विषमता की दुनिया– धर्मेंन्द्रपाल सिंह

दावोस में विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम) की बैठक से ठीक पहले आर्थिक असमानता पर जारी आॅक्सफेम रिपोर्ट चौंकाती है। ‘एन इकॉनमी फॉर 99 परसेंट’ नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, आज बिल गेट्स, वारेन बफेट जैसे केवल आठ धन्नासेठों के पास विश्व की आधी गरीब आबादी यानी 3.6 अरब जनता के बराबर धन-दौलत है और एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में 99 फीसद संपत्ति है। यह हालत तब है जबकि दुनिया के दस प्रतिशत लोग अब भी कंगाली (दो डॉलर प्रतिदिन से कम आय) में जीते हैं। सबसे अमीर आठ खरबपतियों में से छह अमेरिकी, एक मैक्सिको और एक स्पेन का नागरिक है। हिंदुस्तान के हालात तो और भी खराब हैं। यहां सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास 58 प्रतिशत दौलत है, जो दुनिया के अन्य देशों के औसत (50 प्रतिशत) से अधिक है। भारत में 84 खरबपतियों के पास कुल 24.8 खरब डॉलर का खजाना है, जबकि देश की कुल धन-दौलत का मूल्य 31 खरब डालर आंका गया है। 2014 से हर साल जारी होने वाली इस रिपोर्ट के मुताबिक तमाम दावों के बावजूद दुनिया में अमीर-गरीब के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है, जिस कारण जन-आक्रोश बढ़ रहा है, तथा लोग लोकतंत्र को शक की नजर से देखने लगे हैं।


रिपोर्ट बताती है कि 1998 और 2011 के बीच तेरह बरस में दुनिया के सबसे गरीब दस फीसद लोगों की आमदनी पैंसठ डॉलर सालाना की दर से कुल दस फीसद बढ़ी, जबकि इसी अवधि में एक प्रतिशत सबसे अमीर तबके की आमदनी में 11,800 डॉलर सालाना के हिसाब से 182 गुना इजाफा हो गया। और गहराई में जाने पर पता चलता है कि पिछली चौथाई सदी में एक प्रतिशत अमीरों की आय सबसे गरीब पचास प्रतिशत लोगों से ज्यादा बढ़ी है। पिछले दस साल में अकेले बिल गेट्स की संपत्ति 1.70 लाख करोड़ रुपए बढ़ गई, यानी उसमें हर घंटे दो करोड़ रुपए की तूफानी रफ्तार से इजाफा हुआ है। इस सच से अब कोई इनकार नहीं कर सकता कि विकास की मौजूदा डगर पर चलने से ही गरीब-अमीर के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। वर्ष 2010 में 388 अमीरों की संपत्ति दुनिया की आधी आबादी की कुल दौलत के बराबर थी, जबकि 2011 में उनकी संख्या घट कर 177, 2012 में 159, 2013 में 92, 2014 में 80, 2015 में 62 और 2016 में महज आठ रह गई।


आज एक तरफ विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) और वित्तीय संस्थाओं के चुनिंदा मालिक हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों कंगाल हैं। यह विषमता जन-कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों के मार्ग में रोड़ा बन गई है। दुनिया भर के देशों में उभरता सामाजिक असंतोष भी इसी का परिणाम है। अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए एमएनसी नित नए-नए तरीके खोज रही हैं। अब आदमी के बजाय रोबोट से काम कराने पर जोर दिया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार रोबोट अगले पांच साल में केवल पंद्रह देशों में 51 लाख कर्मचारियों की नौकरी खा जाएंगे। दुनिया भर में जहां नौकरियों का टोटा है, वहीं दूसरी तरफ सारी धन-दौलत मुट्ठी भरलोगों के हाथ में सिमटती जा रही है। भारत का उदाहरण ही लें। पिछली चौथाई सदी में ‘बाजार-अर्थव्यवस्था’ के चलते देश ने क्या खोया और क्या पाया? तेज औद्योगीकरण और आर्थिक सुधार के दावों के बावजूद सच यह है कि पिछले पच्चीस सालों के दौरान अच्छी और सुरक्षित नौकरियां लगातार घटी हैं। 1980 की औद्योगिक जनगणना में प्रत्येक गैर-कृषि इकाई में 3.01 कर्मचारी थे, जो 2013 आते-आते घट कर 2.39 रह गए। उदारीकरण से पूर्व 1991 में 37.11 फीसद उद्योग ऐसे थे जहां दस या अधिक कर्मचारी थे। 2013 में यह संख्या दस प्रतिशत गिरकर 21.15 रह गई। इसका अर्थ यह हुआ कि देश के अधिकांश उद्योग अब गैर-संगठित क्षेत्र में हैं। यह तथ्य किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था का अच्छा पहलू नहीं माना जाएगा। इस सिलसिले में श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट का जिक्र जरूरी है, जिसमें सर्वाधिक काम देने वाले आठ सेक्टरों- कपड़ा, हैंडलूम-पॉवरलूम, चमड़ा, आॅटो, रत्न-आभूषण, परिवहन, आईटी-बीपीओ और धातु- के मौजूदा हालात का जिक्र है, जहां नई नौकरी न बराबर है।


