डिजिटल भुगतान पर सरकार के जोर देने के खिलाफ कांग्रेस नेता व पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का कहना है कि सरकार का यह जानना कि कोई युवती कौन-सा अधोवस्त्र (अमेरिका व यूरोप और भारत के अभिजात्य वर्ग में इसे ‘लॉन्जरी कहते हैं) खरीदती है, या कोई पुरुष कौन-सी दारू पीता है, उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। बोफोर्स घोटाले के दौरान विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वाराणसी की एक जनसभा में विन चड्ढा के दलाली पर बोलते हुए अपभ्रंश यमक व अनुप्रास अलंकार का मिश्रित प्रयोग करते हुए लाक्षणिक रूप से कहा था -‘तुम बिन चड्ढा, हम बिन चड्डी। लॉन्जरी प्रयोग करने वालों के मौलिक अधिकार की चिदंबरम साहब की चिंता जायज है, पर उन गरीबों के मौलिक अधिकारों का क्या, जिनकी लंगोट भी काला धन की भ्रष्ट व्यवस्था के कारण बीते 70 सालों से छिन गई है?
अजीब है संपन्न् वर्ग का तर्क। पूर्व मंत्री ने एक सारिणी देकर समझाना चाहा कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा सरीखे संपन्न् देशों में भी नकदी का प्रयोग लगभग आधे से ज्यादा कामकाज में होता है। किंतु यह बताना भूल गए कि स्विट्जरलैंड का प्रधानमंत्री बस में कंडक्टर से टिकट लेकर संसद में आता है और सन 1924 में कैंपबेल कांड में रैमसे मैक्डोनल्ड की सरकार इसलिए चली गई क्योंकि राजनीतिक कारणों से सरकार ने कुछ लोगों के खिलाफ मुकदमे उठा लिए थे (यह घटना भी यूपीए के शासनकाल में बनी प्रशासनिक सुधार आयोग की चौथी रिपोर्ट, पेज संख्या 9 में उद्धृत की गई है) जबकि भारत में तो बेटे पर भ्रष्टाचार के मुकदमे के बाद भी लोग मंत्री बने रहते हैं। जिन पश्चिमी देशों का हवाला चिदंबरम ने दिया है, वहां भ्रष्टाचार इस तरह लोगों के जीवन को नहीं खा रहा है कि जीडीपी का 66 प्रतिशत काली संपत्ति में बदल जाता हो।
चिदंबरम का एक और तर्क देखिए। उनके अनुसार नोटबंदी से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। इसके लिए उनका कहना है कि इस घोषणा के बाद नए नोट लेते हुए जो लोग रंगे हाथ पकड़े गए, उनमें रिजर्व बैंक, अन्य बैंक, पोस्ट ऑफिस, कांडला पोर्ट आदि तमाम सरकारी विभाग के अधिकारी ही नहीं, सेना के इंजीनियरिंग सेवा के अभियंता भी थे। यह कुछ ऐसा ही तर्क है कि अगर 70 साल में अपराध बढ़े हैं तो न तो भारतीय दंड संहिता की जरूरत है, न ही अदालतों या जजों की। और शायद यही सोचकर कांग्रेस सरकार ने 70 साल में से 50 साल से ज्यादा के अपने शासनकाल में भ्रष्टाचार पर कभी अंकुश नहीं लगाया। नतीजा यह रहा कि काला धन सुरसा की तरह मुंह बढ़ाता चला गया।
कांग्रेस ने शायद नोटबंदी के खिलाफ तर्क जुटाने का काम अपने इस सबसे प्रतिभाशाली नेता व पूर्व वित्त मंत्री को दिया है, पर उनके तर्क बचकाने ही नहीं भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णुता का भाव रखते दिखाई देते हैं। इस कांग्रेस नेता ने यह बताने की कोशिश की कि सरकार ने अपना ‘गोलपोस्ट (लक्ष्य) बदला है। उनके अनुसार प्रधानमंत्री ने अपने 8 नवंबर के राष्ट्र के नाम संबोधन में 18 बार ‘काला धन शब्द का इस्तेमाल किया और पांच बार ‘जाली नोट का, लेकिन एकबार भी ‘कैशलेस (नोटविहीन) आदान-प्रदान का नहीं, जबकि नवंबर 27 के दो भाषणों में 24 बार ‘कैशलेस शब्द का प्रयोग किया और ‘काला धन शब्द का केवल नौ बार।
