र्जिलिंग पिछले छह वर्षों से शांत था, किंतु वहां राज्य मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित करने और बांग्ला भाषा संबंधी पश्चिम बंगाल सरकार की अधिसूचना जारी होते ही यह पहाड़ी क्षेत्र उबलने लगा। तकरीबन पखवाड़े भर से जारी आंदोलन के रुकने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं दिख रही है, क्योंकि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने पर्वतीय क्षेत्र से पुलिस बल व सेना हटाने और अलग गोरखालैंड राज्य बनाए जाने तक जंगी आंदोलन जारी रखने का एलान किया है। असल में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इस बात से ज्यादा नाराज था कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दार्जिलिंग में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए बार-बार वहां का दौरा कर रही थीं। मुख्यमंत्री द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के विभिन्न् समुदायों जैसे राई, लेपचा और शेरपा के लिए अलग-अलग विकास परिषदों का गठन किए जाने से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नाखुश था, क्योंकि राज्य सरकार से आर्थिक मदद सीधे उन विकास परिषदों को जाने लगी, जिससे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का महत्व कम हो गया था। दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र की चार नगरपालिकाओं (दार्जिलिंग, कालिंपोंग, कर्सियांग और मिरिक) के चुनाव पिछले माह हुए थे। उनमें से तीन में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को बहुमत मिला था और एक (मिरिक) नगरपालिका में तृणमूल कांग्रेस को। बाकी तीन पालिकाओं में भी तृणमूल के कुछ पार्षद निर्वाचित हुए थे। उससे स्पष्ट है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरुंग ने कुछ जनसमर्थन खोया है। इसीलिए वह ममता बनर्जी से क्षुब्ध थे। वह उपयुक्त समय की तलाश में थे और राज्य सरकार ने बांग्ला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य बनाए जाने की अधिसूचना जारी की तो उसे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अवसर के रूप में लपक लिया।
मुख्यमंत्री ने हालांकि यह स्पष्टीकरण भी दिया है कि पहाड़ी क्षेत्रों के लिए बांग्ला भाषा संबंधी आदेश अनिवार्य नहीं है, बल्कि चुनने की आजादी है, लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं है। उसने कहा है कि अब अलग गोरखालैंड राज्य से कम पर कोई बात नहीं होगी, जबकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि पहाड़ के विकास के लिए वह हरसंभव मदद कर रही हैं और हमेशा करेंगी, किंतु अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को वह कतई स्वीकार नहीं करेंगी। ममता और गुरुंग के इस तरह आमने-सामने आने से दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र फिर टकराव और अशांति की चपेट में आकर दहक रहा है।
वैसे दार्जिलिंग को अलग प्रशासनिक इकाई का दर्जा देने की मांग एक सौ दस साल पुरानी है। हिलमैंस एसोसिएशन ने 1907 में मिंटो-मोर्ले कमीशन को ज्ञापन देकर दार्जिलिंग को स्वायत्त प्रशासनिक इकाई का दर्जा देने की मांग की थी। आजादी के बाद भी ऑल इंडिया गोरखा लीग ने अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को जीवित रखा। 1981 में देव प्रकाश राई के निधन के बाद गोरखा लीग कमजोर हो गई। रही-सही कसर 21 मई, 2010 को गोरखा लीग के नेता मदन तमांग की हत्या ने पूरी कर दी। देव प्रसाद राई के निधन के बाद उनकी खाली जगह को गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग ने भरा था। घीसिंग ने अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर जंगी आंदोलन चलाया और उसकी परिणति 1988 में दार्जिलिंग पर्वतीय परिषद के गठन के रूपमें हुई। घीसिंग अलग गोरखालैंड राज्य की मांग से पीछे हटते हुए दो दशकों तक पर्वतीय परिषद के मुखिया रहे, किंतु पहाड़ का कोई विकास करने में विफल रहे। वह करोड़ों रुपए की आर्थिक गड़बड़ी के आरोपों से भी घिर गए।
2007 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर अस्तित्व में आया और जल्द ही पूरे दार्जिलिंग में उसकी तूती बोलने लगी। विमल गुरुंग उसके सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। उनके नेतृत्व में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 2007 से 2011 के पूर्वार्द्ध तक जंगी आंदोलन चलाया। छह साल पहले ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद समझौता कर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को जंगी आंदोलन स्थगित करने पर विवश किया। 2011 में गोरखालैंड टेरिटोरियलएडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) समझौता हुआ और मार्च, 2012 में दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद को खत्म कर गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का गठन किया गया। 29 जुलाई, 2012 को उसका चुनाव हुआ था। 45 सीटों वाले जीटीए के चुनाव में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को एकतरफा जीत मिली थी। जीटीए का मुखिया बनने के बाद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख विमल गुरुंग के पास उसका प्रशासन आ गया तो उनका जंगी आंदोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से स्थगित हो गया था।
पांच वर्ष बाद अब अगले महीने जीटीए का चुनाव होना है। इन पांच वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने 1,400 करोड़ और केंद्र सरकार ने 600 करोड़ रुपए जीटीए को दिए। राज्य सरकार ने जो धनराशि जीटीए को दी, उसका ऑडिट जैसे ही शुरू हुआ कि पहाड़ में हिंसा आरंभ हो गई। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अगले महीने होने वाले जीटीए के चुनाव में भी भाग नहीं लेने का एलान किया है। दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में सबसे ताकतवर संगठन गोरखा जनमुक्ति मोर्चा है और जब वही जीटीए का चुनाव नहीं लड़ेगा तो उसका क्या कोई मतलब रह जाएगा? सवाल यह भी है कि यदि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने जीटीए को मिली सरकारी धनराशि में कोई गड़बड़ी नहीं की है तो वह ऑडिट से क्यों घबराया हुआ है? गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सभी सदस्यों ने जीटीए से बीते 22 जून को इस्तीफा दिया है। इस इस्तीफे का भी कोई मतलब नहीं, क्योंकि जीटीए का तो कार्यकाल खत्म ही हो रहा है। अभी पहाड़ में जो कुछ चल रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के लिए 2011 में जो समझौता हुआ था, वह दार्जिलिंग समस्या का अंतिम समाधान नहीं था।
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा यदि यह समझ रहा है कि अलग राज्य के लिए जंगी आंदोलन की राह पकड़कर वह राज्य सरकार पर दबाव बनाएगा तो वह मुगालते में है, क्योंकि ममता बनर्जी की सरकार ने इस बार कड़ा रुख अख्तियार कर रखा है। मोर्चा को यह बोध भी होना चाहिए कि हिंसा का सहारा लेकर वह जब तक आंदोलन करेगा, तब तक राज्य सरकार को हिंसा से निपटने के लिए पुलिस बल के प्रयोग का बहाना मिलता रहेगा, क्योंकि कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी अंतत: राज्य सरकार की है और उससे वह मुंह नहीं मोड़ सकती। इसलिए उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से अपना आंदोलन चलाना चाहिए। मुख्यमंत्री को भी यह याद रखना चाहिए कि अलगाववादी आंदोलनों सेनिपटनेके लिए सरकारें जब-जब बल प्रयोग करती हैं, तब-तब परिस्थिति और जटिल होती है, जबकि समझौते से शांति कायम होने की राह खुलती है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कोलकाता केंद्र में प्राध्यापक हैं)