गोपाल माहेश्वरी, डही (धार)। सालभर की पढ़ाई और रहने-खाने का खर्च शहरों के आवासीय विद्यालयों में हजारों-लाखों रुपए में होता है, लेकिन धार जिले के डही कस्बे से 18 किमी दूर ककराना के राणी काजल जीवन शाला की बात अलग है। यहां आदिवासी मजदूरों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
एक बच्चे की साल भर की पढ़ाई और रहने-खाने के बदले अभिभावकों को फीस के बदले डेढ़ क्विंटल अनाज और दस किलो दाल देना पड़ती है। यह स्कूल बिना सरकारी मदद ग्रामीणों के सहयोग से चल रहा है। यहां पढ़ने वाले बच्चे अब कॉलेज तक पहुंच चुके हैं। विद्यार्थी नाश्तर भायला बीई करने के बाद दिल्ली में आईएएस की तैयारी कर रहा है।
स्कूल की शुरुआत 21 अगस्त 2000 में ग्रामीणों ने ककराना के उपस्वास्थ्य केंद्र भवन में 41 बच्चों के साथ की थी। बाद में तीन साल स्कूल पंचायत भवन में संचालित हुआ। स्थायी भवन की बात पर गांव के लोगों ने ईंट, कवेलू, लकड़ियां, बांस, बल्ली आदि उपलब्ध करा दिए, और स्कूल को अपना कच्चा भवन मिल गया।
जनसहयोग से स्कूल संचालन की बात पता चलते ही स्वयंसेवी संगठन भी मदद के लिए आगे आए। लेखिका अरुंधति राय भी स्कूल की मदद कर चुकी हैं। वर्तमान में स्कूल के पास पक्का भवन है। इसमें 6 कमरे हैं, विद्यार्थी दिन में यहां पढ़ाई करते हैं और रात में यहीं सोते हैं। भोजन तैयार करने के लिए अलग कक्ष है।
स्थानीय भाषा लिपि में बनाया पाठ्यक्रम
स्कूल में स्थानीय भाषा लिपि में पाठ्यक्रम तैयार किया है ताकि बच्चों को भाषा की समझ में आसानी हो। हिंदी वर्णमाला को आदिवासी भाषा के मुताबिक परिवर्तित किया गया है। जैसे आदिवासी बच्चा हवाई जहाज नहीं समझ पाता, ऐसे में प्रारंभिक कक्षा में उसे उड़न खाटला बताया जाता है। गीत, कविता और बाल कहानियां भी उन्हीं की भाषा में हैं। बच्चे प्रार्थना में राष्ट्रीय गान के अलावा क्रांतिकारी गीत भी गाते हैं और अभिवादन में जिंदाबाद कहते हैं।