूटर और अंग्रेजी भाषा में दक्ष चुनिंदा लोगों को ही मिलती हैं। याद रहे, इंटरनेट आधारित स्टार्ट-अप कंपनियां नौकरियों के सृजन से ज्यादा बड़े पैमाने पर नौकरियों का खात्मा करती हैं। मसलन फ्लिपकार्ट और ओयो होटल्स जैसी स्टार्ट-अप कंपनियों ने ग्राहकों और कंपनियों के बीच की सारी कड़ियां खत्म करके कितने बड़े पैमाने पर लोगों को बेरोजगार किया किया है! तीसरी और सबसे अहम बाधा सामाजिक क्षेत्र में है। स्टार्ट-अप संस्कृति से जो भी गिने-चुने फायदों हों, उनकी सफलता की संभावना भी क्षीण है क्योंकि इनकी सफलता के लिए जरूरी अनुकूलन के बीज हमारे समाज में नहीं हैं। दुनियाभर में स्टार्ट-अप की सफलता का आंकड़ा एक फीसद से भी कम है। ट्राविस क्लानिक ने उबर खड़ी करने से पहले तीस दफा विफल प्रयास किए। गूगल, एप्पल और अमेजन कंपनियों के संस्थापकों की भी यही कहानी है। लेकिन भारतीय समाज में विफलता को कलंक की तरह देखा जाता है।
किसी उद्यमी के तीस दफा विफल होने की हमारे देश में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पहली विफलता के बाद ही परिवार-समाज का दबाव उसको राह बदल लेने पर मजबूर कर देगा। सरकार भले ही लाख दावे करेमगरसरकारी नीतियों का ताना-बाना ऐसा है कि वह किसी नए विचार को पनपने ही नहीं देता है। सरकार ने स्टार्ट-अप नीति बनाई है लेकिन वह पहले से मौजूद स्टार्ट-अप कंपनियों का रास्ता आसान बनाती है, आंतरप्रेन्योर के दिमाग में अंकुरित होने वाले नए विचारों का नहीं। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे देश में कारोबार शुरू करना या इससे आजीविका कमाना एक खास तबके का ही काम माना जाता है। ऐसे गहरे सामाजिक विभाजनों को अनदेखा करके हर किसी को अपना खुद का कारोबार खड़ा करने की बात कहना समस्या सुलझाने की बजाय उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश भर लगता है। इन चुनौतियों के चलते स्टार्ट-अप संस्कृति का पनपना मुश्किल दिखाई पड़ रहा है। दूसरी तरफ सरकार ने नौकरियां देने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ कर अब रोजगार पैदा करने की जिम्मेदारी उलटे बेरोजगारों के कंधों पर ही डाल दी है। किसी भी लिहाज से इसे दूरदर्शी कदम नहीं कहा जा सकता है।