हमें और मंदसौर नहीं चाहिए– शशिशेखर

दसौर की घटना पर आंसू बहाने वाले दिल कड़ा कर लें, क्योंकि असंतोष की चिनगारियां देश के कई हिस्सों में छिटक रही हैं। कारण? गांवों और कस्बों में रहने वाली देश की बड़ी आबादी के लिए ताकतवर भारतीय राष्ट्र-राज्य अब भी दूर की कौड़ी है। क्या हमें इस बात पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि कृषि-प्रधान कहलाने वाले देश की कोई कारगर ‘राष्ट्रीय कृषि नीति’ नहीं है?


1947 से अब तक की तमाम सरकारों ने किसानों को ‘वोट बैंक’ मानकर उन्हें सिर्फ बहलाया-फुसलाया, सही रास्ता दिखाने की कोशिश नहीं की। यही वजह है कि गांव तेजी से वीरान होते जा रहे हैं और शहर अनामंत्रित लोगों के बोझ से बदहाल। आए दिन मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद या चेन्नई जैसे महानगरों के विलासी सत्तानायक अपने शहरों की बरबादी के लिए बाहर से आए लोगों का रोना रोते हैं। वे भूल जाते हैं कि ये ‘बाहरी’ अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि मजबूरियों के चलते आए हैं। भला कौन अपने ही मुल्क में जलावतन होना चाहता है?


पिछले दिनों जब जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसान धरना दे रहे थे, तो उन्हें अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए खुद को काफी कष्ट देना पड़ा था। कुछ लोगों ने इसे राजनीति से प्रेरित बताकर निर्दयता से किसानों की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि आपने कितनी बार लोगों का ध्यान खींचने के लिए मूत्रपान किया, चूहे खाए या गले में खोपड़ियां लटकाकर चीत्कार किया? कौन अपनी मर्जी से इस जुगुप्सा को जीना चाहेगा?


हो सकता है, कुछ लोगों ने उनके दुख-दर्द का लाभ उठाने की कोशिश की हो, पर किसान तो हमेशा ऐसे निर्मम मजाक के शिकार होते रहे हैं। जाड़े में पंजाब के जिन किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर हजारों टन टमाटर बिखेर दिया था, क्या वे नाटक कर रहे थे? उत्तर प्रदेश के जिन किसानों का आलू सड़कों पर पड़ा-पड़ा सड़ गया, क्या वे भी राजनीति प्रेरित थे? महाराष्ट्र में सड़कों पर दूध बहाने वाले बेहाल थे, बददिमाग सियासतदां नहीं। हम कब तक सच का उपहास करते रहेंगे?


मंदसौर में किसानों पर हुई फायरिंग में पांच लोगों के मारे जाने के बाद मैंने मैनपुरी में अपने गांव के कुछ किसानों से बात की। वहां के आम लोगों की थाली से दाल नदारद हो गई है। वे सुबह और शाम आलू या घर के आस-पास जतनपूर्वक उगाई गई एकाध हरी सब्जी खाकर गुजारा करते हैं। ये वो लोग हैं, जिन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने कंधों पर भारी हल ढोए हैं, इसीलिए किसानों के कांधे चौडे़ होते थे। अब प्रोटीन की कमी उनकी कद-काठी पर बुरा असर डालती दिख रही है। झुके कंधों वाले कृषकाय कृषक! मन वितृष्णा से बजबजा उठता है। ऊपर से जीने के लिए सर्वाधिक जरूरी जल उन्हें उपलब्ध नहीं है। गांव के कुएं बहुत पहले सूख गए थे। अब तो हैंडपंप की बोरिंग भी काफी गहराई तक करनी होती है। उनका जल इतना खारा होता है कि उसे पीना लगभग नामुमकिन है। नौजवानों के दांत फ्लोराइड की अधिकता से झड़ने लगे हैं। औरतें और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कभी ये लोग आसमान में बादल के गहराते हीनाच उठते थे, आज उनका मन आशंका से कांपता है कि अगर ऊपर वाला मेहरबानी कर हर मौसम को खेती के लिए आदर्श भी बना दे, तो उनकी फसल बिकेगी कैसे? इन लोगों के लिए ऋण-माफी नासूर बन चुके घाव का इलाज नहीं, महज मरहम-पट्टी है। कब तक ग्राम देवता खैरातों पर बसर करता रहेगा? मध्य प्रदेश में जहां किसान आंदोलन कर रहे हैं, वहां पिछले पांच साल में देश में सबसे ज्यादा कृषि विकास दर रही है। 2014 में तो वह 25 फीसदी तक पहुंच गई, जबकि बाकी देश में वह चार फीसदी के आस-पास थी। लेकिन इतनी अधिक उपज पैदा करने के बाद वहां के किसानों को न उचित दाम मिले और न खरीदार।

