स्वच्छ वातावरण का सपना— विवेक कुमार बडोला

दुनिया में जैसे-जैसे पर्यावरण संकट बढ़ रहा है वैसे-वैसे पर्यावरण के प्रति गंभीर मानवीय चिंता और चिंतन का अभाव भी हो रहा है। सरकारी संस्थाएं और गैर-सरकारी संगठन आधिकारिक रूप से इस संबंध में भले समय-समय पर चिंता प्रकट कर रहे हैं, पर आम लोग अपने स्तर पर पर्यावरण सुरक्षा का उत्तरदायित्व लेने को अब भी तैयार नहीं।


अभी कुछ दिन पहले न्यूजीलैंड और भारत स्थित न्यायालयों ने नदियों को जीवित नागरिक के रूप में मान्यता दी। पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक चिंता के रूप में भले ये न्यायिक निर्णय आकर्षक लगें, पर कम से कम भारत जैसे देश में पर्यावरण को स्वच्छ करने के ये संस्थागत प्रयास जनता की उदासीनता के कारण हास्यास्पद ही नजर आ रहे हैं। भारत महानगरों के रहन-सहन, धन-संसाधन, सकल घरेलू उत्पाद और विकास के मानदंड पर कितनी ही तरक्की करता लगे, पर जमीनी सच्चाई कड़वी है।


नदियों को प्रदूषण मुक्त और प्राकृतिक संवेग से युक्त करने की दिशा में यह न्यायिक निर्णय अच्छा है, फिर भी सब कुछ धरातल पर ठोस कार्य की स्थितियों पर निर्भर है। भारत में प्रदूषण केवल नदियों या समुद्र तक सीमित नहीं है। गांव हों या शहर हर जगह प्रदूषण भिन्न-भिन्न तरीके से उभर रहा है। आज वातावरण में विषैले धूलकणों, गैसों, देर तक टिकने वाले ज्वलनशील पदार्थों और प्राणघातक तत्त्वों की भरमार है। शरीर की श्वसन प्रक्रिया को बाधित करने वाली जहरीली गैसें सबसे बड़ा खतरा हैं। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) समय-समय पर प्रदूषण से बचाव और प्रदूषण फैलने के कारकों पर नियंत्रण के लिए सुनवाई कर फैसले देता रहता है, पर ऐसे फैसलों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। उन्हें अपने स्तर पर एनजीटी द्वारा पारित प्रदूषण मुक्त भारत के लिए बने नियमों का कठोर अनुपालन करना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य और जनस्वास्थ्य आज सबसे बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए।


पिछले वर्ष एनजीटी ने दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सटे राज्यों को रबी और खरीफ फसलों के अवशेष या पराली न जलाने को लेकर अहम निर्देश दिया। इस काम में केंद्र सरकार ने भी अच्छे समन्वयक की भूमिका निभाई। मगर लगता कि प्रदूषण फैलने के कारकों पर एनजीटी की फटकार के बिना रोक लगनी संभव नहीं। क्योंकि अभी कुछ दिन पहले उसने फिर से छह राज्यों को सचेत किया कि वे अपने यहां प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम करने का प्रयास करें। देखने में आता है कि अधिकतर लोग पर्यावरण को स्वच्छ रखने के प्रति व्यक्तिगत रुचि लेते ही नहीं। उन्हें आधुनिक वस्तुओं और सुविधाओं का पर्यावरण अनुकूल प्रयोग करना ही नहीं आता। अगर लोग अपने आसपास के कूड़ा-करकट या अपशिष्ट के वैज्ञानिक निस्तारण या प्रसंस्करण के प्रति जागरूक होंगे तो वे अपशिष्ट निस्तारण करने वाले सरकारी विभागों पर दबाव बना कर निरंतर बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को कम कर सकते हैं।


एनजीटी के आदेश पर केंद्र सरकार ने दिल्ली एनसीआर में छाए रहने वाले कोहरे के कारणों की पड़ताल कराई तो पता चला कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में पराली जलाने से पड़ोसी राज्यों की जलवायु भी प्रदूषित होती है। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरणने जनहित याचिकाओं और स्वयं संज्ञान लेकर जलवायु में बढ़ते प्रदूषण और कोहरे से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति केंद्र और राज्य सरकारों को सचेत किया। इसी क्रम में विगत में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली स्थित उन लघु उद्योगों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित करने के आदेश भी पारित किए, जो स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप निर्धारित आवश्यकता से अधिक कार्बन उत्सर्जित कर रहे थे। दिल्ली की हवा को स्वच्छ रखने के उपाय तो समय-समय पर किए जाते रहे हैं, पर बढ़ती जनसंख्या और उसी अनुपात में बढ़ती मोटर कारें, घरेलू यंत्रों से निकलने वाली कार्बन डाइ आक्सॉइड और कार्बन मोनो आक्साइड गैसें इन उपायों की तुलना में ज्यादा मारक सिद्ध हो रही हैं।


