पुराने शिबू सोरेन को भी जानिए– अनुज सिन्हा

देश या झारखंड पुराने-संघर्षशील शिबू सोरेन को या तो जानता नहीं है या भूल गया है. उसे पता नहीं है कि कैसे पुराने शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा, सूदखोरों, हड़िया-दारू के खिलाफ और झारखंड अलग राज्य के लिए पारसनाथ की पहाड़ियों व जंगलों में रह कर वर्षों आंदोलन चलाया. जो न तो खुद शराब पीता है और न ही मांस-मछली खाता है. जिस शराबबंदी के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की देश भर में चर्चा हो रही है, उसी शराब के खिलाफ शिबू सोरेन ने लगभग 50 साल पहले आंदोलन चलाया था.


जिस महाजनी प्रथा के खिलाफ अभी झारखंड में कानून बन रहा है, उसी प्रथा के खिलाफ तो शिबू सोरेन ने लड़ाई छेड़ी थी और धान काटो अभियान चलाया था. आदिवासियों को साक्षर बनाने के लिए नाइट स्कूल खोला था, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए सामूहिक खेती की शुरुआत की थी. शिबू सोरेन के उस आंदोलन की जानकारी नयी पीढ़ी को नहीं है. नयी पीढ़ी सिर्फ उसी शिबू सोरेन को जानती है, जो झारखंड के मुख्यमंत्री थे, देश के कोयला मंत्री थे, गंभीर आरोपों से घिरे थे, जेल भी जाना पड़ा था.


शिबू सोरेन 11 जनवरी को 73 साल के हो गये. इस उम्र में भी वही ऊर्जा, वही उत्साह, वही तेवर. सही मायने में एक जननेता, जिसके सीने में आज भी झारखंड के लिए दर्द है. जो समाज के सबसे नीचे के तबके के लिए सोचता है. झारखंड में आदिवासियों के सबसे बड़े नेता, जिन्हें सुनने के लिए आज भी उनके समर्थक 30-40 किलोमीटर पैदल चल कर आते हैं, घंटों इंतजार करते हैं. कुछ क्षणों के लिए भूल जाइए कि शिबू सोरेन किस दल से जुड़े हैं, उनके असली अतीत में जाइए. 1993 के पहले की बात कीजिए. एक दूसरा शिबू सोरेन नजर आयेगा, जिसका कद बहुत ऊंचा है.


1970 के आसपास जब शिबू सोरेन का आंदोलन उफान पर था, उन दिनों के शिबू सोरेन के साथियों (इनमें से कई अब जीवित नहीं हैं), से मेरे संबंध रहे हैं. ये वे लोग हैं या थे, जिन्‍होंने पहाड़ों-जंगलों में शिबू सोरेन को देखा था या उनके साथ संघर्ष में थे. इनमें झगड़ू पंडित (जामताड़ा), धान सिंह मुंडारी (बोकारो, अब दिवंगत) प्रमुख थे. इन लोगों के पास कई संस्मरण थे, जिससे शिबू सोरेन के व्यक्तित्व का पता चलता है. झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में जहां कहीं भी शिबू सोरेन की अगुवाई में लड़ाई लड़ी गयी, किसी भी लड़ाई में आंदोलनकारियों ने महिलाओं से दुर्व्यवहार नहीं किया. लड़ाई खेत की थी, खेत में लड़ी जाती थी. संजीव (अभी राज्य सभा सांसद) का उदाहरण सामने है.


टुंडी के पास एक गांव है मनियाडीह. संजीव महाजन के परिवार से थे. शिबू सोरेन की अगुवाई में संतालों ने पहले उन्हीं के खेत पर धावा बोला था. धान लूट लिया था. जब संजीव का पूरा परिवार तबाह हो गया, तो शिबू सोरेन को गलती का अहसास हुआ. उन्‍होंने कहा : मैंने तुम्हारे परिवार को तबाह किया है, हमहीं आबाद करेंगे.


उन्‍होंने संजीव की पढ़ाई का जिम्मा लिया, उन्हें पहले पढ़ाया. फिर दिल्ली ले गये. वहां अपने साथ रख कर (तबवे सांसद बन गये थे) कानून की पढ़ाई करवायी. जब वकील बन गये, तो जेठमलानी के पास जा कर हाथ जोड़ कर उन्हें अपने साथ रखने का आग्रह किया था. वही संजीव सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील बने. बाद में उन्‍होंने अपनी पार्टी से उन्हें राज्यसभा में भेजा. यानी जिस महाजन के परिवार को निशाना बनाया, उसी परिवार कीं खुशी भी उन्‍होंने लौटायी. आज भी शिबू सोरेन के वे सबसे प्रिय माने जाते हैं.


1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया था. तब केबी सक्सेना धनबाद के उपायुक्त थे. उन्‍होंने शिबू सोरेन के काम को देखा था. उन्‍होंने शिबू सोरेन को समझाया था और आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार किया था, लेकिन इसके पहले कि शिबू सोरेन समर्पण करते, उनका तबादला हो गया था.


समर्पण के बाद जब उन्हें धनबाद जेल में रखा गया था, तो वहां कुछ महिला कैदी छठ के ठीक पहले छठ का गीत गा रही थी. शिबू सोरेन के साथ झगड़ू भी वहां बंद थे. दोनों ने उस महिला से कहा कि वे छठ करना चाहती हैं तो करें, सारी व्यवस्था जेल में होगी. महिला कैदियों ने वहां छठ का व्रत किया और सारी व्यवस्था शिबू सोरेन के कहने पर प्रशासन ने किया था. यह है दूसरे की भावना का ख्याल रखने का उनका गुण.


ऐसी घटनाओं की चर्चा नहीं होती. यह भी बहुत ही लोगों को मालूम है कि जब डोमेसाइल का मामला बढ़ गया था, तब झारखंड को शांत करने के लिए उन्‍होंने देर रात में बंदी का फैसला वापस लिया था. लोकसभा चुनाव में अपने बेटे का टिकट काट कर उन्‍होंने पार्टी के कार्यकर्ता सुनील महतो को टिकट दिया था. यह सामान्य फैसला नहीं था. यही कारण है कि आज भी हर दल के लोग उनकी इज्जत करते हैं.


अलग झारखंड के लिए राज्य में कोई ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जिसने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी हो. हां, बाद में कुछ घटनाएं ऐसी घटीं, जो शिबू सोरेन के संघर्ष पर भारी पड़ी. शिबू सोरेन के साथ न्याय तभी हो पायेगा, जब उनके जीवन, पूरे संघर्ष को राजनीति से हट कर देखा जाये और ईमानदारी से उसका विश्लेषण किया जाये. अगर अगर ऐसा होता है, तो एक नये शिबू सोरेन को दुनिया समझ पायेगी.

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