यह हिंसा विकास को रोकती है– जयति घोष

भारतीय समाज में औरतों के खिलाफ जारी, बल्कि बढ़ती हुई हिंसा को लेकर चिंतित और भयभीत होने की कई सारी वजहें हैं। निस्संदेह, यह कोई नया लक्षण नहीं है, क्योंकि ऐसी हिंसा भारतीय समाज में ढांचागत और स्थानीय, दोनों रूपों में हमेशा से मौजूद रही है। हमें इस तरह की दलील भी सुनने को मिलती है कि इन दिनों ऐसी अनेक घटनाएं हमें इसलिए सुनने को मिल रही हैं, क्योंकि हमारे देश की महिलाएं और लड़कियां अब अपने साथ होने वाली हिंसा को लेकर पहले से अधिक मुखर हुई हैं और ऐसा करने में अब वे सक्षम हैं। लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी मानना पड़ेगा कि ्त्रिरयों के खिलाफ हिंसा की किन घटनाओं को कितना महत्व मिले, यह भी शहरी और वर्गीय पूर्वाग्रहों से तय होता है। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु जैसे शहर में घटने वाली यौन उत्पीड़न की घटनाओं को राष्ट्रीय मीडिया ने जितनी तत्परता और जोर-शोर से उठाया, वैसी सदाशयता उसने छत्तीसगढ़ की आदिवासी औरतों के साथ सुरक्षा अधिकारियों द्वारा सामूहिक बलात्कार की कथित घटना में नहीं दिखाई। निस्संदेह, बेंगलुरु की घटनाएं भी समान रूप से घिनौनी व अस्वीकार्य हैं, पर छत्तीसगढ़ में तो जुल्म उन लोगों ने ढाए, जिन पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है।

भारत में औरतों के खिलाफ हिंसा की ज्यादातर वारदातें यद्यपि घर की चारदीवारी में होती हैं, जिनमें दोषियों की पहचान किसी से नहीं छिपी होती, मगर अब सार्वजनिक स्थलों पर ्त्रिरयों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं तेजी से दर्ज की जा रही हैं, बल्कि ये उन जगहों पर भी होने लगी हैं, जिन्हें इस लिहाज से महफूज माना जाता था। हमारे समाज की इस बुराई के खिलाफ आवाज उठाने की नैतिकता बरतने के अलावा यह भी जानना जरूरी है कि ऐसे दुष्कृत्यों की कितनी बड़ी कीमत हमारी अर्थव्यवस्था चुकाती है। खासकर हमारे उन राजनेताओं (चाहे वे जिस भी पार्टी के हों) के लिए यह जानना काफी महत्वपूर्ण है, जिन्हें सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में ज्यादा से ज्यादा बढ़ोतरी सबसे पवित्र चीज लगती है।

 

भारतीय अर्थव्यवस्था की चौंकाने वाली विशेषताओं में से एक है- इसकी श्रम शक्ति में औरतों की कमतर भागीदारी। यह बात हमारी अर्थव्यवस्था को न सिर्फ बड़े विकासशील देशों की कतार से, बल्कि ‘उभरते बाजारों’ से भी अलग करती है। काम और रोजगार से संबंधित नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के सबसे ताजा आंकडे़ इस बात की तस्दीक करते हैं कि 15 साल से ऊपर की सिर्फ 25 फीसदी ग्रामीण औरतों को नियमित रोजगार हासिल है, जबकि शहरों की सिर्फ 17 प्रतिशत औरतें नियमित नौकरी करती हैं। ये आंकड़े ज्यादातर विकासशील देशों के मुकाबले हैरतअंगेज रूप से कम हैं। ग्रामीण इलाकों में तो औरतों के रोजगार की दर में पिछले कुछ समय में गिरावट ही आई है। यह स्थिति तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था के लिए एक अनोखी बात है।

 

