पूर्ण शराबबंदी क्या समस्या का समाधान है — एस श्रीनिवासन

इस महीने की शुरुआत में द्रमुक सुप्रीमो एम के करुणानिधि का 94वां जन्मदिन मनाया गया। जश्न के लिए तमाम विपक्षी नेता उस दिन चेन्नई में जमा हुए, लेकिन जल्द ही यह जश्न प्रधानमंत्री मोदी, उनकी ‘जन-विरोधी’ नीतियों और हिंदुत्व की राजनीति पर हमले का मंच बन गया। हालांकि बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार ने ऐसे किसी विवाद से बचने की पूरी कोशिश की। उन्होंने अपने बिहार की शराबबंदी नीति के बारे में बात की, और उम्मीद जताई कि तमिलनाडु भी उनके अनुभवों से कुछ सीखेगा। मगर न तो द्रमुक के कार्यकारी अध्यक्ष एम के स्टालिन, जिन्हें नीतीश कुमार तमिलानाडु का अगला मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते हैं, और न ही माकपा और भाकपा के महासचिव, जिनकी पार्टी पड़ोसी केरल में सत्तासीन है, बिहार के मुखिया की इस उम्मीद पर संजीदा दिखे। स्तालिन ने तो शराबबंदी के मुद्दे की ही अनदेखी कर दी, जबकि वामपंथियों के चेहरों की चमक थोड़ी कम हो गई।

पिछले हफ्ते ही केरल सरकार ने अपनी शराब नीति में संशोधन किया है। अब थ्री स्टार या उससे ऊंचे दरजे वाले होटलों में शराब परोसने की अनुमति दे दी गई है। एक जुलाई से लागू हो रही इस नीति से लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार को उम्मीद है कि उसे न सिर्फ जरूरी राजस्व मिलने लगेगा, बल्कि कमजोर पड़ते पर्यटन व्यवसाय में भी तेजी आएगी। सरकार का अनुमान है कि बार के 700 लाइसेंस बेचकर ही उसे 32 करोड़ रुपये मिलेंगे।


इसका मतलब कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) सरकार के फैसले को पलटना है। पिछली सरकार ने पांच सितारा होटलों को छोड़ हर जगह शराबबंदी लागू कर दी थी। उद्देश्य था कि 2023 तक राज्य को शराब मुक्त घोषित किया जाए। लेकिन वामपंथी दल पूर्ण शराबबंदी की बजाय संयम या परहेज की सोच आगे बढ़ाने वाली नीति के पक्ष में हैं। केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन भी कहते रहे हैं कि दुनिया में कहीं भी पूर्ण शराबबंदी प्रभावी नहीं रही है, क्योंकि ऐसे में तलब लगने पर लोग किसी भी
हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं; यहां तक कि ड्रग्स लेने से भी परहेज नहीं करते।


नई शराबबंदी नीति के पक्ष में वाम मोर्चे के अपने तर्क हैं। उसका कहना है कि पुरानी शराबबंदी नीति के कारण राज्य के पर्यटन में लगातार गिरावट आ रही है। पर्यटन विकास दर 2013 में जहां 8.1 फीसदी थी, वहीं 2014 में 7.6 फीसदी और 2015 में वह 5.9 फीसदी रह गई। इस कारण विदेशी मुद्रा आय भी, जो 2014 में 15 फीसदी थी, घटकर 2015 में 11.5 फीसदी रह गई।


उसका दूसरा तर्क यह है कि पर्यटन व्यवसाय से जुड़े दूसरे क्षेत्रों एमआईसीई यानी मीटिंग, इन्सेंटिव्स, कॉन्फ्रेंस ऐंड कन्वेंशन्स और एग्जीबिशन ऐंड इवेंट्स (बैठक, प्रोत्साहन, सम्मेलन और प्रदर्शनियों) पर भी इसका बुरा असर पड़ा है। यहां होने वाले करीब 50 फीसदी आयोजन रद्द कर दिए गए हैं, जिसके कारण लगभग 2,000 करोड़ रुपये का सालाना नुकसान राज्य को हो रहा है।


