शिक्षा की परीक्षा– जगमोहन सिंह राजपूत

देश की शिक्षा व्यवस्था की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है और इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी शैक्षणिक संस्थानों की साख लगातार गिरती जा रही है। जिस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं वे बेहद चौंकाने वाली हैं। बिहार में 12वीं की परीक्षा में करीब 65 फीसदी विद्यार्थी फेल हो गये। क्यों फेल हो गए, क्योंकि वहां योग्य शिक्षकों का घोर अकाल हो गया है। संविदा शिक्षकों की भर्ती हो रही है। कहीं उन्हें गेस्ट टीचर नाम दिया जा रहा है और कहीं उन्हें शिक्षा मित्र नाम दिया जा रहा है। उनकी नौकरी के स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे शिक्षकों के दम पर बच्चों की पढ़ाई- लिखाई छोड़ दी जाएगी तो रिजल्ट ऐसा ही होगा। बात केवल बिहार की नहीं है, यह हाल समूचे देश का है। निजी स्कूलों की भरमार बढ़ती जा रही है और सरकारी संस्थानों की साख दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है। अब यदि आप कहते हैं कि कई सरकारी संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों ने भी अच्छा रिजल्ट दिया है तो ऐसा वहीं हुआ है, जहां की सरकार ने बच्चों के लिए अपने स्कूलों में बेहतर प्रबंध किए हैं। उदाहरण के तौर पर मुझे कुछ शिक्षकों ने दिल्ली के बारे में बताया, जहां स्कूलों में सुविधाएं जुटाने के बाद अच्छे परिणाम आये। सरकार चाहे कोई भी हो यदि वह स्कूलों में बेहतर प्रबंध करेगी तो उसका परिणाम बेहतर आएगा, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर ऐसा हो नहीं रहा है। मैंने यूपी के हरदोई जिले में अपने गांव लोनर के जिस स्कूल से प्राइमरी कक्षा पास की थी वह


स्कूल आज भी प्राइमरी ही है। सरकारी स्कूलों से लेकर कालेजों तक समूची व्यवस्था को तदर्थवाद के जिस ढांचे में ढोया जारहा है, उन्हें देखते हुए अगर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मानकों पर सरकारी स्कूलों को परखा जाए तो तमाम राज्यों में 90 से 95 प्रतिशत स्कूल फेल हो जाएंगे।


देश की शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया एक फैसला बड़ा महत्वपूर्ण है और यदि यह फैसला पूरे देश में लागू कर दिया जाए तो यह दावा किया जा सकता है कि देश की शिक्षा में बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। इस फैसले में यह कहा गया था कि जो भी लोग सरकार के खजाने से वेतन लेते हैं उनके बच्चों की पढ़ाई आवश्यक रूप से सरकारी स्कूलों में होनी चाहिए। यदि इस आदेश को देश में लागू कर दिया जाए तो तमाम सरकारी स्कूलों की स्थिति देखते ही देखते बदल जाएगी और सरकारी स्कूलों के परिणाम निजी स्कूलों के मुकाबले बहुत अच्छे आएंगे, लेकिन हालत यह है कि ऊंचे ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों को यह स्थिति बिल्कुल पसंद नहीं है और वे सरकारों को हमेशा गलत सलाह देते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज शिक्षा

निवेश का सबसे आकर्षक क्षेत्र है। चारों ओर निजी स्कूल खुलते जा रहे हैं और सरकारी स्कूलों की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है, क्योंकि सरकार की ओर से जो सहायता मिलनी चाहिए, वह सहायता सरकारी स्कूलों को नहींमिल रही।


वर्ष 1960 तक समूचे देश में सरकारी स्कूल ही थे। चाहे किसी भी परिवार से ताल्लुक रखने वाला बच्चा हो, सबको सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाना होता था। परिणाम यह था कि चारों ओर सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत अच्छी थी और उन्हीं स्कूलों से पढ़कर एक से बढ़कर एक बच्चे आगे आ रहे थे। लेकिन उसके बाद से स्थितियां खराब होती गईं। सरकारों ने शिक्षा की जिम्मेदारी से हाथ खींचना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गई कि नियमित शिक्षकों की नियुक्तियां बंद कर दी गईं और संविदा शिक्षकों के सहारे स्कूल चलाए जाने लगे और जाहिर तौर पर इस स्थिति की वजह से जब शिक्षा का स्तर गिरा तो निजी स्कूलों की चांदी हो गयी। शिक्षा के क्षेत्र में एक और बात ध्यान देने की है जीवन के बाकी क्षेत्रों की तरह ही शिक्षा में नैतिकता के पतन का बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा है। सवाल यह है कि शिक्षा राष्ट्र के निर्माण का पेशा है। पहले लोग इसे पुण्य का काम समझते थे। भारतीय संस्कृति में शिक्षा को कभी भी कमाई का जरिया नहीं माना गया। हमारे देश में कभी उन लोगों का सम्मान नहीं किया गया, जिन लोगों ने ऊंची-ऊंची इमारतें बनवा दीं, हमारे देश में सम्मान उनका हुआ, जिन्होंने त्याग किया, पुण्य किया, राष्ट्र निर्माण का कार्य किया। लेकिन आज जो हालत है उसे देखते हुए ऐसे लग रहा है कि शिक्षा सबसे बड़ा कमाई का जरिया बन गयी है। यही वजह है कि सरकारी क्षेत्र के स्कूल-कॉलेजों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों की हालत खराब हो रही है और निजी संस्थान फल-फूल रहे हैं। इसमें यह बात जरूर गौर करने वाली है कि जिन संस्थानों को सरकार की ओर से पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं, वे संस्थान किसी भी निजी संस्थान के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।


ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि आज की स्थिति सुधर नहीं सकती। कोई भी सरकार यदि चाहे तो अपने यहां के स्कूलों की स्थिति को बेहतर कर सकती है और यह बात भी पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि ऐसी सरकारों को जनमानस का भी भरपूर समर्थन मिलेगा, लेकिन शर्त यह है कि वे ईमानदारी से आम लोगों के हक में और शिक्षा के हक में काम करें। बड़ा सवाल यह है कि जब देश में चारों ओर शिक्षा के निजीकरण का दौर चल रहा है, ऐसे में बदलाव की उम्मीद कैसे की जाए। यह कैसे माना जाए कि एक दिन ऐसा आएगा जब सरकारी स्कूलों के दिन बहुरेंगे और निजी स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों की स्थिति बेहतर होगी। मेरा यह मानना है कि इसके लिए बहुत दिनों तक इंतजार करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि बदलाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। निजी स्कूलों के खिलाफ देशभर में प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है। कहीं फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं तो कहीं किसी और मुद्दे पर आंदोलन हो रहा है। अभिभावक भी स्थिति को अब ठीक प्रकार से समझने लगे हैं। ऐसे में यह मानने की पूरी गुंजाइश है कि यहांकेलोग ही बदलाव लाएंगे।


सरकारों पर यह दबाव बढ़ेगा कि वे शिक्षकों की नियमित तौर पर नियुक्ति करें, संविदा पर नियुक्तियों को बंद किया जाए और सरकारी स्कूलों में जितनी ज्यादा सुविधाएं दी जा सकती हों, दी जाएं। सरकार के स्तर पर भी परिवर्तन जरूरी है। सरकारों को भी अपने काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव करना होगा और शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा खर्च कर बेहतर परिणाम पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यह वक्त की मांग है कि इस सोच में बदलाव किया जाए कि शिक्षा कमाई का क्षेत्र है। सोच यह होनी चाहिए कि शिक्षा राष्ट्र निर्माण का क्षेत्र है, पुण्य का क्षेत्र है। सरकारी शिक्षक होना और राष्ट्र के लिए बेहतर से बेहतर होनहार तैयार करना शिक्षकों के लिए गर्व का विषय होना चाहिए। इस देश में शिक्षा को लेकर हमेशा से यही सोच रही है और यही होनी चाहिए, तभी देश में शिक्षा की स्थिति ठीक होगी और सरकारी स्कूलों के रिजल्ट भी निजी स्कूलों से कहीं बेहतर होंगे।

हरियाणा : 15000 गेस्ट टीचर

हरियाणा में वर्ष 2005 में भूपेंद्र हुड्डा की सरकार ने सरकारी स्कूलों में नियमित शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए अतिथि अध्यापकों की नियुक्ति की थी। इन्हें स्थाई भर्ती होने तक लगाया गया था, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद भी न तो हुड्डा सरकार इन्हें हटा सकी और न ही मौजूदा खट्टर सरकार यह काम कर पा रही है। इस समय राज्य में 15 हजार से अधिक अतिथि अध्यापक हैं। इनमें से करीब 6000 तो अकेले जेबीटी ही हैं। बाकी में सी एंड वी व मास्टर तथा स्कूल प्राध्यापक शामिल हैं। ये शिक्षक अब नियमति शिक्षकों की भर्ती में रोड़ा बने हुए हैं। इसके बावजूद खट्टर सरकार इन्हें हटाने के पक्ष में नहीं है। यहां तक कि सरकार ने इन्हें बनाए रखने के लिए शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात को भी संशोधित कर दिया है। पहले 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होता था अब इसे बदलकर 25 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक कर दिया है। सरकार के सूत्रों के अनुसार, भाजपा सरकार चाहकर भी अतिथि अध्यापकों को नियमित नहीं कर पा रही है। कितनी ही बार आंदोलन के लिए उतर चुके अस्थाई अितथि अध्यापकों से शिक्षा को कितना नुकसान हुआ होगा यह हिसाब न तो नीति-निर्धारक लगा पाये हैं और न ही सरकार।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं )

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