राजनीतिः नगालैंड में महिला आरक्षण की गुत्थी– दिनकर कुमार

नगालैंड की राजनीति में महिलाओं की अनुपस्थिति को अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है। साठ सदस्यीय राज्य विधानसभा के लिए आज तक एक भी महिला नहीं चुनी जा सकी है। अब तक बस एक बार किसी महिला को सदन में पहुंचने का मौका मिला। उनका नाम रानो एम शाइयिजा था, जो 1977 में लोकसभा के लिए चुनी गई थीं। नगालैंड की राजनीति में महिलाओं की नगण्य उपस्थिति एक बार फिर चर्चा में है जब निकाय चुनावों में महिलाओं को आरक्षण देने के विरोध में राज्य में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। दिसंबर 2016 में राज्य सरकार ने शहरी निकायों के चुनाव कराने की घोषणा करते हुए महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही थी। इसके साथ ही नगा जनजातीय संगठनों ने इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया था। विरोध बाद में हिंसक होता गया, जिससे निपटने के लिए किए गए बलप्रयोग ने दो लोगों की जान भी ले ली।
 

परंपरागत नगा संगठनों का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 234 (टी) के तहत निकाय चुनावों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने की जो घोषणा की गई है वह नगा संस्कृति और परंपरा पर एक प्रहार है। इन संगठनों का मानना है कि नगा रीति-रिवाजों और परंपराओं की रक्षा संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के जरिये पहले ही सुनिश्चित की जा चुकी है और महिला आरक्षण का अर्थ उस प्रावधान को चुनौती देना है। दूसरी तरफ राज्य के महिला संगठन इस आरक्षण के लिए लड़ रहे हैं और उन्होंने ‘नगालैंड मदर्स एसोसिएशन’ और ‘जॉइंट एक्शन कमिटी फॉर वीमेन रिजर्वेशन’ की अगुआई में महिलाओं को आरक्षण की मांग के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।


राज्य सरकार ने जब दिसंबर 2016 में तैंतीस प्रतिशत महिला आरक्षण के साथ निकाय चुनाव कराने का एलान किया तो ‘नगा होहो’ सहित तमाम प्रमुख जनजातीय संगठनों ने चुनाव का विरोध शुरू कर दिया। यह चुनाव 1 फरवरी को होना था, जिसे हिंसक विरोध के चलते फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। इन संगठनों की दलील है कि अगर राज्य में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा तो फिर संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत जो नगा लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों की रक्षा का भरोसा दिलाया गया है, उसका ताना-बाना बिखर जाएगा। विरोध लगातार बढ़ता गया और 28 जनवरी को इसने कोहिमा में हिंसक रूप धारण कर लिया।


वैसे यह भी कहा जा रहा है कि विरोध-प्रदर्शन महज आरक्षण की वजह से नहीं हो रहा है, बल्कि यह राज्य सरकार की वादाखिलाफी के विरोध में हो रहा है। राज्य सरकार ने पहले निकाय चुनावों को दो महीने तक टालने का वचन दिया था, ताकि इस मुद््दे पर सरकार, नगा संगठन और महिला संगठन बातचीत कर कोई साझी राह निकाल सकें ।


अट्ठाईस जनवरी को हालात उस समय तनावपूर्ण हो गए जब कई जनजातीय संगठनों ने राजधानी कोहिमा में बारह घंटे का बंद आयोजित किया। इसी तरह के बंद का आह्वान विभिन्न जिलों में भी किया गया। कोहिमा में अंगामी यूथ आॅर्गनाइजेशन ने बंद घोषित किया,फिर जिले में विभिन्न संगठनों के संयुक्त मोर्चे ने।फैक जिले में चाखेसंग यूथ फ्रंट ने बंद आहूत किया। कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती गई। दो व्यक्ति मारे गए, कई लोग घायल हो गए। दो फरवरी को उत्तेजित भीड़ ने कोहिमा नगरपालिका भवन में आग लगा दी। आग फैलती गई जिससे परिवहन विभाग का कार्यालय भी जल गया और कई निजी मकानों को भी नुकसान पहुंचा। भीड़ ने कई सरकारी वाहनों में भी तोड़-फोड़ की। हालात को नियंत्रित करने के लिए उसी दिन शाम को कर्फ्यू लगा दिया गया। इससे पहले 31 जनवरी को, राज्य सरकार निकाय चुनाव को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने का निर्णय ले चुकी थी।


