शिक्षा का बाजारवाद– रमेश दवे

शिक्षा को जब हम अपने अतीत से जोड़ते हैं तो संस्कार की ध्वनि सुनाई देती है, लेकिन जब अपने वर्तमान समय से जोड़ते हैं तो विकार और व्यापार के विज्ञापनों के धमाके सुनने को मिलते हैं। वैश्वीकरण, बाजारवाद और उत्तर-आधुनिकता के इस तरह-तरह की मृत्यु-घोषणा के समय में अगर इतिहास, साहित्य, साहित्यकार या लेखक की मृत्यु पश्चिमी चिंतक घोषित करते रहे हैं, तो क्या यह सच नहीं है कि हम जिस समय में हैं वह समय भाषा, शिक्षा, शैक्षिक संस्थाओं, पुस्तक और अध्यापक-प्राध्यापक के अंत का समय है? रोलां बार्थ हों, कलर, करेनन हों या भाषा के विखंडनवाद के पुरोहित देरिदा हों, ये सब मानो अतीत से ऊबे हुए विचारक हैं। आधुनिकता एक विचार बन कर जिस प्रकार व्यवहार में परिणत हुई थी, उत्तर-आधुनिकता उसका कोई प्रति-विचार तो बन कर नहीं आई, मगर हर स्थापित को विस्थापित करने का नकारवाद अवश्य लेकर आई। इसीलिए पश्चिम के विचारकों ने भी उतर-आधुनिकता को प्रवृत्ति या मूड तो माना है, लेकिन विचार का नाम नही दिया। देरिदा ने डी-सेश्योर के संरचनावाद को नकार कर विखंडनवाद का भाषाई दर्शन रचा, क्योंकि देरिदा स्वयं एक दार्शनिक थे, लेकिन भाषा में हस्तक्षेप करके उन्होंने भाषाई मान्यताओं को झकझोर दिया।


शिक्षा में पाठ और पाठ्यक्रम स्कूल से विश्वविद्यालय तक शैक्षिक प्रणाली बन कर आए। पाठ के दो अर्थ हैं एक तो पुस्तक ने छपा लेखन, जो पाट्यक्रम पर आधारित होता है और दूसरा अर्थ है पाठ यानी पढ़ना और पाना, यानी किसी भी रचना को अपने स्वयं का पाठ, अपने अर्थों और अपनी अलोचना-दृष्टि का पाठ बना कर पढ़ना। रोलां बार्थ, ल्योतार और सूजन सौस्टेंग ने किसी भी रचना को व्याख्या के विरुद्ध का विचार रखते हुए कहा था कि रचना-पाठ पाठक की मनीषा का हिस्सा है। पाठक उसे अपनी मेधा से अपने अर्थों में पढ़ता है, इसलिए उसकी व्याख्या करना उचित नहीं। इस विचार के विरुद्ध पारंपरिक तरीका तो पाठ को विश्लेषित करने, उसकी व्याख्या करने और अध्यापक या आलोचकों द्वारा दिए गए अर्थों से पढ़ने का तरीका रहा और यह तरीका आज तक इतना प्रचलित है कि पाठ से उपपाठ या सहपाठ, नोट्स या कुंजियों, व्याख्याओं और प्रश्न बैंकों से बने पाठों ने शिक्षा का ऐसा बाजार रच दिया कि शिक्षा व्यापार हो गई, बाजार हो गई और पाठ का भी अंत कक्षाओं और अध्यापकों द्वारा स्वयं ही कर दिया गया।


पाठ या अध्यापन का स्थायी अंत इतना व्यापक हुआ कि कक्षा का विकल्प कंप्यूटर बन गया, शिक्षा का विकल्प वेबसाइट में समा गया और किताब का अंत कर वेबसाइट ने पाठक की आई-साइट पर हमला कर उसे पाठक कम, पाठ का दर्शक बना दिया। विचार की शिक्षा का अंत हो गया, बाजार की शिक्षा के विज्ञापनी-प्रचार की शिक्षा हमारे समय की महंगी व्यवस्था और संस्थान बन गई। स्कूल और महाविद्यालय, विश्वविद्यालय अब मात्र भवन बन गए और कोचिंग क्लासों के रंगीन विज्ञापनों के आकर्षण से बंधी शिक्षा हमारी युवा पीढ़ी का नया शिक्षा-मोह बन गई। तकनीक के तंत्र ने शिक्षा से निष्ठा छीन कर उसे व्यापार और बाजार का प्रतिष्ठा-प्रतीक बना दिया। कोचिंग-कक्षाओं ने यांत्रिक ढंग से कराई गई तैयारियों से पाठ केप्रश्नोत्तरों के आॅब्जेक्टिव नोट्स बन गए। परीक्षा पास करने की गारंटी, रोजगार की गारंटी उसी प्रकार दी जाने लगी जिस प्रकार बाजार से उपभोक्ता सामग्री खरीदते वक्त दी जाती है। इस गारंटीवाद ने पाठ में रुचि का भी अंत कर दिया।


