बजट 2017 की उल्टी गिनती शुरू हो गई है और इसे लेकर उत्सुकता का भाव इतना अधिक है, जितना शायद मोदी सरकार के 2014 में आए पहले बजट के समय भी न रहा हो। यह बजट नोटबंदी के बाद और मोदी सरकार के सत्ता में आने के तकरीबन तीन साल पूरे होने के अवसर पर पेश होने जा रहा है। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार बेहद विषम परिस्थितियों में काम कर रही थी। निवेशकों का भरोसा रसातल में था और अर्थव्यवस्था गिर रही थी। न केवल पूंजी निर्माण या राजकोषीय घाटा, बल्कि ऐसे तमाम अहम संकेतक लाल निशान यानी खतरे के स्तर पर थे।
पिछले कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हुआ है, जिसने उसे मजबूती प्रदान की है और इसमें सरकारी खजाने की सेहत में सुधार के साथ-साथ सरकारी खर्च में आई बढ़ोतरी की मुख्य भूमिका रही है। किंतु कुछ अवरोध अभी भी कायम हैं, जो हमारी अर्थव्यवस्था की तेज गति की राह में लगातार आड़े आ रहे हैं। ये अवरोध हैं गैर निष्पादित आस्तियों यानी एनपीए की मार से कराह रहा बैंकिंग क्षेत्र और अवरुद्ध पड़ा निजी निवेश का चक्र।
हालिया आंकड़े भारतीय विकास गाथा में कमजोर निजी निवेश का संकेत करते हैं। निवेश मांग पांच वर्षों के निचले स्तर पर है। वर्ष 2015-16 में जीडीपी के अनुपात में निजी उपभोग व्यय 55.5 प्रतिशत था, जो 2016-17 के दौरान मामूली रूप से घटकर 55.2 प्रतिशत के स्तर पर आ गया। इसी तरह जीडीपी के अनुपात में स्थिर पूंजी निर्माण की हिस्सेदारी पिछले वर्ष के 31.2 प्रतिशत से इस साल घटकर 29.1 प्रतिशत हो गई है। यदि सरकारी उपभोग को हटाकर जीडीपी वृद्धि पर दृष्टि डालें तो यह भी पांच वर्षों के निम्नतम स्तर पर है, जो वर्ष 2015-16 में 8.2 प्रतिशत से चालू वित्त वर्ष में घटकर 5.2 प्रतिशत हो गई। ये आंकड़े वर्ष 2016-17 की व्यथित करने वाली तस्वीर पेश करते हैं। इसकी वजह समझने की जरूरत है। इससे पहले कि इसकी क्षतिपूर्ति के लिए बढ़ा सरकारी खर्च राजकोष की दीवारों को ध्वस्त करना शुरू करे, इस रुझान को पलटने की दरकार है। इस बजट में सकल पूंजी निर्माण और सरकारी खर्च से इतर जीडीपी वृद्धि की गुत्थी सुलझाने की जरूरत है।
निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए सरकार के तरकश में पहले से ही काफी तीर मौजूद हैं। ‘स्टार्टअप इंडिया और ‘मेक इन इंडिया को अब नारों और विज्ञापनों के दायरे से बाहर निकाल कुछ नियामकीय व नीतिगत परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो निवेश विशेषकर एफडीआई को प्रोत्साहित करें। निजी निवेश को पुन: गति देने की कवायद में भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी उद्यमिता व उपभोक्ता ऊर्जा वाली जड़ों की ओर लौटना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को छोटे-बड़े करोड़ों युवा एवं अनुभवी उद्यमियों की ऊर्जा व उनके नए तौर-तरीकों से संचालित होने वाली ऊर्जावान अर्थव्यवस्था के तौर पर देखा व महसूस किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र के निवेशकों की जोखिम जैसी आशंकाओं के मद्देनजर पीपीपी (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) भी निवेश चक्र को फिर से तेजी देने का एक और तरीका है। इस सरकार के पास पहले से ही विजय केलकर समिति की रिपोर्ट पहुंच गई है, जोपीपीपी के लिए नई योजना पेश करती है। यह योजना अधिक पारदर्शी और न्यायसंगत है। यह रिपोर्ट दिसंबर, 2015 में सौंपी गई थी। रिपोर्ट स्वतंत्र नियामकों की जरूरत को ही पुष्ट करती है। इसे जल्द से जल्द अंतिम रूप देने की दरकार है ताकि पीपीपी मजबूत और व्यापक पारदर्शी परिवेश में फल-फूल सके। असल निवेशकों