जब-तब कोई नया शब्द या पद बातचीत में चल पड़ता है। आठ नवंबर 2016 को विमुद्रीकरण शब्द का चलन शुरू हुआ। ऐसा चित्रित किया गया जैसे जंगी घोड़े पर सवार कोई सेनापति काला धन, भ्रष्टाचार और नकली मुद्रा रूपी राक्षसों का वध करने निकला है।छह हफ्तों बाद भी काले धन के दैत्य का कुछ नहीं बिगड़ा है। टैक्स चोरी करने वाले नोटबंदी से अविचलित जान पड़ते हैं; वे नए नोटों में काला धन इकट्ठा कर रहे हैं! उन्होंने अपने पुराने नोटों को नए नोटों से बदल लिया है। आय कर विभाग के मुताबिक उसने 500 करोड़ रुपए की नगदी जब्त की है, जिसमें से 92 करोड़ की राशि दो हजार के नए नोटों में थी।
दूसरा दैत्य, भ्रष्टाचार भी अभी जीवित है। कांडला पोर्ट ट्रस्ट के अधिकारी, मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विस के इंजीनियर, रिजर्व बैंक के अधिकारी, बैंक व डाकघर अधिकारी रंगे हाथों, दो हजार के नए नोटों में घूस लेते पकड़े गए हैं।तीसरा दैत्य है जाली मुद्रा रूपी। कुछ महीने इंतजार करें, साबित हो जाएगा कि छपाई की तकनीक शातिर तत्त्वों और आरबीआई में कोई भेदभाव नहीं करती। जाली नोट बनाने की फिराक में रहने वाले जल्दी ही वह तकनीक हासिल कर लेंगे और आरबीआई के सामने यह चुनौती होगी कि वह उनसे कैसे पार पाए।
खौफ का साया
नोटबंदी का मुलम्मा उतरने से सरकार के भीतर खौफ है। इसके शुरुआती लक्षण तब जाहिर हुए जब सरकार और रिजर्व बैंक अपने वादों से पलटने और बार-बार नियम बदलने लगे (कम से कम 62 बार नियम बदले गए!)। कितनी राशि बदली जा सकती है इसकी सीमा बढ़ाई गई, फिर कम कर दी गई, और 24 नवंबर को इस पर विराम ही लग गया। उंगली पर अमिट स्याही लगाने का फरमान जारी हुआ, फिर उससे पल्ला झाड़ लिया गया। हर हफ्ते चौबीस हजार रुपए तक निकालने की इजाजत केवल कागजों पर रही, और अधिकतर लोग मामूली राशि ही पा सके। कहीं-कहीं जहां पुराने नोट चलाने की अनुमति थी, वह एकाएक पंद्रह दिसंबर को वापस ले ली गई। सबसे ज्यादा खौफजदा प्रतिक्रिया तब देखने में आई जब रिजर्व बैंक ने हुक्म दिया कि कोई भी शख्स उन्नीस दिसंबर के बाद और तीस दिसंबर के पहले पुराने नोट केवल एक बार, अधिकतम पांच हजार जमा कर सकता है। और इस हुक्म ने प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के दिए आश्वासनों को बेमतलब बना दिया। वित्तमंत्री का स्पष्टीकरण बेहद लचर था। दो दिन बाद, रिजर्व बैंक को अपना आदेश वापस लेने की शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
प्रधानमंत्री जल्दी ही समझ गए कि उन्हें एक गलत कदम उठाने के लिए राजी कर लिया गया, या उन्होंने उठा लिया है। अब उनके पास विषयांतर करने के सिवा कोई और चारा नहीं था। उन्होंने ‘कैशलेस अर्थव्यवस्था’ का लक्ष्य पेश किया। आठ नवंबर के राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में उन्होंने एक बार भी ‘कैशलेस’ शब्द का प्रयोग नहीं किया था। जिक्र केवल (अठारह बार) काले धन और (पांच बार) नकली नोट का था। सत्ताईस नवंबर आते-आते प्रधानमंत्री ने रुख बदला और उस दिन उनके दो भाषणों में ‘कैशलेस’ कातो चौबीस बार जिक्र आया, जबकि ‘ब्लैक मनी’ का सिर्फ नौ बार!