दरअसल, यह भारतीय समाज में औरतों की दयनीय हैसियत दर्शाती है। उनकी इस हालत के पीछे उनके अवैतनिक उत्पादक कार्यों को नजरअंदाज किए जाने और घर के बाहर रोजगार पाने की इच्छा रखने वाली ्त्रिरयों पर शारीरिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दबावबढ़ने, दोनों की भूमिका है। एनएसएसओ ने अपने उसी सर्वे में इस बात का भी खुलासा किया है कि 60 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं और 64 फीसदी शहरी औरतें घर की चारदीवार में अवैतनिक आर्थिक गतिविधियों में सक्रिय हैं। इनमें बुजुर्गों, नौजवानों, बीमारों व शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की देखभाल के अलावा, खाना पकाने, कपड़े धोने व साफ-सफाई के साथ घर की दैनिक जरूरत के अन्य काम शामिल हैं। ये ऐसी अनिवार्य गतिविधियां हैं, जिनके बिना न तो कोई समाज, और न ही अर्थव्यवस्था चल सकती है। फिर भी इनकी अनदेखी की जाती रही है और इनके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता।

इस स्थिति के दो बड़े अहम निहितार्थ हैं। एक तो यह कि ‘अधिकृत’ अर्थव्यवस्था, चाहे वह औपचारिक हो या अनौपचारिक, पूरी तरह से इस अवैतनिक कार्यशक्ति पर निर्भर है, क्योंकि ये अवैतनिक कार्य परोक्ष रूप से अधिकृत अर्थव्यवस्था का आधार तैयार करते हैं। (हमारी अर्थव्यवस्था में सकल उत्पादकता के आकलन के जो तरीके हैं, वे इन अवैतनिक आर्थिक कार्यों का संज्ञान नहीं लेते, और इसलिए भ्रामक हैं- वे कामगारों की संख्या कम आंकते हैं, और इस तरह प्रति कामगार वास्तविक उत्पादकता ज्यादा आंकते हैं)

दूसरा, अधिकृत अर्थव्यवस्था औरतों की योग्यता को कम आंककर अपनी आय की विस्तार-क्षमता खुद ही खत्म कर देती है। वास्तव में, औरतों की वैतनिक नौकरी की दर में गिरावट को अवैतनिक कामगारों की संख्या में बढ़ोतरी से सीधे-सीधे परिभाषित किया जा सकता है। इस तरह, औरतों के सशक्तीकरण का अभाव और कुल जमा समाज के स्तर पर कम उत्पादकता- दो ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो एक-दूसरे को बढ़़ावा देती हैं।

 

श्रम-शक्ति में औरतों की कम हिस्सेदारी के पीछे उनकी शारीरिक सुरक्षा की चिंता एक बड़ी वजह है। सार्वजनिक स्थलों पर औरतों के खिलाफ हिंसा एक ऐसा माहौल रचती है, जिसमें न सिर्फ परिवार के लोग, बल्कि खुद औरतें आर्थिक गतिविधियों का हिस्सा बनने से कतराती हैं। जाहिर है, यह पूरे समाज का बहुत बड़ा नुकसान है, क्योंकि यह श्रमशक्ति का नुकसान है। आखिरकार ये महिलाएं अधिकृत अर्थव्यवस्था में अपना सक्रिय योगदान दे ही सकती थीं। सार्वजनिक स्थलों पर होने वाली हिंसा घर के बाहर की अनिवार्य अवैतनिक आर्थिक गतिविधियों में भी (जैसे पेयजल भरना या जलावन की लकड़ी चुनना) औरतों की क्षमता सीमित कर देती है।

 

 

‘जन-सांख्यिकीय लाभांश’ का शोर मचाने वाले नीति-नियंता श्रम-शक्ति से ज्यादा नौजवानों के जुड़ने की बातें तो खूब करते हैं, मगर औरतों के परोक्ष आर्थिक योगदान व उसकी संभावनाओं की पूरी तरह उपेक्षा कर देते हैं। और तो और, न समाज, न हमारे नीति-नियंता औरतों के खिलाफ हिंसा को काबू में कर पाते हैं।

 

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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