दिल्ली जैसे महानगरों में तो प्रदूषण नियंत्रण के कुछ उपाय और संसाधन उपलब्ध हैं, पर छोटे शहरों में जलवायु के प्रति संवेदनशीलता लोगों में बिलकुल नहीं है। हालांकि एनजीटी ने हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के खेत-खलिहानों में पराली जलाने पर प्रतिबंध लगाया था। इस आदेश की अवहेलना करने वाले के लिए अर्थदंड और कारावास का विधान भी बनाया। हालांकि उसके बाद दिल्ली-एनसीआर में बड़ी मात्रा में फसलों के अपशिष्ट और कूड़ा-करकट जलाने की प्रवृत्ति कम अवश्य हुई, पर छोटे शहरों में कूड़ा-करकट, पॉलीथीन, प्लास्टिक अवशेष, पेड़-पौधों के सूखे पत्तों और अन्य गंदगी को जलाना जारी है।


शहरों के अनेक आवासीय क्षेत्रों और मलिन बस्तियों में घरों के पास एकत्रित कूड़ा-करकट जलाने पर रोक नहीं लग पाई है। यह शहरों की दुर्दशा ही कही जाएगी कि आधुनिकता की चमचमाती रोशनी में भी कूड़ा-करकट के समुचित निस्तारण की व्यवस्था अधिकतर छोटे शहरों में आज तक नहीं हो सकी है। स्थानीय नागरिकों में पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की इच्छाशक्ति बिलकुल नहीं है। वे यहां-वहां बिखरे, जलते कूड़े-करकट के आधुनिक प्रसंस्करण या निस्तारण की किसी व्यवस्था के बाबत कोई चर्चा करते तक नहीं देखे जाते।
संवेदनशील लोग विवश हैं। वे जनता और सरकार के मध्य प्रदूषण मुक्ति का माध्यम बनने का भरसक प्रयास करते हैं। वे जनता को प्रदूषण मुक्ति के लिए आंदोलित कर भी देते हैं, पर इस कार्य के लिए सरकारी असहयोग उन्हें अंतत: हतोत्साहित करता है। अधिकतर राज्य सरकारों के नगर-ग्रामीण प्रशासन की ओर से कूड़ा-करकट निस्तारण की कोई कारगर और नियमित व्यवस्था नहीं है। बिना किसी दूरगामी योजना के निर्मित शहरों में जल-मल निकासी और शोधन की व्यवस्था भी नहीं है। जिन शहरों में जहां-जहां नाले हैं भी वे स्थान-स्थान पर जल-मल शोधन यंत्रों की अनुपलब्धता के कारण बेलगाम हैं। ऐसे नालों का जल-मल कृषि भूमि और आवास स्थलों के निकट एकत्र होता जाता है। यह जल-मल वहां की धरती में रिसता जाता है। इससे भूजल निरंतर प्रदूषित हो रहा है। परिणामस्वरूप
ऐसे क्षेत्र के लोग धरती के बाहर और भीतर दोनों ओर से निकलने वाले विषाणुओं की चपेट में आ जाते हैं।


जिस तीव्रता से देश में भवन निर्माण और आवासन गतिविधियां बढ़ी हैं, उस अनुपात में शहर नियोजन की आधारभूत व्यवस्थाओं जैसे जल-मल निकास, शोधन, कूड़ा-करकट प्रसंस्करण केंद्रों की स्थापना ही नहीं हुई। गंदे नालों में जल-मल नहीं, ठोस कूड़े-करकट का ढेर लगा हुआ है। सरकार की ओर सेव्यवस्थान किए जाने के कारण छोटे शहरों में लोग हर तरह का कूड़ा ढेर कर जला देते हैं। इससे धरती और वायु दोनों में प्रदूषण लगातार बढ़ता जाता है। यह प्रवृत्ति छोटे और अनियोजित शहरों के लोगों में अधिक है। इस कारण देश में श्वास के रोगियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। पॉलीथीन या प्लास्टिक अपशिष्ट जलने के बाद जलवायु अत्यंत विषैली गैसों से भर कर भारी हो जाती है। ऐसे वायुमंडल के प्रभाव में आकर सामान्य व्यक्ति भी श्वास का रोगी हो सकता है। हालांकि जनचेतना बढ़ा कर ऐसे वैज्ञानिक अभिशाप से मुक्ति पाई जा सकती है। मगर इसके लिए आरंभिक प्रयास तो हों। सरकार चाहे तो लोग कूड़ा-करकट इधर-उधर फेंकना या जलाना बंद कर सकते हैं। लोगों को सूखा और गीला कूड़ा अलग-अलग संग्रह करने को प्रेरित किया जाए। सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक घर से प्रतिदिन ऐसा संग्रहीत कूड़ा उठाया जाए। वैज्ञानिक तकनीकी से कूड़ा विद्युत ताप गृहों में पहुंचा कर उससे बिजली बनाना शुरू किया जाए। सड़क निर्माण में भी कूड़े का उपयोग संभव है। सरकार को इस दिशा में अवश्य सोचना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *