वैसे महात्मा गांधी ‘स्वराज’ या ‘स्वराज्य’ संबंधी अपनी अवधारणा को जीवनपर्यन्त परिभाषित करते रहे, लेकिन जहां तक मैं समझ सका हूं, हिंदुस्तान के संदर्भ में उन्होंने जिस स्वराज की परिकल्पना की थी, उसके केंद्र में थी गांवों की स्वायत्त, स्वावलंबी अर्थ एवं प्रबंधन सत्ता। उनकी दृष्टि में गांवों की संपन्नता में ही देश की संपन्नता तथा गांवों की स्वायत्त पंचायती व्यवस्था में ही देश की सच्ची प्रजातांत्रिक छवि अभिव्यक्ति पा सकती थी। उनका मानना था कि भारत चंद शहरों में नहीं, बल्कि सात लाख गांवों में बसा हुआ है और इस सोच के अनुरूप उन्होंने किसानों को राष्ट्रीय आंदोलन में व्यापक पैमाने पर शामिल किया।
गांधी ने 1920 से स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व संभाला, तो उनके लिए भारत के शहरों का नहीं, बल्कि सात लाख गांवों के पुनर्निर्माण का मुद््दा अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा। यही कारण था कि उन्होंने देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ ग्रामोद्योग, ग्राम-स्वराज्य जैसी योजनाओं की परिकल्पना का भी अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में समावेश किया।
गांधीजी लगातार अपने कई भाषणों व लेखों में ग्राम-स्वराज्य के संबंध में अपनी योजनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करते रहे, जिसका सिलसिला 1909 में आई उनकी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ से लेकर जीवनपर्यन्त चलता रहा। मसलन, ‘हरिजन सेवक’ के 2 अगस्त 1942 के अंक में उन्होंने ‘ग्राम-स्वराज्य’ की चर्चा करते हुए लिखा- ‘‘ग्राम-स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए- जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा- वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले।… पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा- वाटर वर्क्स होंगे- जिससे गांव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गांव का पूरा नियंत्रण रख कर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दरजे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहां तक हो सकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। जात-पांत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहीं रहेंगे।”
इसी लेख में वह यह भी कहते हैं ‘‘सत्याग्रह और असहयोग के शस्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी। …इस ग्राम शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखनेवाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा।”ग्राम-स्वराज्य के लिए और वांछनीय चीजों की चर्चा करते हुए गांधीजी ने ‘हरिजन सेवक’ के 10 नवंबर 1946 के अंक में लिखा- ‘‘देहातवालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके। जब गांवों का पूरा-पूरा विकास हो जाएगा, तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला-कारीगरी के धनी स्त्री-पुरुषों की गांवों में कमी नहीं रहेगी। गांव में कवि होंगे, चित्रकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित और शोध करनेवाले लोग भी होंगे। थोड़े में, जिंदगी की ऐसी कोई चीज न होगी जो गांव में न मिले।आज हमारे गांव उजड़े हुए और कूड़े-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल वहीं सुंदर बगीचे होंगे और ग्रामवासियों को ठगना या उनका शोषण करना असंभव हो जाएगा।”