करें तो करें क्या? हर फसल के साथ जब कर्ज घटने की बजाय बढ़ता दिखे, तो कृषकों का गम और गुस्सा स्वाभाविक है। पहले गम के दुष्परिणाम- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, साल 1995 से 2015 तक 3,18,528 भूमिपुत्रों ने असमय मौत को गले लगा लिया। इसी तरह 2001 से 2011 के बीच 90 लाख किसानों ने अपनी पुश्तैनी जायदाद छोड़ शहरों की ओर पलायन किया। एक अध्ययन के मुताबिक, हर रोज 2,000 से ज्यादा किसान रोजी-रोटी की आस में शहरों की ओर भाग रहे हैं। उन पर किसी मानवाधिकार आयोग या आतंकवाद पर आंसू बहाने वालों की नजर क्यों नहीं जाती?

अब आते हैं गुस्से पर। मंदसौर की घटना अचानक नहीं हुई। पहली जून को महाराष्ट्र में आंदोलन शुरू हुआ और अगले ही दिन वह मध्य प्रदेश में भी फैल गया। सरकारों की दिक्कत यह है कि वे स्थायी समाधान सुझाने की बजाय किसानों के आक्रोश को कानून और व्यवस्था की समस्या समझकर फैसले लेती हैं। ऐसा नहीं होता, तो मध्य प्रदेश के जिम्मेदार लोगों ने शुरुआती तौर पर बचकानी प्रतिक्रिया न दी होती कि मंदसौर में लोग पुलिस की गोली के शिकार नहीं हुए। ये लोग कब तक सच पर परदा डालते रहेंगे? एक समय था, जब राम मनोहर लोहिया ने किसानों पर गोलीबारी के खिलाफ केरल में अपनी ही सरकार गिरा दी थी। तब से अब तक हुक्मरानों की नीयत किस तरह डोली है, जंतर-मंतर और मंदसौर के बाद उपजी प्रतिक्रियाएं इसका उदाहरण हैं। इसके लिए कोई एक पार्टी या कुछ नेता नहीं, बल्कि समूची सत्तालोलुप सियासत दोषी है। इसी वजह से देश के मुख्तलिफ हिस्सों में असंतोष की आंच सुलग रही है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनशन करके किसानों के असंतोष को शांत करने की कोशिश जरूर की है, लेकिन यह असंतोष अब बाकी प्रदेशों में भी फैल रहा है।

इस आशंका की सबसे बड़ी वजह यह है कि जिस दिन मंदसौर की घटना हुई, उसी दिन देश के दूसरे हिस्से में चार किसानों ने कर्ज से बदहाल होकर आत्महत्या कर ली। जब बदहाली जिजीविषा पर भारी पड़ रही हो और असंतोष का जवाब दमन हो, तो अमंगल गहराने लगता है। हमें एक क्षण को बिसराना नहीं चाहिए कि अतीत में कई बार इन धरतीपुत्रों ने अपने औजार पिघलाकर दरांतियां बनाई हैं। वे जब उफन पड़ते हैं, तो ऐसा दरिया बन जाते हैं, जिसका बहाव सारे बंध-तटबंधतोड़देता है। मध्य प्रदेश इसका ताजा उदाहरण है।

समय आ गया है कि नई दिल्ली से लेकर सूबाई सत्ता में बैठे लोग इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें। आजाद भारत की पुलिस अपने ही लोगों पर गोली चलाती हुई अच्छी नहीं लगती। हमें और मंदसौर नहीं चाहिए।

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