रिपोर्ट के अनुसार, इन आठ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेक्टरों में जुलाई-सितंबर, 2015 की तिमाही में केवल 1.34 लाख नई नौकरियां आर्इं। मतलब यह कि प्रतिमाह पैंतालीस हजार से भी कम लोगों को काम मिला, जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हिंदुस्तान के रोजगार-बाजार में हर महीने दस लाख नए नौजवान उतर आते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हर महीने लाखों बेरोजगारों की नई फौज खड़ी हो रही है, जो एक साल में एक करोड़ की दिल दहला देने वाली संख्या कूद जाती है। कुल मिलाकर रोजगार के मोर्चे पर हालात बहुत बुरे हैं। सरकारी विभागों में चपरासी के चंद पदों के लिए लाखों आवेदन आते हैं और अर्जी देने वालों में हजारों इंजीनियरिंग, एमबीए, एमए, पीएचडी डिग्रीधारी होते हैं। अगर ‘हर हाथ को काम’ का नारा क्रियान्वित करना है तो सरकार को प्रतिवर्ष कम से कम 1.2 करोड़ नए रोजगार सृजित करने ही होंगे।आय के अंतर की मार औरतों पर सर्वाधिक पड़ी है। एशिया में समान काम के लिए उनका वेतन पुरुषों के मुकाबले दस से तीस प्रतिशत कम है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की विश्व वेतन रिपोर्ट (2016-17) के अनुसार, भारत में पुरुष और महिला के वेतन में तीस फीसद से ज्यादा अंतर है। इतना ही नहीं, सबसे कम वेतन पाने वाले श्रमिकों में महिलाओं की संख्या साठ प्रतिशत है, जबकि उच्च वेतन वर्ग में उनकी तादाद महज पंद्रह फीसद है। गांवों में रहने वाली चालीस करोड़ औरतों में से चालीस प्रतिशत खेती और उससे जुड़े धंधों में लगी हैं, लेकिन उन्हें किसान का दर्जा नहीं दिया जाता। न तो उनके नाम जमीन होती है और न ही सरकारी योजनाओं का उन्हें लाभ मिल पाता है। इससे उनकी माली हालत ही नहीं, उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ता है।


अपनी दौलत बढ़ाने के लिए धन्नासेठ ‘टैक्स हैवन’ देशों की आड़ में कर-चोरी करते हैं। आज अंतर केवल दौलत के बंटवारे में नहीं, कर्मचारियों के वेतन में भी है। भारत की किसी बड़ी आईटी फर्म के सीईओ की तनख्वाह औसत कर्मचारी से 416 गुना अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार, भविष्य में हालात सुधरने के आसार नहीं हैं।उलटेअगले दो दशक में पांच सौ धनवान अपनी औलाद को इक्कीस खरब डॉलर की दौलत सौंप कर जाएंगे, जो भारत के जीडीपी से भी ज्यादा होगी। इस संदर्भ में अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की पुस्तक ‘इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’ का जिक्र जरूरी है, जिससे देश के विकास के दावों और पैमानों को गंभीर चुनौती मिलती है। खुली और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का मोटा सिद्धांत है कि यदि गरीबों का भला करना है तो देश की आर्थिक विकास दर ऊंची रखो। इस सिद्धांत के अनुसार जब विकास तेजी से होगा तो समृद्धि आएगी और गरीबों को भी इसका लाभ मिलेगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत में आज केवल आर्थिक विकास के पैमाने को अपनाने का चलन खारिज किया जा चुका है। किसी देश की खुशहाली नापने के लिए अब मानव विकास सूचकांक तथा भूख सूचकांक जैसे मापदंड अपनाए जा रहे हैं और इन दोनों पैमानों पर हमारे देश की हालत दयनीय है। यदि विकास के लाभ का न्यायसंगत बंटवारा न किया जाए और खुले बाजार पर विवेकपूर्ण नियंत्रण न रखा जाए तो समाज में बदअमनी फैलने का भय रहता है। आज भारत भी इस खतरे के मुहाने पर खड़ा है।

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