हिंसा और दो व्यक्तियों की मौत के बाद कानून-व्यवस्था को संभालने और हालात को नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीआरपीएफ को नगालैंड भेजा। कोहिमा और दीमापुर जिलों में कर्फ्यू और धारा 144 को बहाल रखा गया। जनजातीय संगठनों के दबाव के चलते निकाय चुनाव के अधिकतर प्रत्याशी अपने नाम वापस ले चुके हैं। राज्य के सत्ताधारी गठबंधन में शामिल नगालैंड पीपुल्स फ्रंट और भाजपा ने अपने प्रत्याशियों के नाम वापस लेने से इनकार कर दिया है। दूसरी तरफ राज्य सरकार ने निकाय चुनावों को निरस्त कर देने की प्रदर्शनकारियों की मांग भी नामंजूर कर दी है।


नगालैंड की महिलाएं देश के दूसरे हिस्सों की तरह अपने राज्य में भी स्थानीय निकायों में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण चाहती हैं, और जब उनकी यह संविधान-सम्मत मांग पूरी करने की कोशिश पहली बार राज्य सरकार की तरफ से की गई तो विरोध में समूचा राज्य सुलग उठा और मजबूर होकर सरकार को निकाय चुनाव रोकने पड़े। आरक्षण के मुद््दे पर एक बार फिर पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता सामने आई है। जब महिलाएं राजनीतिक बराबरी का हक मांग रही हैं तो पुरुषप्रधान समाज परंपरा की दुहाई देकर उनको चुप कराते हुए यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि शासन करने का अधिकार केवल पुरुषों को है। जनजातीय संगठनों की अगुआई कर रहे संगठन नगा होहो का कहना है कि नगा परंपराओं की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किया गया है और उस प्रावधान का उल्लंघन किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। नगा समाज के परंपरागत नियमों पर चोट करने वाले किसी भी संसदीय कानून को नगालैंड में लागू न करने का तर्क देकर विभिन्न संगठन महिला आरक्षण का विरोध करते रहे हैं। इन संगठनों का तर्क है कि शहरी निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का वे विरोध नहीं कर रहे हैं, वे तो केवल महिलाओं के चुनाव लड़ने का विरोध कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि महिलाओं को निकायों में चुनाव के जरिये नहीं चुना जाए, बल्कि उनको मनोनयन के जरिये निकाय का हिस्सा बनाया जाए।


राज्य की गठबंधन सरकार में शामिल भाजपा देश भर में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात करती रही है, जबकि नगालैंड में इस बात का तीव्र विरोध होता रहा है। बीते नवंबर माह में राज्य के चौदह जनजातीय संगठनों ने इस मसले पर बैठक आयोजित की और कहा कि किसी भी हालत में नगालैंड में समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जा सकती,क्योंकिऐसा करने से नगा लोगों के रीति-रिवाजों और परंपराओं का हनन होगा, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। नगालैंड में महिला आरक्षण के खिलाफ जिस तरह का हिंसक विरोध सामने आया है, उससे राज्य की राजनीति में हाशिए पर खड़ी स्त्री की विडंबना भी उजागर हुई है। वर्ष 1964 में राज्य में पहला विधानसभा चुनाव हुआ और अंतिम चुनाव मार्च 2013 में। इतने सालों में महज पंद्रह महिला प्रत्याशियों ने चुनाव में मुकाबला किया और उनमें से किसी को भी जीत नहीं मिल पाई। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों की महिला शाखाएं नहीं हैं, मगर उनमें शामिल महिलाओं को उम्मीदवार नहीं बनाया जाता। अब तक छिटपुट तौर पर चुनावी मुकाबले भाग लेने वाली महिलाएं निर्दलीय प्रत्याशी ही रही हैं। इससे स्पष्ट होता है कि राजनीतिक पार्टियां नगालैंड में महिलाओं को टिकट देना नहीं चाहतीं। स्थानीय निकायों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण के नगालैंड में हो रहे विरोध पर तो देश भर का ध्यान गया है, लेकिन उन्हें परंपरा के नाम पर किस तरह वंचित रखा गया है, इस बात की कोई चर्चा नहीं हो रही है। उन्हें पारंपरिक ग्राम परिषद में प्रतिनिधित्व का अधिकार नहीं है, न ही उनके पास भूमि का अधिकार है।

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