के लिए स्पष्ट एवं पारदर्शी संविदा ढांचा भी बहुत अच्छा होगा, जिससे वे भविष्य में नियमों की समीक्षा और सरकार में परिवर्तन से पड़ने वाले दबाव संबंधी जोखिम से बच जाएंगे। विवादित परियोजनाओं के मुद्दों को सुलझाने के लिए सरकार को तत्काल ही नेशनल फैसिलिटेशन कमेटी (राष्ट्रीय सुगम समिति) का गठन करना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान हमारी तेज विकास में उपभोग की अहम भूमिका रही है और यह हमारे आर्थिक इंजन को लगातार ऊर्जा देता रहेगा। मोदी सरकार के लिए आगामी बजट उसके पहले बजट से भी अधिक महत्वपूर्ण इसलिए भी हो गया है, क्योंकि इस बजट को नोटबंदी के बाद उपभोग के मोर्चे पर इसके प्रभावों का निदान भी तलाशना होगा। उपभोग को बढ़ाने के लिए संप्रग सरकार ने 2008 में जो दांव चला था, उन गलतियों को दोहराने के बजाय इस सरकार को वाहन, उर्वरक, सीमेंट जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देने के साथ व्यक्तिगत आयकर की दरों में छूट देने की जरूरत है। क्रिसिल की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार क्रयशक्ति में सुधार के साथ घरेलू उपभोग को बढ़ाया जाना चाहिए। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों, असंगठित क्षेत्रों के कामगारों और नकदी आधारित क्षेत्रों में लेन-देन प्रक्रिया को सुगम बनाकर इसे मूर्त रूप दिया जाए।
एनपीए के बोझ तले दबे भारतीय बैंकों की दयनीय दशा निजी निवेश में सुधार की राह में सबसे बड़ी बाधाओं में एक है। जोखिम से बचने के लिए सरकारी बैंकों ने कारोबारी कर्जों के बजाय निजी और आवास ऋणों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। अगस्त 2011 से बैंकों द्वारा बुनियादी ढांचे के लिए कर्ज देने में नाटकीय रूप से कमी आई है। तब बुनियादी ढांचे के लिए कर्ज में सालाना 22.89 फीसदी की वृद्धि के उलट जुलाई 2016 में यह घटकर -3.06 प्रतिशत हो गई। मैं सरकार से इस मुद्दे के निर्णायक समाधान की गुहार लगा रहा हूं, जिसमें सॉवरिन आधारित ‘बैड लोन बैंक बनाया जाए, जो बैंकों के फंसे हुए कर्जों का जिम्मा लेकर उनकी वसूली पर ध्यान केंद्रित करे। इससे बैंकों पर बोझ कम होगा और वे अधिक जवाबदेह ढंग से कर्ज देने का काम जारी रख सकेंगे। इसमें जितनी देरी होगी, उतनी समस्याएं बढ़ती जाएंगी।
नोटबंदी के जरिए अब हमारी अर्थव्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार का एक बड़ा कदम उठा है। बीते कुछ दशकों में जीडीपी के आंकड़ों को लेकर लगभग सनक सरीखी अवस्था ने ‘कुछ भी चलता है वाली संस्कृति को जन्म दिया। आंकड़ों को लेकर ऐसी सनक अक्सर गलत तस्वीर ही पेश करती है। नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की गुणवत्ता के मुद्दे को साधा है और यह लघु एवं दीर्घ अवधि में अर्थव्यवस्था को कम से कम नकदी और डिजिटल स्वरूप की ओर ले जाएगी। सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह पारदर्शी और डिजिटल अर्थव्यवस्था के अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाए। करों कीदरको कम किया जाना चाहिए, जिससे लोग कर देने से न कतराएं और काले धन के सृजन पर लगाम लगाई जाए। सरकार को डिजिटल बुनियादी ढांचे में सुधार और विस्तार को भी प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
आगामी बजट और वित्त-वर्ष मोदी सरकार के लिए निर्णायक साबित होगा। भारत के कायाकल्प के अपने वादे पर वह पहले ही काफी प्रगति कर चुकी है और यह साल रोजगार सृजन व निवेश के लिहाज से उसे और अधिक आर्थिक तेजी व दिशा दे सकता है।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं। ये उनके निजी विचार हैं)