कुछ सबक अभी दोनों को सीखने हैं। इनमें सबसे प्रमुख हैं तथ्य जुटाने में मेहनत करना और लोकतंत्र में सर्वसम्मति का सम्मान। उसके बाद अगर आलोचकों की बात में दम साबित हो, तो उनको मिलकर जनहित में नोटबंदी समेत सभी विवादित फैसलों और गलतबयानियों पर पूरी ईमानदारी से विचार-विमर्श करना चाहिए। संसद के शीत सत्र की नाकामी के मद्देनजर जरूरी है कि मीडिया की आजादी से सरोकार रखने वाले सारे लोग भी वर्तमान सरकार और विपक्ष के साथ-साथ भोली जनता को भी यह याद दिलाते रहें कि राजधानी की लक्जरी लुटियन जोन, जिसे पानी पी-पीकर कोसा जा रहा है, वह भारतीय राजनीति के हर दल के बड़े खिलाड़ियों की सर्वाधिकार सुरक्षित आरक्षित आवासीय जोन रही है। वहीं से वे सब लगातार अपने तमाम हाकिम हुक्कामों, दलीय चाणक्यों और चिरकुटों समेत राजकाज या/और उसके प्रतिरोध की भली-बुरी योजनाएं बनाते-चलाते हैं। दामन किसी का पाक नहीं।
मई 2014 में मौजूदा सरकार इसी तरह चुनाव प्रचार के दौरान तत्कालीन सरकार के चाल-चरित्र-चेहरे को हर तरह से दागी बता कुशासन के खिलाफ मुखर और चतुराई से संयोजित मुहिम चलाकर कई उम्मीदों के साथ दिल्ली के तख्त पर बैठी थी। बहुसंख्य मतदाताओं ने नई सरकार की देसी बानी व चोले को एक जनोन्मुखी नैतिकता और उजलेपन की निशानी मान उम्मीद की थी कि अब चायवाली गुमटी से ऊपर उठे नेता दिल्ली की उच्चभ्रू (हाईब्रो) वंशवादी रीति-नीति को बदलकर समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े आम आदमी को सरकार की पहली प्राथमिकता बनाएंगे। लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रपों का वंशवाद और सूट-बूट वाला इलीटवाद फिर भी न गया। फिर बिना जनता या संसद को भरोसे में लिए अचानक सारे देश के जीवन को हिला देने वाला फैसला रातोंरात लागू किया गया। अलबत्ता चुनावी चंदे को इस सुधारवाद से दूर रखा गया। इस सबसे सामान्य जन को ईमानदारी के चोले के भीतर एक बेईमान अस्तर और दुराव-छिपाव से भरी जेब दिखाई देने लगी है। कौन नहीं जानता कि चुनावी चंदा काले धन का सबसे बड़ा अखंड स्रोत है और उससे निकली धारा में कैसे सभी दल हाथ धोतेरहे हैं? इस चक्र में जहां विपक्ष को फांक दिखी, उसने वार किया है : सत्तापक्ष का खुद नोटबंदी से ऐन पहले तमाम अफवाहें जगाकर धड़ाधड़ जमीनें खरीदना और विस्मयकारी तरीके से करोड़ों की मुद्रा भी बैंक खातों में जमा कराना क्या है, वे पूछते हैं तो जनता सर हिलाएगी ही। अब विपक्ष बैंकों के सामने कतार में लग-लगकर पस्त जनता में प्रचार कर रहा है कि किस तरह एक कुशल जादूगर की तरह सरकार रूमाल से कैशलेस खरगोश निकालते समय चुपचाप आस्तीन के रास्ते जनता के बैंक जमाखातों से बरास्ते डिजिटल तकनीक तमाम तरह की निजी जानकारियां अपनी चोर जेब में सरका रही है, जिसे बाद को वह जाने किस तरह स्वहित में इस्तेमाल करे। इसी बीच राजनीति के कालेधन सप्लायर्स की हैरतअंगेज जमीनी सचाई के दर्शन भी देश की जनता को हुए, जब पहले कर्नाटक के विवादास्पद रेड्डी घराने की शाही शादी की तस्वीरें सामने आईं, फिर जमानत पर छूटे धनकुबेरों में से एक, सहारा के सुब्रतो राय की किताब के विमोचन समारोह में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद से लेकर भाजपा के ओमप्रकाश माथुर तक सहर्ष भागीदारी करते दिखे।
मौजूदा सरकार को अगर इस नाजुक घड़ी में अपनी छवि की चिंता है तो उसे भरोसेमंद तरीके से इस तरह के आरोपों को अपने ठोस कदमों से निरस्त करना होगा कि उसने नोटबंदी के मार्फत कालेधन का तो बहुत छोटा हिस्सा बाहर निकाला लेकिन इस बीच गरीबों से धन खींचा और अमीरों को सींचा। और यदि कांग्रेस भी वाकई अपनी खोई साख की बहाली चाहती है, तो गंभीर विपक्ष के रूप में यह जरूरी है कि वह बिना ठोस प्रमाणों के सरकार के खिलाफ गंभीर आरोपों को किसी अनाम लॉकर से निकालकर बचकानी आतुरता से जनसभाओं में लहराने का मोह त्यागे। एक समय जब बोफोर्स को लेकर इसी तरह अफवाह फैलाने का काम वीपी सिंह ने किया था, तो बाद में इसकी भारी कीमत चुकाई थी। ‘आग लगा दूंगा, भूचाल ला दूंगा का शोर मचाने से पहले वो सारा इतिहास कांग्रेस को भी तनिक याद कर लेना चाहिए।
दरअसल नोटबंदी, जीएसटी से लेकर सहारा और बिड़ला वाले मामलों ने तूल ही इसलिए पकड़ा है कि सरकार ने हर कदम पर जरूरत से ज्यादा आक्रामकता दिखाते हुए खुली बहस पर ढक्कन लगाने की कोशिश की है। विपक्ष अमुक नियम के तहत बहस मांगे तो ढक्कन, टीवी पर बहस हो तो पार्टी विशेष के प्रवक्ता के साथ बहस को अपनी पार्टी का प्रवक्ता न भेजने का ढक्कन, संसदीय कमेटी की जांच पर हीलाहवाली, दिल्ली के राज्यस्तरीय मसलों पर चुनी हुई विधानसभा के हर फैसले पर ढक्कन और सर्वोच्च न्यायालय ले. गवर्नर को राज्य का प्रमुख घोषित करे तो इस पर सार्वजनिक नाच-गाना, लड्डू बंटाई; भले ही दिल्ली नागर समस्याओं से बिजबिजाती सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी का खिताब पा ले। उधर कांग्रेस व विपक्षी दल लगता है सारा विधायी काम भाड़ में डालकर बस संसद का हर सत्र ठप कराने की कसम खाए हुए हैं।
जनता इस सबसे आजिज है और चाहती है कि अब जो खेल हो, वह खुला फर्रुखाबादी हो। यानी जिसके पास पुष्ट सबूत हैं, पेशकरे।संसद बैठे तो वॉक-इन, वॉक-आउट न हो। निजी खुंदक के इजहार के बजाय सारगर्भित उभयपक्षी बहस हो और जरूरी मसले वैधानिक तरीके से निपटाए जाएं। यानी कुल मिलाकर यह साफ कर दिया जाए कि आंशिक सत्य दिखाकर शंका जगाना अलोकतांत्रिक बदनीयती का सबूत है, और जबरन ढक्कन-लगाई की हर कोशिश भी। और गलती का खामियाजा दोषी दल को चुनावों में भुगतना ही होगा।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)