जब औरतों के निशाने पर गांधीजी आए — रामचंद्र गुहा

अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम के अभिलेखागार में काम करते हुए गांधीजी को लिखा गया एक दिलचस्प पत्र मेरे हाथ लगा। यह पत्र 11 युवा महिलाओं ने लिखा था, जो कलकत्ता (अब कोलकाता) की थीं। उस चिट्ठी पर कोई तिथि नहीं लिखी थी, मगर ऐसा लग रहा था कि वह जनवरी, 1939 में लिखी गई थी। चिट्ठी ‘परमपूज्य महात्मा जी’ को संबोधित थी, जिस पर सभी महिलाओं ने अपने अलग-अलग हस्ताक्षर किए थे। नाम से वे सभी हिंदू लग रही थीं। यह पत्र दरअसल उस लेख के विरोध में लिखा गया था, जिसे महात्मा गांधी ने अपने अखबार हरिजन में लिखा था। पत्र के मुताबिक, गांधीजी का वह लेख ‘बहुत उत्साहवर्धक’ नहीं था, क्योंकि ऐसा लगता है कि उसमें ‘सारा दोष औरतों के मत्थे मढ़ दिया गया है, जबकि वे द्वेषपूर्ण सामाजिक परंपराओं का सबसे ज्यादा शिकार होती हैं।’


इस पत्र ने मेरी दिलचस्पी बढ़ा दी, लिहाजा मैं गांधीजी के उस लेख को ढूंढ़ने में जुट गया, जिसने बंगाल की इन 11 महिलाओं को इस कदर नाराज कर दिया था। गांधीजी का यह लेख स्टूडेंट्स शेम नाम से हरिजन के 31 दिसंबर, 1938 के अंक में प्रकाशित हुआ था। असल में, पंजाब की एक कॉलेज छात्रा ने गांधी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने अपने व दोस्तों के साथ करीबी युवा पुरुषों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ और उत्पीड़न की शिकायत की थी। गांधीजी ने यह लेख उसी युवती के पत्र के जवाब में लिखा था। उसने गांधीजी से पूछा था, ‘सबसे पहले आप यह बताएं कि इस परिस्थिति में कोई लड़की कैसे अहिंसा का पालन कर सकती है और खुद के साथ-साथ दूसरों की रक्षा कर सकती है? और नारी-जाति के साथ इस तरह का भद्दा व्यवहार करने वाले इन बीमार मर्दों का इलाज क्या है?’


हरिजन में जवाब देते हुए गांधीजी ने माना कि पुरुषों की छेड़छाड़ भारत में ‘बढ़ रही बुराई’ है। उनका मशविरा था कि ‘इस तरह के तमाम मामले अखबारों में छपने चाहिए। पकड़े जाने पर दोषियों के नाम सार्वजनिक किए जाने चाहिए’। पीड़िताओं से दुराचारियों के नाम सामने लाने की गुजारिश करते हुए गांधीजी ने सभ्य समाज से भी यह आग्रह किया कि वह अपने बीच के ऐसे भटके लोगों को सजा दे। उनके शब्द थे, ‘समान वर्ग का होने के नाते नौजवान लड़कों को अपनी छवि के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और अपने साथियों के साथ होने वाले हर तरह के अनुचित व्यवहार से निपटना चाहिए।’ गांधीजी ने यह भी माना कि नौजवान महिलाओं को ‘आत्मरक्षा की सामान्य कला सीखनी चाहिए और अनुचित व्यवहार का जोरदार विरोध करना चाहिए।’


मगर समस्या की पड़ताल और उसके समाधान के बीच गांधीजी ने महिलाओं के आधुनिक लिबास की बात छेड़कर अपना मामला बिगाड़ लिया। उनके संदर्भ में उनकी टिप्पणी थी, ‘मुझे यह बात चिंतित करती है, जब एक आधुनिक लड़की आधा दर्जन रोमियो की जूलियट बनना पसंद करती है। उसे रोमांच पसंद है। आधुनिक लड़की ऐसे लिबास पहनती है, जो उसे सर्दी, गरमी और बरसात से नहीं बचाते, मगर आकर्षण का केंद्र जरूर बना देते हैं। वह खुद को प्रकृति के ऊपर देखना चाहती है। अहिंसाका रास्ता ऐसी लड़कियों के लिए नहीं है।’


