चुनाव प्रणाली और काले धन के रिश्ते इन दिनों फिर चर्चा में हैं। राजनीतिक दलों के लिए धन चंदे से आता है। लेकिन न तो चंदा देने वाला और न ही लेने वाला इसे सार्वजनिक करना चाहता है। यह गुपचुप कारोबार ही भारतीय राजनीति को कलुषित करता है। केंद्र सरकार ने राजनीतिक जगत में नकद के खेल को कम करने के लिए एक कदम उठाया है। अब जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन होगा, ताकि 2,000 रुपये से अधिक की रकम लेने पर राजनीतिक दलों के लिए देने वाले के नाम का खुलासा करना अनिवार्य होगा। चुनाव आयोग अक्सर अफसोस जताता है कि राजनीतिक पार्टियों को 85 प्रतिशत से ऊपर चंदे अज्ञात स्रोतों से मिलते हैं। वह कोई कार्रवाई नहीं कर पाता है, क्योंकि जन प्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक, 20 हजार रुपये से ऊपर की राशि लेने पर ही राजनीतिक दलों को दाता का नाम-पता बतलाना होता है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने तकरीबन सभी पार्टियों को मिले चंदे के आंकड़े जारी किए हैं। ये बताते हैं कि कुल चंदे का बहुत बड़ा हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है। इसलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली की घोषणा उम्मीद जगाती है कि भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन करके चुनावी बांड जारी होंगे। चंदा देने वाला कोई भी यह बांड बैंक से खरीद सकता है, जो राजनीतिक दल के पंजीकृत खाते में ही जमा होंगे। यह अभी स्पष्ट नहीं है कि चंदा देने वाले की गोपनीयता कैसे सुरक्षित रखी जाएगी, जैसा कि कॉरपोरेट जगत चाहता है।
माना जाता है कि राजनीति में काले धन का यह खेल हमेशा से ही था, लेकिन 1970 के दशक में यह काफी बढ़ गया, जब इंदिरा गांधी की सरकार ने पार्टियों को कॉरपोरेट सेक्टर से मिलने वाले चंदों पर रोक लगा दी। इस निर्णय के पीछे राजनीति को साफ-सुथरा करने की जितनी मंशा थी, उससे ज्यादा विपक्षी दलों की आय के स्रोतों को बंद करना था। कहा जाता है कि उनकी इस सोच के पीछे जेआरडी टाटा का वह पुराना पत्र था, जो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लिखा था कि वह कांग्रेस को तो चंदा देंगे, लेकिन स्वतंत्र पार्टी को भी देंगे। नेहरू का जवाब था कि वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। इंदिरा गांधी के इस प्रतिबंध के कारण चुनाव में काले धन की भूमिका घटने की बजाय और बढ़ गई। जो काम थोड़ी पारदर्शिता के साथ होता था, वह पूरी तरह गोपनीय ढंग से होने लगा।
हालांकि चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित है, लेकिन राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों पर असीमित धन खर्च करते हैं। इसके अलावा प्रत्याशी हलफनामे में भी झूठी घोषणाएं करते हैं। चुनाव आयोग ने इसके लिए सजा छह महीने से बढ़ाकर दो साल करने का सुझाव दिया है। अगर झूठी घोषणाएं करने के लिए उन्हें दो वर्ष की जेल की सजा मिलती है, तो उनकी संसद/ विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाएगी और उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगेगी। हालांकि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से ऐसे उदाहरण हैं कि दो वर्ष से ज्यादा सजा के बाद भी विधायकों की सदस्यता खत्म नहीं हुई,विधानसभाओं ने उनकी सीटों को रिक्त घोषित नहीं किया।
मगर क्या नकद चंदे की राशि कम करने से काले धन का खेल खत्म हो जाएगा? राजनीतिक दल करोड़ों में प्राप्त चंदे को 20 हजार के गुणज में बदलते रहे हैं। अब वे इसे दो हजार के गुणज में बदल देंगे। इसके लिए राज्य द्वारा चुनाव का खर्च उठाने यानी स्टेट फंडिंग की सलाह भी दी जाती है। 1972 में ही चुनावी कानून में संशोधन के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने इसकी अनुशंसा की थी। बाद में तारकुंडे कमेटी ने सलाह दी कि राज्य को आंशिक खर्च वहन करना चाहिए, जबकि दिनेश गोस्वामी कमेटी ने पूरा खर्च उठाने की सिफारिश की। इंद्रजीत गुप्त कमेटी ने राजनीतिक दलों को सरकारी सहायता देने का सुझाव दिया, ताकि आर्थिक रूप से कमजोर दल उन दलों से होड़ ले सकें, जिनके पास काफी मात्रा में धन है। विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा कि राज्य-पोषित चुनाव वांछनीय है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी आंशिक खर्च वहन करने की अनुशंसा की। मगर यदि राज्य चुनाव का पूरा खर्च उठा भी ले, तो क्या सभी उम्मीदवार साधु हो जाएंगे? और सवाल यह भी कि क्या हमारा बजट इतना खर्च वहन करने की स्थिति में है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)