‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?’ आपने यह कहावत तो सुनी होगी. झारखंड में इसे दूसरे रूप में कहा जा सकता है. ‘खनन-लॉबी के गले में शाह आयोग की घंटी कौन बांधे?’ घंटी बांधने का जिम्मा जो लेगा उसकी सांस हमेशा अटकी रहेगी. पता नहीं कब कौन-सा भ्रष्टाचार सामने आ जाए और घंटी बांधने का जिम्मेदार व्यक्ति की जीवनभर की कमाई हजम हो जाए?
जो ज्यादा चालाक हैं वे हमेशा रास्ता निकाल ही लेते हैं. रास्ता राज्य के नौकरशाहों ने भी निकाल लिया है. उन्होंने तय कर लिया कि राज्य में किसी भी खनन पट्टे का रिन्यूअल वे नहीं करेंगे. यानी बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जिम्मेदारी उनकी नहीं है.
केंद्र में कांग्रेस की मनमोहन सरकार के कार्यकाल में जब एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे और सीबीआई का भूत नौकरशाहों की नींद हराम करने लगा तो यह अघोषित निर्णय अपने आप ही जल्दी से ले लिया गया. उसके बाद रिन्यूअल के मामले में वही होता रहा जिसके लिए लालफीताशाही मशहूर है.
मोदी सरकार ने किया था रास्ता साफ
केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार बनने के बाद नौकरशाहों को जिम्मेदारी से थोड़ी मुक्ति देते हुए जनवरी 2015 में माइंस एंड मिनरल डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन (एमएमडीआर) एक्ट में संशोधन किया गया.
अधिकारियों के लिए रक्षा-कवच बनाते हुए इस संशोधन में खनन पट्टों के रिन्यूअल का रास्ता साफ कर दिया गया. इसके तहत खनन कंपनियों को पट्टे का रिन्यूअल 2020 या 2030 तक अपने-आप हो जाने की व्यवस्था कर दी गई.
इसी संशोधन में डिफॉल्टर खनन कंपनियों के बारे में यह व्यवस्था दी गई कि सरकार से हरी झंडी मिलने के बावजूद वे तबतक खनन का काम शुरू नहीं कर सकेंगी जबतक डिफॉल्टर घोषित किए जानेवाले कारणों को दूर कर लेने का क्लियरेंस नहीं दे देतीं।
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