लड़कियों के लिबास को लेकर गांधीजी की इसी सलाह ने बंगाल की उन 11 युवा महिलाओं को नाराज कर दिया था। गांधीजी को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा, ‘बेशक कुछ लोगों की नजर में आधुनिक लड़कियों के लिबास और आचार-व्यवहार वैसे नहीं होते, जैसा वे चाहते हैं। मगर आपका उन्हें इस तरह से पेश करना कि वे खुद को आकर्षण का केंद्र बनाने की कोशिश करती हैं, दरअसल पूरी महिला बिरादरी का अपमान है। बेहतर चरित्र और शालीन व्यवहार की अपेक्षा सिर्फ आधुनिक लड़कियों से ही नहीं, पुरुषों से भी होनी चाहिए। भले ही कुछ लड़कियां दर्जनों रोमियों की जूलियट बनना चाहती होंगी, मगर आपकी इस बात में आधा दर्जन रोमियो का जिक्र भी शामिल है, जो सड़कों पर जूलियट की तलाश में भटकते रहते हैं। लिहाजा सुधार की असल जरूरत जहां है, उसकी ओर इशारा करें।’


जाहिर है, कलकत्ता की इन 11 युवतियों ने महिलाओं की अपनी मरजी से कपड़े पहनने का साहसिक बचाव किया था। साथ ही, उन्होंने पुरुषों की इस विकृत और हिंसक मनोवृत्ति को भी अपने निशाने पर लिया था। उन्होंने गांधीजी को यह भी कहा कि ‘आपकी यह दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी एक बार फिर इस ग्लानिपूर्ण मुहावरे को बल देती है कि ‘महिलाएं नरक का द्वार हैं।’ और इससे उस कथित विकास पर संदेह के बादल उमड़ते हैं, जिसे मानव-जाति ने अब तक हासिल किया है। गोखले, तिलक, देशबंधु (सीआर दास) निश्चय ही ऐसी अपमानजनक टिप्पणियों पर सहमति जताने में झिझक महसूस करेंगे।’


पत्र का अंत इससे होता है कि ‘ऊपर की तमाम बातों का यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि आधुनिक लड़कियां आपका सम्मान नहीं करतीं। हर बेटे (मर्द) की तरह वे भी आपकी इज्जत करती हैं। अगर लड़कियां वास्तव में गुनहगार हैं, तो वे अपनी जीवनशैली बदलने को तैयार हैं। मगर बरा-भुला कहने से पहले उनकी गलती, यदि कोई है, पूरी तरह साबित की जानी चाहिए। इस संदर्भ में वे न तो ‘महिला’ होने का लाभ लेने की इच्छुक होंगी, और न ही मूकदर्शक बनकर जज को मनमर्जी से अपनी निंदा करने देंगी। सच का सामना किया जाना चाहिए, और जैसा कि आपने आधुनिक लड़कियों को ‘जूलियट’ कहा है, तो इन जूलियटों के पास इतना साहस है कि वे इसका सामना करें।’


यह वाकई शर्म की बात है कि महात्मा गांधी और बंगाल की इन 11 महिलाओं के बीच हुई यह बहस हम भूल बैठे, जबकि इसमें कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए थे, जो आज भी प्रासंगिक हैं। आज 2017 में भी सभी धर्मों में ऐसे मठाधीशों की कमी नहीं, जो लड़कियों, औरतों को खास तरह के कपड़े पहनने की नसीहत देते रहते हैं और यौन-उत्पीड़न का ठीकरा भी उन्हीं के सिर पर मढ़ते हैं। अगर 2017 में ये हालात हैं, तो जाहिर है कि 1939 में तो इस पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता की जड़ें और गहरी थीं। तब उन 11 महिलाओं ने सराहनीय तरीके से अपनी खुली मानसिकता के साथ एक महान भारतीय महात्मा गांधी का विरोध किया था और उनके पूर्वाग्रहों को बेनकाब किया था। और अच्छी बात यह है कि उनकाविरोधजायज भी था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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