स्वातंत्र्योत्तर भारत में मशीनीकरण की जो हवा चली उसने न केवल गांधी परिकल्पित ग्राम-स्वराज्य को, बल्कि गांवों में सदियों से चले आ रहे हस्त-उद्योगों को भी तहस-नहस करके रख दिया। आज की तारीख में गांवों में कुम्हार, बढ़ई, लोहार, बुनकर, ठठेरा (बर्तन बनाने वाले), चर्मकार आदि सभी के हस्त-उद्योग समाप्तप्राय हो चुके हैं और इनकी जगहों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों, फैक्ट्रियों के उत्पादित माल ने कब्जा कर लिया है। सच तो यह है कि गांवों के आर्थिक स्वावलंबन के आधार रहे ग्रामोद्योग का जितना विनाश ब्रिटिश शासन ने नहीं किया, उससे कई गुना अधिक विनाश हमारे देशी शासन-तंत्र ने किया है विगत सात दशकों में। ग्रामोद्योगों के विनाश का भयावह दुष्परिणाम यह हुआ कि गांव उद्योग-विहीन हो गए और वहां के युवक रोजगार के अभाव में शहरों की ओर या फिर खाड़ी देशों की ओर रोजगार के लिए पलायन करने लगे हैं। इसमें दो मत नहीं कि कृषि-यंत्रों के चलन ने ख्ोती को सुविधाजनक बनाया, पर इसका अनिष्टकारी पक्ष इस रूप में प्रकट हुआ कि इसके कारण खेतिहर मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर कम हो गए। यही नहीं, इससे पशु-धन के समाप्त होते जाने का भी संकट आ खड़ा हुआ। ट्रैक्टर, थे्रसर, बोरिंग मशीन आदि ने हल, दवनी, रहंट आदि के काम आनेवाले बैलों की उपयोगिता खत्म कर दी। गाय-भैंस जैसे दुधारू मवेशियों की भी संख्या कम होती जा रही है, क्योंकि इन मवेशियों को पालने में सिर्फ नौकरी के लिए आकुल-व्याकुल पीढ़ी की दिलचस्पी कम होती जा रही है। जो पंचायत-व्यवस्था गांवों में सौहार्द कायम रखने की भूमिका निभाती आई थी, उसमें भी चुनावी राजनीति के कीटाणु घुसपैठ करते जा रहे हैं। आज आलम यह है कि मुखिया, सरपंच, प्रमुख आदि के चुनाव में वोट खरीदे जा रहे हैं, मार-पीट से लेकर हत्याएं तक हो रही हैं।
यह सब देखते हुए मानना पड़ता है कि स्वतंत्र भारत में जिस ग्राम-स्वराज्य के रास्ते गांधी हिंद स्वराज्य का सपना साकार होते देखना चाहते थे और जिस पंचायती राज के निमित्त हमारे संविधान में नीति-निदेशक तत्त्वों का सन्निवेश किया गया, उससे हमारे आज के गांव कोसों दूर होते जा रहे हैं। वास्तव में विकास के नाम पर शहरीकरण, मशीनीकरण दैत्याकार रूप में फैलते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ गांवों की रौनक कूच करती जा रही है। कृषि व कुटीर उद्योगों वाली आधारभूत संरचना के नष्ट होते जाने से गांव वीरानगी के शिकार होते जा रहे हैं। गांवों से युवा-शक्ति का पलायन रोकना एक बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने।अब सवाल यह है कि इन गांवों में युवकों को रोजगार कैसे उपलब्ध कराए जाएं? इस समस्या का समाधान हम अंधाधुंध मशीनीकरण के कंधे पर सवार होकर हरगिज नहीं कर सकते। इसके लिए हमें वाई-फाई- कंप्यूटर, लैपटॉप, आॅटोमेशन का मार्ग छोड़ कर गांवो के पुराने पारंपरिक उद्योगों, जो शारीरिक श्रम पर आधारित थे, का पुनरुद्धार करना पडेÞगा। जैसे गांधीजी ने मिल के कपड़ों के विकल्प के रूप में चरखे का पुनरुद्धार किया, वैसे हीआजहमें फिर से सिंचाई के लिए बैल से चलनेवाले रहंट, बैल से चलनेवाले गन्ना पेरनेवाले कोल्हू, हाथ-करघा, हाथ के सहारे चलनेवाले बर्तन, लोहा-उद्योग आदि को सामने लाना होगा। मिट्टी की खुदाई-कटाई करने के लिए जेसीबी जैसी दैत्याकार मशीन की जगह हाथ की शोभा बढ़ानेवाले फावड़े को आगे करना होगा। मशीनों के गैर-जरूरी प्रवेश पर अंकुश लगाना होगा। साथ ही शिक्षा-पद्धति में सुधार करते हुए उसमें शारीरिक श्रम के महत्त्व और गरिमा को प्रतिष्ठित करना होगा।
जाहिर है, जिनके लिए विकास का मतलब सिर्फ मशीनीकरण, शहरीकरण और स्मार्ट सिटी रह गया है, जो डिजिटल इंडिया के पीछे दीवाने हैं, उन्हें ये बातें नागवार लगेंगी। ऐसे लोग हर पल अमेरिकी जीवन-शैली की ओर टकटकी लगाए रहते हैं। लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि अमेरिका के भी एलविन ट्राफलर, जॉर्ज केन्नान, जॉन जर्जन जैसे चिंतक मशीनीकरण पर अंकुश लगाने की बात करते हुए शारीरिक श्रम आधारित पुराने उद्योगों के साथ तालमेल बिठाने की वकालत कर रहे हैं। यही बात गांधी भी ‘हिंद स्वराज’ (1909) से लेकर जीवन की आखिरी सांस तक कहते रहे। स्पष्टत: गांवों में बसनेवाले भारत की समस्याओं का समाधान गांधी परिकल्पित ग्राम-स्वराज्य को मूर्त करके ही हो सकता है।