तीसरा तर्क शराब की खपत कम न होने का दिया जा रहा है। आबकारी विभाग के आंकड़े बताते हैं किपिछले तीन वर्षों में देश में उत्पादित विदेशी शराब (आईएमएफएल) की बिक्री में कोई बड़ी कमी नहीं आई है। 2014-15 में जहां इसकी 220.58 लाख पेटियां बिकी थीं, वहीं 2015-16 में 201.75 लाख पेटियां बिकीं। चौथा दावा बेरोजगारी का है और कहा जा रहा है कि शराबबंदी की पुरानी नीति से 40,000 नौकरियां दांव पर लग गई हैं। आखिरी तर्क राजस्व से जुड़ा है। सिर्फ शराब बिक्री से राज्य को 10,000 करोड़ रुपये की आमदनी होती है, जो सूबे की कुल कमाई का 25 फीसदी है।


राजनेता महज आंकड़ों के आधार पर ऐसी नीतियां लागू नहीं करते। उनकी नजर सामाजिक और चुनावी नतीजों पर भी रहती है। केरल के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री ओमान चांडी को लगता था कि शराबबंदी लागू होने से महिलाएं उनके साथ आएंगी, जिनकी संख्या राज्य में पुरुषों से ज्यादा है। मगर ऐसा हो नहीं सका। अपने कुल राजस्व का पांचवां हिस्सा शराब की बिक्री से कमाने वाले राज्य तमिलनाडु ने भी धीरे-धीरे पूर्ण शराबबंदी की ओर बढ़ने की घोषणा की थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता ने अनिच्छा से ही सही, पर महिला वोटरों की संख्या को देखते हुए यह फैसला किया था। मगर उनकी मौत के बाद आई सरकार ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।


केरल के उलट बिहार में शराबबंदी से काफी लाभ मिलने का दावा किया गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मानें, तो शराबबंदी के बाद राज्य में सड़क दुर्घटनाओं में 19 फीसदी की कमी आई और इससे होने वाली मौतों में भी 31 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इतना ही नहीं, शराब पर खर्च होने वाले पैसे का इस्तेमाल अब दूध, मिठाई, कपड़े, फर्नीचर और गाड़ियां खरीदने में हो रहा है, क्योंकि आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में इन सबकी खरीदारी बढ़ी है। नीतीश यह भी दावा करते हैं कि सभी धर्मों का साथ मिलने के कारण शराबबंदी से सांप्रदायिक सौहार्द भी बढ़ा है। लूट, अपहरण, फिरौती, हत्या आदि में भी कमी आई है।


एक अप्रैल को बिहार में शराबबंदी को एक वर्ष हो चुका है। निश्चय ही इस फैसले ने समाज, खासकर हाशिए पर मौजूद महिलाओं को काफी लाभ पहुंचाया है। मगर सभी लोग नीतीश कुमार के दावों से सहमत हों, ऐसा नहीं है। अपराध की दर में कमी और खरीदारी में तेजी को तब तक संदेह की नजरों से देखा जाता रहेगा, जब तक अनुभव जन्य साक्ष्य इन तर्कों से मेल न खाएं। यदि नीतीश कुमार के दावों के मुताबिक बिहार में बदलाव हुआ है, तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। अभी तो केरल, तमिलनाडु और देश के कई दूसरे राज्य शराबबंदी की वजह से हलकान हैं। केरल तो देश में सबसे अधिक शराबखोरी करने वाला सूबा है, जहां प्रति व्यक्ति शराब की खपत आठ लीटर से भी ज्यादा है। हमने प्रतिबंध से पहले केरल और तमिलनाडु में सुबह दुकान खुलने के पहले ही शराब के लिए लगी लाइनें देखी हैं। शराब को सर्व सुलभ बनाने वाली लोलुप सरकारें अब असमंजस में हैं, क्योंकि महिलाएं इसके खिलाफ लगातार मुखर हो रही हैं।


पूर्ण शराबबंदी या शराब की उपलब्धता को आसान बनादेना,दोनों समस्या का हल नहीं हैं। सरकारों को राजस्व और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन साधना होगा। शराबखोरी जहां एक तरफ परिवारों व समुदायों को बर्बाद करती है, वहीं पूर्ण शराबबंदी भी कोई सफल कदम नहीं है। देश-दुनिया में इसके कई प्रमाण हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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