शिक्षा ज्ञान और कौशल का समन्वय है। वह रोजगार नहीं देती, बल्कि रोजगार के लिए क्षमता देती है, सक्षम बनाती है। शिक्षा को इसलिए विनोबा हुनर से जोड़ कर कहते थे कि चीन की तरह हाफ-हाफ स्कूल की प्रणाली अपना कर आधे समय हुनर या काम और आधे समय शिक्षण या ज्ञान दिया जाए। हमारे देश में कोठारी आयोग की उत्पादन आधारित शिक्षा, मुदलियर आयोग की क्राफ्ट या शिल्प शिक्षा, उसके बाद समाजोपयोगी उत्पादक कार्य की शिक्षा, वर्क-एक्सपीरियेंस की शिक्षा व्यावसायिक शिक्षा, यह सब फेल हो गई, क्योंकि विचार के स्तर पर तो यह ठीक थी, मगर व्यवहार का हुनर बन कर ये नहीं स्थापित हो सके। शिक्षा में छात्र-छात्राएं बढे, संस्थाओं का सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर जाल बिछा, मगर संस्थागत शिक्षा का औपचारिक मॉडल कोचिंग क्लासों ने हड़प लिया और शिक्षा वैश्विक बाजारवाद के शिकंजे में आ गई। इससे शिक्षा में संस्थागत शिक्षा की साख घटी, अध्यापक की प्रतिष्ठा घटी, परीक्षा की प्रतिष्ठा घटी, मगर तकनीक ने कोचिंग क्लासों के जाल को विश्वव्यापी बना दिया। जिसे हम उच्च शिक्षा का तकनीकी तंत्र कहते हैं और जिसमें आईआईटी, आईआईएम और अन्य उच्च व्यवसायवादी शिक्षा हैं, उसके अधिकतर छात्र-छात्राएं कोचिंग क्लासों की पैदाइश हैं, न कि सरकारी या गैर-सरकारी स्कूल-कॉलेजों की कक्षाओं के। इन कोचिंग कक्षाओं में कुछ अपवादों को छोड़ दें तो वही अध्यापक-प्राध्यापक पढ़ाते हैं, जो पहले घर पर ट्यूशन करते थे। इस प्रकार शिक्षा को उसकी संस्कार-भूमि से उखाड़ कर बाजार का व्यापार बनाने का काम स्वयं शिक्षकों ने स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक किया है।


शिक्षा का रुझान पूरी तरह बदल गया है। इवान इलिच शिक्षा को सेलीब्रेशन आॅफ अवेयरनेस यानी चेतना का उत्सव मानते थे, इसलिए वे संस्थागत शिक्षा के विरुद्ध ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें स्कूल भंग हो जाए। तात्पर्य यह है कि स्कूल एक विचार है, जो पढ़ने वालों में विचार-जड़ता उत्पन्न करता है। इसलिए इस जड़ता को भंग करके समाज में एक नए विचार के रूप में इवान इलिच कंयूटर शिक्षा के नेटवर्क की बात करते थे। स्कूल का संस्था के रूप में तो अंत होने लगा है, लेकिन विचार के रूप में अभी अंत नहीं हुआ है, भले ही तकनीकी तंत्र आ गया हो। अब प्रश्न है कि अगर शिक्षा पूरी तरह बाजारवाद की शिकार हो गई तो क्या एक दिन वह नहीं आ जाएगा जब दुनिया के सारे देश अपनी सांस्कृतिक-विभिन्नता खो देंगे, अपनी भाषाई विरासत और भाषाई शक्ति खो देंगे और जैसा एलविन टॉफलर मानते थे कि भाषा वाक्यों से टूट कर एब्रीविएशंस यानी संक्षेपीकरण की शिकार हो जाएगी। एक जैसे वस्त्र, एक जैसा भोजन, एक जैसी भाषा और एक जैसी शिक्षा के बाजार में खड़ा मनुष्य सिर्फ वह ग्रहण करेगा जो सेटेलाइट देगा, टीवी चैनल देगा, विज्ञापन का बाजार देगा और शिक्षा ऐसे में संस्कार, विचार या दर्शन के बजाय केवल बाजार की उपभोक्ता सामग्री बनकररह जाएगी, जिसे खरीदा और बेचा जा सकेगा।अगर शिक्षा वास्तव में चेतना का संस्कार है तो हमें चेतना का भी ऐसा बाजार पैदा करना होगा, जिसमें मनुष्य का मनुष्यपन सुरक्षित रहे और प्रकृति, पर्यावरण, संस्कृति, ज्ञान, विचार, दर्शन, अध्यात्म अपने लोकाचार और अपनी परंपरा को बचा कर रखा जा सके।

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