रोजी बनाम राम- एकै साधे सब सधे— मुकेश भारद्वाज

सरकार के हर मंच से नोटबंदी को सही बताने के बाद 2016-17 की चौथी तिमाही के आंकड़े बताते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद दर घट कर 7.1 से 6.1 फीसद पर आ गई। बाजार में तरलता की कमी से मांग घटी और छोटे कारोबारियों की कमर टूट गई। अब जबकि जीएसटी के अमल का समय नजदीक आ रहा है, सरकार जमीनी सच्चाई को नकारते हुए कमजोर अर्थव्यवस्था का ठीकरा वैश्विक कारणों पर फोड़ रही है। वहीं, जिस राज्य में पहलू खान की गोरक्षकों द्वारा पीटकर की गई हत्या सवालों के घेरे में है वहां की अदालत में जज साहब गाय को राष्ट्रीय पशु बनाने की वकालत करते हैं। अदालत के बाहर जज साहब यह भी समझाते हैं कि मोर को राष्ट्रीय पक्षी इसलिए घोषित किया गया है कि वह ‘ब्रह्मचारी’ है। सरकार से लेकर अदालत तक में सच को परे रख भ्रमजाल बुनने के इस समय पर बेबाक बोल।

विकास दर में गिरावट का कारण विमुद्रीकरण नहीं, वैश्विक है…और कांग्रेस से मिली कमजोर अर्थव्यवस्था। देश के सकल घरेलू उत्पाद के ताजा आंकड़ों पर बात करते हुए जेटली साहब तेजी से सेना और पाकिस्तान की ओर मुड़ गए। इसके पहले नोटबंदी लागू करते वक्त वित्त मंत्री जी इसके असर को सरहद के साथ जोड़ना नहीं भूलते थे। शायद उनकी इसी काबिलीयत को देखते हुए उन्हें रक्षा मंत्रालय की दोहरी जिम्मेदारी भी दे दी गई। अर्थव्यवस्था की झुकती कमर को सरहद का सहारा देकर खड़ा करना वे अच्छी तरह से जानते हैं। नोटबंदी से कितना कालाधन पकड़ा गया और भ्रष्टाचार कितना रुका जैसे सवाल निर्वात में घूमते रहे, इनका जवाब देना वित्त सह रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी नहीं है।

जब वित्त वर्ष 2016-17 की चौथी तिमाही के आंकड़े बता रहे थे कि सकल घरेलू उत्पाद विकास दर घटकर 6.1 फीसद आ गई, नोटबंदी का उलटा असर हो रहा है, उसी समय राजस्थान हाई कोर्ट के जज गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सिफारिश कर रहे थे। सरकार के तीनसाला उपलब्धि आख्यान पर जो स्वप्नगान था, उसपर तिमाही आंकड़े नोटबंदी के फैसले पर फिर से बहस की मांग कर रहे थे। लेकिन सोशल मीडिया पर यह सत्ता से पसरे माहौल का असर था कि कमजोर अर्थव्यवस्था पर ब्रह्मचारी मोर हावी हो गया। मोर के आंसुओं से संततिजनन की व्याख्या करते हुए जज साहब अपनी सेवानिवृत्ति के साथ महंगाई, बेरोजगारी और कम उत्पादन के मुद्दे को उड़ा ले गए।

दिल्ली और बिहार हारने के बाद मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश थी और जनता के सामने परोसने के लिए कथित राम-राज्य से ज्यादा कुछ नहीं था। उत्तर प्रदेश में घुसने से पहले मोदी सरकार ने ‘एकै साधे सब सधे’ की तर्ज पर नोटबंदी को पेश किया। प्रधानमंत्री महानायक की तरह टीवी पर अवतरित हुए और इसे कालेधन के खिलाफ महायज्ञ बताया। आगे गृह मंत्रालय की ओर से बयान आया कि नोटबंदी के बाद से कश्मीर में पत्थरबाजी खत्म हो गई। सरकार से जुड़े संगठन भारत की नोटबंदी से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के खात्मे के नारे लगाने लगे। हालांकि उसके बाद रिजर्व बैंक के मुखिया उर्जित पटेल संसदीय समिति के सामने नोटबंदी केफायदे और आंकड़े देने में नाकाम रहे और वहां पर मनमोहन सिंह की ‘बरसाती’ ने उनकी थोड़ी-बहुत मदद की। और, कश्मीर का हाल तो सबके सामने है।

