वह कोहरा फिर से दिल्ली, एनसीआर ही नहीं उत्तर भारत के कई हिस्सों में छाता जा रहा है, जो धुएं से मिलकर एक खतरनाक मिश्रण बनता है, जिसे स्मॉग कहते हैं। यह स्मॉग ट्रेनों, वायुयानों और सामान्य ट्रैफिक के आवागमन में बाधा तो पैदा करता ही है, साथ ही प्रदूषण को एक खतरनाक स्तर तक ले जाता है। सर्दी आते ही इन तमाम शहरों के बच्चे-बूढ़े सब इसी स्मॉग के चलते खांसते नजर आते हैं। पिछले कुछ साल से हम इस स्मॉग से मुक्ति का तरीका ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। आमतौर पर ऐसे हालात पैदा होते ही तेज हवा या बारिश का इंतजार किया जाता है, ताकि कोहरा हवा और पानी में घुल जाए। इन दिनों यह चर्चा भी चल पड़ी है कि अगर स्मॉग बनने लगे, तो इससे निपटने के लिए सरकार को कृत्रिम वर्षा का सहारा लेना चाहिए। हालांकि इसकी सफलता पर अभी कई संदेह भी हैं।
बादलों पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव कर कृत्रिम वर्षा करवाने के प्रयास कई देशों में हो चुके हैं, लेकिन आमतौर पर ये प्रयास सूखे के संकट को दूर करने के लिए हुए हैं। इसलिए इस प्रस्ताव पर पैसा खर्च करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि अब तक के इन प्रयासों का अनुभव क्या रहा? चीन, ऑस्टे्रलिया, फ्रांस जैसे देशों में ऐसे प्रयास हुए तो बहुत हैं, पर इन्हें विशेष सफलता नहीं मिली है। यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि जिस समय चाहे, कृत्रिम वर्षा करवाई जा सकती है। कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ाने के लिए कुछ परिस्थितियों की मौजूदगी जरूरी है। फिर इससे कई दूसरी समस्याएं पैदा होने का खतरा भी रहता है।
चीन में कृत्रिम वर्षा के अधिक प्रयास इस कारण हो सके, क्योंकि वहां लोकतांत्रिक विरोध की संभावना कम है। अन्यथा एक स्थान पर बादलों से कृत्रिम वर्षा करवाने का विरोध आसपास के अन्य स्थानों पर इस आधार पर हो सकता है कि इससे उनके यहां वर्षा की संभावना कम हो गई है। वहां कृत्रिम वर्षा के कुछ प्रयासों को सफल कहा गया, पर विरोधियों ने यह सवाल उठाया कि कोई गारंटी नहीं है कि वह वर्षा सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव से ही हुई। हो सकता है कि वह प्राकृतिक वर्षा हुई हो। वैसे यह कोई नई तकनीक नहीं है, लगभग 50 वर्षों से इस तरह के छिटपुट प्रयास होते रहे हैं। अमेरिका में इसके लिए विशेष तरह का ड्रोन विमान भी बनाया गया है।
भारत में कृत्रिम वर्षा के प्रयास तमिलनाडु, कर्नाटक व महाराष्ट्र में छिटपुट तौर पर हो चुके हैं। सूखे से राहत दिलाने के लिए की गई ऐसी कोशिशों से बड़ी राहत अभी तक तो नहीं मिल सकी है। जिस तरह हाल के समय में देश के अनेक क्षेत्रों में सूखे की समस्या बहुत गंभीर रूप में उपस्थित हुई, ऐसी स्थिति में कृत्रिम वर्षा की बात करते ही यह बहुत लोकप्रिय हो जाती है। कृत्रिम वर्षा के कुछ प्रयोग युद्ध में भी किए गए हैं। कहा जाता है कि वियतनाम युद्ध में वियतनाम के गुरिल्ला सैनिकों को परेशान करने करने के लिए अमेरिका ने उनके क्षेत्रों में अत्यधिक कृत्रिमवर्षा करवाने के प्रयास किए। इसे रासायनिक युद्ध की श्रेणी में भी गिना जाता है। इस जल्दबाजी में कई बार यह मुख्य बात भुला दी जाती है कि किन स्थितियों की मौजूदगी में कृत्रिम वर्षा को करवाने की संभावना बढ़ती है। ऐसा नहीं कि कहीं भी व जब चाहा कृत्रिम वर्षा करा ली। प्रतिकूल स्थितियों की तो बात रहने दें, कई बार अनुकूल स्थितियों में भी कृत्रिम वर्षा हो पाएगी या नहीं, यह निश्चित नहीं होता।
दिल्ली में जिस मौसम में कोहरा होता है, उस मौसम में आमतौर पर बारिश के लिए स्थितियां अनुकूल नहीं होती और जब अनुकूल होती हैं, तब कोहरा बिल्कुल भी नहीं होता। इसलिए यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि प्रदूषण से निपटने का काम कृत्रिम बारिश के जरिये हो सकता है या नहीं। कृत्रिम वर्षा की तकनीक भले ही काफी समय से उपलब्ध है, लेकिन यह अभी अपने प्रारंभिक दौर में है। यह लगातार विकसित हो रही है, पर अभी इतनी विकसित नहीं हुई कि पूरे भरोसे से इसके बारे में कुछ भी कहा जा सके। इसके बारे में अभी न तो बड़े दावे करने का समय आया है, न ही इस पर बहुत भरोसा करने का। अब भी सबसे बेहतर यही है कि हम सीधे प्रदूषण से लड़ाई लड़ें, उसे छिपाने के तरीकों पर ज्यादा भरोसा न करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)