आमतौर पर हमारी यह सोच है कि विकसित देशों में महिलाओं को उनके कार्यस्थलों पर समानता का दर्जा प्राप्त है, पर यह मिथक भर है। विकसित देश हों या विकासशील, महिलाओं को लेकर कमोबेश सभी की सोच एक जैसी है। हाल ही में पोलैंड के एक सांसद ने वॉरसा यूरोपीय संसद में कहा कि ‘महिलाओं को पुरुषों से कम वेतन मिलना चाहिए, क्योंकि वे कमजोर होती हैं।’ ब्रिटेन के बराबरी और मानवाधिकार आयोग ने डिपार्टमेंट ऑफ बिजनेस, इनोवेशन ऐंड स्किल्स के साथ मिलकर किए गए एक शोध में बताया कि इंटरव्यू के दौरान असफल रहीं तीन-चौथाई माताओं ने माना कि उनकी गर्भावस्था का पता चलने से नौकरी मिलने के अवसर कम हुए।
अगर भारत में कामकाजी महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण किया जाए, तो स्पष्ट होता है कि उनके प्रति संपूर्ण कार्य-व्यवस्था असंवेदनशील है। जॉब पोर्टल मॉन्स्टर की हालिया रिपोर्ट इस तथ्य की पुष्टि करती है। देश में एक जैसा काम करने के बाद भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 25 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। 68.5 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि वे अपने कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव को लेकर चिंतित रहती हैं। 62.4 प्रतिशत महिलाएं यह भी मानती हैं कि उनके पुरुष सहकर्मियों को जल्दी प्रमोशन मिलता है। एक तरफ हम यह मानकर चल रहे हैं कि स्त्री आत्मनिर्भर हुई है और दूसरी ओर ये आंकड़े उनकी खराब स्थिति बता रहे हैं।
बसों, ट्रेनों में महिलाओं को दफ्तर की तरफ भागते देखकर हम यह सोचने लगे हैं कि देश में महिलाएं उन्नति कर रही हैं, पर वास्तविकता में ये वे महिलाएं हैं, जो परिवार के आर्थिक उत्तरदायित्वों को बांटने के लिए घर से निकली अवश्य हैं, पर न तो उनके परिवार, और न ही कार्यस्थल उनके प्रति संवेदनशील हैं। कंपनियों में निचले स्तर पर काम करनेवाली महिलाएं अपने खिलाफ होते शोषण के विरोध से भी डरती हैं। वे साहस करें भी तो यौन शोषण के 65.2 प्रतिशत मामलों में कंपनियां कोई कार्रवाई नहीं करतीं। इंडियन बार एसोसिएशन का सर्वे बताता है कि 36 प्रतिशत भारतीय कंपनियों में आंतरिक शिकायत समिति ही नहीं है और 50 प्रतिशत कंपनियों ने यह भी माना कि उनकी समिति के सदस्यों को महिलाओं के प्रति यौन दुव्र्यवहार के कानून की जानकारी नहीं है। हमारी संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का ढांचा ही ऐसा है कि स्त्रियों के प्रति हो रहे दुव्र्यवहार के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाता है और यह भी स्वीकार किया जाता है कि इस प्रकार की घटनाएं कार्य-व्यवस्था का हिस्सा हैं। खुद को आधुनिक और समानता का पैरोकार मानने वाली कॉरपोरेट कंपनियां अपनी महिला कर्मचारियों को निचले स्तर के पदों तक ही सीमित रखने की भरपूर कोशिश करती हैं।
तर्क यह दिया जाता है कि महिलाएं अति भावुक और परिस्थितियों से घबरा जाती हैं, इसलिए उन्हें नेतृत्व पदों पर नहीं बिठाया जाता है, जबकि हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता लगता है कि महिलाएं लीडरशिप में पुरुषों को मात देती हैं। 3,100 से ज्यादा महिला और पुरुषों पर किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि महिलाएं पारदर्शिता, सहानुभूति और समस्याएं सुलझाने के मामले में बेहतर हैं, पर पुरुषअहं किसी भी स्थिति में महिला नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। फोर्ब्स पत्रिका में चंद भारतीय महिलाओं की तस्वीर से संपूर्ण महिलाओं की स्थिति का उसी रूप में अनुमान लगाना गलत होगा, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो मात्र 2.7 प्रतिशत महिलाएं कंपनी की प्रमुख नहीं होतीं और न केवल 7.7 प्रतिशत महिलाएं कंपनी बोर्ड की सदस्य। यह स्थिति तो तब है, जब सेबी द्वारा अपनी कंपनियों में कम से कम एक महिला निदेशक रखने का दबाव लगातार बनाया जा रहा है।
क्या यह एक बार यकीन किया जा सकता है कि 2015 से पहले महिला मेकअप आर्टिस्टों को बॉलीवुड में जगह नहीं दी जाती थी, यह स्थिति तब बदली, जब उच्चतम न्यायालय ने इस संदर्भ में लताड़ लगाई। फिर भी उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से रोके रखने के लिए सदस्यता शुल्क और शर्तें बढ़ा दी गईं। ऐसी ही कई दूसरी बाधाएं देश की संपूर्ण कार्य-व्यवस्था का हिस्सा हैं, तभी तो महिला वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। क्या इसे ही ‘सशक्तीकरण’ कहा जाएगा?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)