तो तिमाही के आंकड़े कहते हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पादन घट गया है, जो नोटबंदी का रिपोर्ट कार्ड बताने के लिए काफी है। इसके पहले सरकार में मोदी के बाद दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले अमित शाह सार्वजनिक कार्यक्रम में साफ-साफ कह चुके हैं कि देश के 125 करोड़ लोगों को रोजगार देना संभव नहीं है। स्वरोजगार का दांव फेंकते हुए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यही कहा कि लोगों को अपनी रोजी-रोटी की चिंता खुद करनी पड़ेगी। भारत जैसे देश में जहां कुल श्रमबल का 85 फीसद असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है, वहां स्वरोजगार अभी तक मृगमरीचिका जैसा ही है। राजग सरकार अभी तक ऐसी कोई रिपोर्ट पेश भी नहीं कर पाई है, जिसमें उसने बताया हो कि स्वरोजगार की राह के लिए तीन साल में क्या काम किया गया और उसका नतीजा क्या है? कई जगह से मिले आंकड़ों का लब्बोलुआब यही है कि यूपीए के आखिरी तीन साल की तुलना में राजग सरकार ने आधे से भी कम नौकरियां पैदा की हैं।


सबको नौकरियां मुहैया करवाने से इनकार करने के बावजूद सरकार अभी तक यह स्वीकार नहीं कर रही है कि नोटबंदी का उलटा असर नौकरियों पर भी पड़ा है। आंकड़े बताते हैं कि रियल स्टेट में विकास दर 6 फीसद से घटकर 3.7 फीसद हो गया है। दिल्ली से सटे उत्तर भारत का सबसे बड़ा संपत्ति बाजार नोएडा और ग्रेटर नोएडा महामंदी की चपेट से गुजर रहा है। बिल्डरों की सेहत बिगड़ी तो ठेकेदारों और मजदूरों के हाथ से काम निकल गया। सरकार ने कालेधन पर जो मार की है उसका नतीजा अभी भी आम आदमी झेल रहा है। क्या आज आप कहीं भी सिर्फ ‘सफेद पैसों’ से और वाजिब बैंकिंग व्यवस्था के जरिए मकान खरीद सकते हैं? आपने ऊपर के स्तर पर जिसे ‘काला’ करार दिया, नीचे के स्तर पर उसी को सफेद करने की मांग हो रही है। और, सबसे नीचे खड़ा वही आम आदमी है जिसे ऊपर के लिए काले को सफेद करना है। निर्माण सामग्री की मांग काफी कम होने से कारोबारी से लेकर कामगार तक त्राहिमाम की स्थिति में हैं।

नोटबंदी के बाद बैंकों ने जैसे-जैसे फरमान जारी किए उससे आम आदमी का बैंकों से भरोसा भी टूटा है। एक साधारण कामगार अपनी छुट्टी के दिन भी इसलिए काम कर रहा है कि उसे अपने खाते में पांच हजार रुपए रखने हैं। अगर वह गरीब अपने खाते में पांच हजार रुपए नहीं रखेगा तो देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक के दंड का भागी बनेगा। अपने ही पैसे बचाए रखने के लिए उसे अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही है। और, एटीएम की हालत देखकर तो लगता है कि सरकार ने इन पैसे उगलती मशीनों को बंद करवाने के लिए ही नोटबंदी का फरमान जारी किया था। दूरदराज की तो बात छोड़ें, दिल्ली तक में आप यह भरोसा नहीं कर सकते कि पैसे की जरूरत होने पर मोहल्ले का एटीएम आपका साथ देगाही।और गुलाबी दो हजारी नोट अभी तक ‘बेवफा’ के तमगे को परे नहीं रख पाया है। अगर आपको दो सौ रुपए का सामान लेना है तो छोटे बाजार में इसे लेकर दर-बदर होते रहें। और हां, डिजिटल लेनदेन जितना बढ़ा है, डिजिटल गड़बड़ियों की उससे ज्यादा बाढ़ आ गई है। आॅनलाइन ठगी के शिकार लोग अभी भी हतप्रभ की स्थिति में रहते हैं कि जाएं तो कहां जाएं?


मोदी सरकार ने नोटबंदी के फैसले को बैंकिंग सुधार से भी जोड़ा था। उम्मीद के उलट बैंकों के पास नकदी की आमद नहीं हुई है। पिछले छह महीने में बैंक साख की वृद्धि दर महज 4 फीसद है जिसे पिछले पांच दशकों में सबसे कम माना जा रहा है।

जब कमजोर अर्थव्यवस्था और घटती नौकरियों पर चर्चा को जज साहब का ब्रह्मचारी मोर जंगल की ओर ले उड़ा तो उसी वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरयू तट पर अर्घ्य अर्पित कर रहे थे। भगवा के फायर ब्रांड जब आरोपों के घेरे में हों और सब मंदिर यहीं बनाएंगे का राग आलापने लगें तो योगी का अयोध्या के दर पर जाना क्या दर्शाता है? उत्तर प्रदेश में हाईवे पर सामूहिक बलात्कार, आइएएस की हत्या, सहारनपुर योगीराज की पदावली को जंगलराज की ओर ले ही जा रहा था तब योगी फिर से लोगों का ध्यान रामराज की ओर बंटा ले गए। गाय, गीता और सेना से तो आप तीन साल खींच ले गए। अब आगे क्या? योगी संदेश दे रहे हैं अयोध्या। नोटबंदी के बाद आए कमजोर आंकड़े, घटती नौकरी पर बहस करने के बजाए भाजपा फिर से मंदिर पर ही जनता को उलझाने की कोशिश करेगी, यह रणनीति तो तय है।

सरकार तो यही चाहती है कि योगी के अयोध्या जाने पर सवाल हो, बहस हो। सरकार को इस बात का पूरी तरह अहसास है कि हिंदुत्व के नाम पर वह वोट तो ले आई है, हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच के फर्क को भी पाट रही है लेकिन उसे अभी मध्यवर्ग की विचारधारा नहीं बना पाई है। मध्यवर्ग कह ही देता है कि भाजपा को नहीं मोदी को वोट दिया है, कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया है। जनता कांग्रेस के खिलाफ तो गई, लेकिन वह विचारधारा के स्तर पर संघ या भाजपा के साथ अभी नहीं आई है। और, विचारधारा का यही संकट जज साहब के अजीबोगरीब बयान और सड़क पर स्वच्छ भारत के अघोषित नुमाइंदे की शहादत के रूप में दिखता है। और, जब सरकार स्वच्छ भारत के शहीद के लिए महज एक लाख रुपए का मुआवजा घोषित करती है तो वह भी विचारविहीन अपने नग्न रूप में सामने दिखती है।
अभी भारत के ताजा हालात की तुलना हम लोकतंत्र के एक और अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका से करें। वहां ट्रंप की नीतियों को लेकर गहरी नाराजगी है जो मीडिया, अदालतों से लेकर अन्य संवैधानिक संस्थाओं में दिखती है। अलोकतांत्रिक नीतियों पर मीडिया सवाल उठाता है तो अदालतें फटकार लगा रही है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भारत में आधुनिकता तो आई लेकिन इसकी संस्थाओं का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया। इसलिए यहां कांग्रेसी संस्थान के बाद शिक्षा का भगवाकरण सबसेबड़ा मुद्दा बनता है और सरकार के नुमाइंदे भी सीना ठोक कर इसे कबूल करते हैं। संवैधानिक संस्थाएं भी लोकतांत्रिक सवालों से मुठभेड़ करना छोड़ चुकी हैं। अभी तक तो अदालतों पर भरोसा था, लेकिन पिछले कुछ समय से जब जज एक खास दिशा में फैसले सुनाते हैं या सुझाव देते हैं, वह एक बड़ा खतरा दिख रहा है। ऐन सेवानिवृत्ति से पहले जज साहब जिस तरह गोसेवा करते दिखते हैं, उससे आम लोग भी उनकी मंशा भांप जाते हैं। भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए यह प्रवृत्ति बहुत ही खतरनाक है, जिसका अंतिम सहारा अदालतें रही हैं। जब जज साहब भी सरकार की सोच आगे बढ़ाने लगें तब आम आदमी के कानों में दलाई लामा की हाल में कही यह बात गूंज सकती है, ‘प्रार्थना से कुछ नहीं होता’। सरकार ने पिछले तीन सालों में जनता को जिस तरह भक्ति और प्रार्थना में लीन कर रखा है, जनता की यह तंद्रा जल्द ही टूटेगी। क्योंकि रोजी-रोटी का विकल्प तो राम भी नहीं हो सकते।

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