ओझल बनायी जा रही औरतें– मृणाल पांडे

जैसे-जैसे राजनीति और मीडिया का असर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे यह शक सर उठा रहा है कि राजनेताओं और मीडिया में अहंकार और खुद को भगवान समझने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. हाल में एक अंगरेजी चैनल में एक कार्यक्रम के दौरान सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता ने तमक कर एंकर को कहा कि वे जानते हैं कि इस चैनल का अपना (राजनीतिक, वैचारिक) एजेंडा है. एंकर ने इस पर उनसे कहा कि वे तुरंत उसके कार्यक्रम से बाहर जा सकते हैं. प्रवक्ता ने भोला अचरज व्यक्त किया कि कोई भी एंकर किसी कार्यक्रम पर अपना स्वामित्व कैसे जता सकती है?

गहमागहमी बढ़ी और अंतत: प्रवक्ता स्क्रीन से लुप्त हो गये. इससे पहले कि गलतियों का तर्कसंगत बंटवारा किया जाता, लगभग दस बरस पुराने एक केस के संदर्भ में चैनल के मालिकान के घरों पर सीबीआइ का छापा पड़ा. तदुपरांत प्रेसक्लब में इस घटना को लेकर एक गोष्ठी हुई. गोष्ठी में राजधानी के अंगरेजी मीडिया के वरिष्ठतम लोग चैनल मालिकान के पक्ष में बोले और कईयों ने इस मीडियामर्दक माहौल की तुलना इंदिराकालीन एमर्जेंसी और राजीवकालीन अवमानना विधेयक प्रस्ताव से करते हुए उस अवसर पर सत्ता के विरोध में अपने और कुछ औरों के योगदान का भावुक उल्लेख किया, जिससे कोई असहमत नहीं होगा.

उस गोष्ठी में दो बातें खटकती रहीं. पहली, आयोजन लगभग पूरी तरह पुरुषों द्वारा पुरुष मीडियाकर्मियों की इज्जत बहाली का पुरुषों की अदालत में प्रस्तुतीकरण दिखता रहा. महिला पत्रकारों के लंबे हिम्मती और पुरुषों से अधिक शारीरिक जोखिम मोल लेकर सत्ता से दो-दो हाथ करनेवाली और खतरनाक मोर्चों की खबरें जनता तक पहुंचानेवाली वरिष्ठ महिला पत्रकारों की पीढ़ी मानो थी ही नहीं. कल्पना शर्मा या तीस्ता सीतलवाड का आपातकाल विरोधी काम तो दूर, उनको या परिसर में एकता जताने आयीं वरिष्ठ महिला मीडियाकर्मियों को भी इस विषय पर अपने अनुभव सुनाने का खयाल आयोजनकर्ताओं को न आना सचमुच अचंभे की बात है.

तात्कालिक तौर से भी विवाद से घिरी महिला एंकर या उस चैनल की महिला मालिक का, जिनके घरों पर छापे पड़े थे, पक्ष भी पुरुष अधिपति ही रखते रहे. महिलाओं की अनदेखी करने की इसी निखालिस भारतीय आदत के ही कारण ताजा किसान आंदोलन की कवरेज में भी महिलाओं की अनुपस्थिति दिख रही है. खेती में देश की 8 से 10 करोड़ महिलाएं काम करती हैं. बीज बचाना, पनीरी बनाना, रोपनी, दरांईं तथा खेत सफाई के साथ घरेलू पशुधन को संभालने में उनका योगदान पुरुषों से अधिक ही होगा. फिर भी किसी ने उनका इंटरव्यू लेकर बतौर खेतिहर या खेत मजदूर उनके समृद्ध अनुभवों को उजागर करना तो दूर, मनरेगा नीतियों के बदलाव पर उनका पक्ष तक सामने नहीं रखा. बस आत्महत्या या पुलिस गोली से मरनेवालों की विधवाओं, माताओं के रूप में ही वे टीवी पर्दों पर आती रहीं.

दूसरी बात. यह घटना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण थी और छापों की वजह या टाइमिंग पर वित्तीय विषयों के जानकारों द्वारा सवाल किये जा सकते हैं. लेकिन, क्या वजह है कि उस गोष्ठी में यही एक घटना इतनी महत्वपूर्ण बन कर रह गयी कि राज्यों में खोजी रपटों पर काम कर रहे

मीडियाकर्मियों पर लगातार नेताओं की शहपर राज्य पुलिस, सशस्त्रबलों, माफिया गुटों या फिल्मी जगत के बाहुबलियों द्वारा किये जा रहे संगीन हमलों का कोई जिक्र तक नहीं उभरा. न ही उन ग्रामीण भाषायी पत्रकारों की चुनावों के समय लगातार बढ़ती असुरक्षा या सही मुआवजों की कमी पर कोई चिंता जतायी गयी. मीडिया की आजादी के संदर्भ में क्या इन सबका भी उतना ही मोल नहीं बनता?

बड़ी खामी यह है कि मीडिया का तेजी से विस्तार होने के साथ उसके मालिकों की ताकत और उनके द्वारा गढ़ा व्यावसायीकरण का स्वरूप लगातार बदल रहा है. व्यापारिक नियमन संस्था टीआरएआइ के बड़े उद्योग समूहों के बढ़ते एकाधिकारवाद पर अंकुश लगाने की बाबत सुझाव अभी भी लंबित हैं और कई तरह की मीडिया कंपनियों पर एक समूह का क्षैतिज एकाधिकार कानूनन जायज बना हुआ है. मीडिया मालिकान पर अपने स्वामित्व की बाबत खुलासे की कोई बाध्यता नहीं. और दूसरी तरफ सरकारों द्वारा सूचना के अधिकार में तो लगातार पानी मिलाया जा रहा है, और सेंसरशिप नियमों को सख्त बनाने की कार्रवाई चल रही है.

अगर मीडिया के लोग सरकार से अपनी खाल और जनता के बीच अपनी अनमोल साख बचाये रखना चाहते हों, तो उनको पहले खुद अपने भीतर दशकों से कायम लैंगिक, आर्थिक, भाषायी और वर्गगत असमानताओं का ईमानदार स्वीकार करना और उनको मिटाना होगा. अपने मद में चूर मीडिया का ताकतवर हिस्सा बस अपने जैसों पर आफत आने पर ही भेड़िया आया का हल्ला करता रहा, तो सचमुच का भेड़िया आने पर सिर पर हाथ धर रोने के अलावा किसी धड़े के सामने दूसरी राह नहीं होगी.

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