कोई नीति (या कानून) सही है अथवा गलत, यह समझाने का सर्वमान्य तरीका होता है यह प्रश्न करना कि इस नीति के न होने से क्या नुकसान हो रहा था या होता? दूसरा, इस नीति से परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नीति-निर्माता को लाभ क्या मिलता? जिस शाम मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, एक सामान्य ज्ञान का बच्चा भी बता सकता था कि जनता को इससे काफी दिक्कत होगी। शायद सरकार को भी इतनी समझ तो है ही। दूसरी बात, काला धन इस देश को 70 साल से खा रहा है और यह धन भ्रष्टाचार की स्थूल परिणति भी है और कारण भी। भ्रष्टाचार सामाजिक व्याधि है जो मूलरूप से समाज में नैतिकता के ह्रास से पैदा होता है। इसे खत्म करने में राज्य अभिकरण की भूमिका सीमित होती है। और अगर होती भी है तो धन के संचालन पर नियंत्रण के माध्यम से ही। लिहाजा इस धन पर अंकुश लगाने हेतु पहला कदम नोटबंदी के जरिए सभी काले नोट को वापस लाने के प्रथम उपक्रम के रूप में हो सकता था। इसलिए पहले नोटबंदी पर जोर दिया गया फिर ‘कैशलेस आदान-प्रदान पर। इसमें यह गारंटी नहीं होती कि भ्रष्ट और अनैतिक अफसर या नेता या सेठ कल से साधु हो जाएगा और बैंक, आरबीआई व थाने का दरोगा माला लेकर जाप करेगा। उसके लिए कैशलेस अर्थव्यवस्था को न केवल रियल एस्टेट में, बल्कि चड्डी खरीदने में प्रयुक्त करना होगा ताकि भ्रष्टाचारी मौलिक अधिकार के नाम पर चड्डी में सोना न छिपाएं।
चिदंबरम का एक और अतार्किक उदहारण लें। उनके अनुसार पहले सभी रियल एस्टेट कारोबार, बड़े ठेके, ऊंचे मूल्य वाले गहने आदि को डिजिटल पेमेंट की सीमा में लाना चाहिए। क्या वह आज भी नहीं है? क्या कानून बन जाएगा तो मकान की खरीद मात्र सफेद धन में ही होगी और पीछे से लिया जाने वाला काला धन बंद हो जाएगा? उसके लिए सामान्य खरीद व उपभोग के ठिकानों पर अंकुश लगाना पहला कदम है अन्यथा ओवर- इन्वॉइसिंग व अंडर-इन्वॉइसिंग के जरिए काला धन पैदा होने का स्रोत बना रहेगा।
और फिर अगर चिदंबरम ऐसा मानते हैं कि बड़े सौदे डिजिटल माध्यम से हों, तो उन्होंने अपने कार्यकाल में यह जादुई छड़ी क्यों नहीं घुमाई?
मोदी सरकार को अगले कदम में मजबूत कानून श्रंखला और संस्थागत सपोर्ट की जरूरत है, जिसे अगले कुछ महीनों में करना होगा ताकि न तो आयकर अधिकारी भ्रष्टाचार का तांडव कर सकें औरन ही भ्रष्टाचारी बचकर निकल सकें। लेकिन इन सबके बाद अभी कई संस्थागत चिदंबरम पैदा होंगे, जो मौलिक अधिकार की दुहाई देकर बचना चाहेंगे, बगैर यह देखे कि 70 साल में करोड़ों गरीबों के मौलिक अधिकार को किसने हड़पा। भ्रष्टाचारी से जब इनकम टैक्स अधिकारी पूछेगा कि नौकर ने तीन करोड़ का फ्लैट कैसे लिया तो वह अदालत में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) की दुहाई देकर बचना चाहेगा यह कहते हुए कि व्यवसाय के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है। भारत जैसे उदारप्रजातंत्रमें अदालतें भी चश्मा लगाकर इस भ्रष्टाचारी को राहत देती नजर आएंगी। लिहाजा, सरकार तो अपना काम कर रही है, लेकिन भ्रष्टाचार के इस कोढ़ के खिलाफ एक व्यापक जन-आंदोलन की जरूरत है, जैसा 2011 में अण्णा के आंदोलन के वक्त नजर आया था। और ये तब तक संभव नहीं जब तक आरएसएस सरीखे बड़े संगठन व सियासी दल एक स्वर में भारत को बदलने के इस यज्ञ में शामिल न हों।