‘कैशलेस’ अर्थव्यवस्था कोई दोष-रहित या निरापद लक्ष्य नहीं है। इसमें न तो गरीबों की कोई फिक्र है न उन लोगों की, जिनका डिजिटल दुनिया से मामूली या बिल्कुल संपर्क नहीं है।
दुनिया कैशलेस नहीं
कोई भी अर्थव्यवस्था ‘कैशलेस’ नहीं है, सर्वाधिक विकसित देशों की भी नहीं। देखें तालिका:
नगद डेबिट कार्ड क्रेडिट कार्ड
आस्ट्रेलिया 65 21 09
आस्ट्रिया 80 15 02
कनाडा 52 25 20
फ्रांस 55 30 01
जर्मनी 80 12 02
नीदरलैंड 50 40 01
अमेरिका 46 27 19 (स्रोत: ब्लूमबर्ग)
चलन में रहे डॉलर और यूरो का कुल मूल्य 2005 से दुगुना होकर क्रमश: 1.48 लाख करोड़ और 1.1 लाख करोड़ हो गया है। अमेरिका और यूरोप पहले से कम नहीं, बल्कि कहीं ज्यादा नगदी का इस्तेमाल कर रहे हैं!
सारी दुनिया में जरूरी और वांछित नियम यह है कि लोगों के हाथ में नगद पैसा जरूर होना चाहिए ताकि वे रोजमर्रा का लेन-देन नगदी में कर सकें। यह किसी सरकार के लिए पूरी तरह जायज है कि वह बड़े लेन-देन को चेक के जरिए या डिजिटल भुगतान के जरिए करने का कानून बनाए- मसलन जमीन-जायदाद, भारी कीमत के जेवरात, बड़े ठेके वाले भुगतान, कर्ज की किस्तें और कुछ खास करों की अदायगी आदि में।
दूसरी ओर, इस पर जोर देना कि एक किसान डिजिटल तरीके से मजदूर को भुगतान करे, या एक गृहणी कार्ड स्वाइप करके सब्जियां खरीदे, लोगों की जिंदगी में बेजा दखल है, और ग्राहक तथा विक्रेता, दोनों के लिए उत्पीड़नकारी है। याद रखें, डिजिटल भुगतान पर खर्च पर आता है जो उपभोक्ता को चुकाना होता है। जहां बड़े लेन-देन के लिए तर्कसंगत कानून की उपयोगिता है, वहीं हमें भुगतान का तरीका चुनने की आजादी भी होनी चाहिए। यह हमारा अधिकार है और किसी भी सरकार को इसमें दखल देने का कोई औचित्य नहीं है।
ध्यान बंटाने की तरकीब
डिजिटल दुनिया में पहुंच के आधार पर उपभोक्ताओं को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है: जिनकी वास्तविक पहुंच है, जिनकी नाममात्र की पहुंच है, और जिनकी बिल्कुल पहुंच नहीं है। अब तक 71 करोड़ डेबिट कार्ड जारी किए गए हैं। अगस्त 2016 में डेबिट कार्डों के जरिए एटीएम से 2,19,657 करोड़ रुपए निकाले गए, जबकि डेबिट कार्डों के जरिए केवल 18,370 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया। हरेक हाथ में कार्ड या स्मार्ट फोन देना, हरेक को डिजिटल दुनिया तक पहुंच मुहैया कराना और हरेक को डिजिटल तरीके में दक्ष बनाना जन-जागरूकता, शिक्षा और समझाइश के जरिए ही हो सकता है, न कि दबाव डाल कर और नगदी के इस्तेमाल के अधिकार को प्रतिबंधित करके।
एक और अहम मुद््दा है, और वह है निजता का। एक बालिग को यह खुलासा करने को बाध्य क्यों किया जाना चाहिए कि उसने अधोवस्त्र खरीदे या जूते या शराब या तंबाकू। एक युगल को यह बताने को क्यों विवश किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी निजी छुट्टियांकैसेबितार्इं। एक बालिग व्यक्ति को इसका प्रमाण छोड़ने को क्यों बाध्य किया जाना चाहिए कि उसने ‘वयस्क डायपर’ खरीदा या किस बीमारी की बाबत दवाएं खरीदीं? आखिर क्यों सरकार और उसकी तमाम एजेंसियों की पहुंच आंकड़ों के जरिए हमारी निजी जिंदगी तक हो? मेरा खयाल है, इससे पहले कि सभी तरह के मौद्रिक लेन-देन के लिए डिजिटल तरीका देश पर थोप दिया जाए, इन सवालों पर बहस की जरूरत है।‘कैशलेस इंडिया’ एक मरीचिका है। यह ध्यान बंटाने की तरकीब है। इसे कोई ऊंचा या वांछनीय लक्ष्य भी नहीं कहा जा सकता।