तब कैसे याद किए गए थे अंबेडकर- रामचंद्र गुहा

चौदह अक्तूबर, 2016 को भीम राव अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने की 60वीं सालगिरह थी। मगर यह मौका राजनीतिक वर्ग के संज्ञान से अछूता रहा, खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नजरों से, जो मौजूदा दौर में देश के दो सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं और जिन्होंने हाल के महीनों में अंबेडकर की बढ़-चढ़़कर तारीफें की हैं। जहां तक मुझे दिखा, न तो सोनिया या राहुल गांधी ने, न किसी बड़े क्षेत्रीय नेता ने ही इस अवसर पर अंबेडकर को याद किया, बल्कि माक्र्सवादी नेताओं ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अंबेडकर ने हिंदुत्व को त्याग दिया था, यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे न तो भाजपा और न ही कांग्रेस हमें याद दिलाना चाहेगी; और चूंकि उन्होंने अनीश्वरवाद की बजाय एक अन्य धर्म (बौद्ध) को अपना लिया था, इसलिए माक्र्सवादी भी इस दिवस को महत्व नहीं ही देते।

आज छह दिसंबर है। बी आर अंबेडकर की 60वीं पुण्यतिथि। उनके धर्मांतरण दिवस के उलट आज उन्हें बड़े पैमाने पर तमाम पार्टियों के नेताओं द्वारा श्रद्धांजलि दी जाएगी। लेकिन जब 1956 में अंबेडकर की मौत हुई थी, तब उसे किस रूप में देखा गया था? तब उनकी मृत्यु पर राजनीतिकों और बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया कैसी थी? उन्होंने अंबेडकर की विरासत के बारे में तब क्या कुछ कहा था? अंबेडकर ने छह दिसंबर, 1956 की सुबह दिल्ली में अपनी आखिरी सांसें ली थीं। उस पूरे दिन उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। उनके सम्मान में संसद की कार्यवाही स्थगित किए जाने से पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ‘संविधान-निर्माता’ बताते हुए कहा था कि ‘संविधान बनाने की राह में खड़ी दुश्वारियों से जिस तरह अंबेडकर निपटे और इसका जैसा ख्याल उन्होंने रखा, वैसा कोई और नहीं कर सकता था।’ हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार को लेकर अंबेडकर की दिलचस्पी का जिक्र करते हुए नेहरू ने कहा कि हमें इस बात का ‘संतोष है कि इस सुधार की दिशा में बड़े पैमाने पर उठाए गए कदमों को अंबेडकर ने देखा था, भले ही ये कदम हूबहू वैसे नहीं थे, जैसा कि उन्होंने खुद ड्राफ्ट किया था, मगर थोड़ी-बहुत तब्दीलियों के साथ ये उठाए जा चुके हैं।’ कुल मिलाकर, नेहरू ने कहा कि अंबेडकर को सबसे अधिक इस बात के लिए याद किया जाएगा कि ‘वह एक ऐसे व्यक्ति थे, जो हिंदू समाज की अन्यायपूर्ण परंपराओं के खिलाफ डटकर खड़े हुए।’

फिर कांग्रेस पार्टी की तीखी आलोचना व विरोध करने वाले अंबेडकर के इसी पार्टी की सरकार में मंत्री बनने के विरोधाभास पर नेहरू ने कहा, ‘जब हमने उन्हें सरकार में शामिल होने का न्योता दिया, तब कुछ लोग चौंक गए, क्योंकि माना जाता था कि अंबेडकर की सामान्य गतिविधियां विरोधी पक्ष सरीखी हैं, न कि सरकारी पक्ष जैसी। फिर भी, मैंने तब यही महसूस किया कि उन्होंने संविधान बनाने में काफी सकारात्मक रोल निभाया है, वह आगे भी सरकारी गतिविधियों में वैसी ही भूमिका निभाएंगे और उन्होंने वाकई ऐसा ही किया।’नेहरू की श्रद्धांजलि का पहला हिस्सा काफी उदारतापूर्ण था, जिसमें उन्होंने अंबेडकर को हिंदुत्व की दमनकारी व्यवस्थाओं के प्रतिरोध का प्रतीक-पुरुष बताया, हालांकि दूसरे हिस्से में विनम्र कृपा-भाव था, जिसमेंप्रधानमंत्री ने अपने ऊपर ध्यान खींचते हुए यह बताने की कोशिश की कि किस तरह से उन्होंने विरोधी नेताओं को भी अपनी सरकार में शामिल किया था।

इस आलेख के सिलसिले में मैंने जिन भी स्रोतों को खंगाला, उनमें से किसी में मुझे भारतीय जनसंघ या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी नेता की कोई ऐसी टिप्पणी देखने को नहीं मिली, जिसमें अंबेडकर को श्रद्धांजलि दी गई हो। ऐसा लगता है कि उन्होंने खामोशी बरत ली थी। अलबत्ता, जिस एक हिंदू कट्टरपंथी की प्रतिक्रिया मिली, वह हिंदू महासभा के एन सी चटर्जी थे। उनकी श्रद्धांजलि नेहरू के मुकाबले अधिक कृपा-भाव से पोषित थी। चटर्जी ने कहा, अंबेडकर ‘आधुनिक भारत के महानतम हिंदू नेताओं में से एक थे।’ चटर्जी ने कहा कि किस तरह दयानंद सरस्वती, गांधी और सावरकर जैसे हिंदुओं ने ‘हरिजन भाइयों व बहनों के उद्धार के लिए काम किया। लेकिन यह डॉक्टर अंबेडकर थे, जिन्होंने अस्पृश्यता के अभिशाप के मारों के स्वत:स्फूर्त आंदोलन को एक नया आधार दिया।’

हिंदू महासभा के इस नेता ने अंबेडकर की जाति-प्रथा विरोधी मुहिम के दो महत्वपूर्ण पहलुओं को कम करके आंका। एक तो यही कि उन्होंने इसे ‘स्वत:स्फूर्त’ बताया और अन्यायपूर्ण व दमनकारी हिंदू समाज-व्यवस्था के बारे में अंबेडकर की तमाम बौद्धिक आलोचनाओं को नजरअंदाज कर दिया। दूसरा यह कि एन सी चटर्जी ने अंबेडकर के हिंदू धर्म त्यागने को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया। अंबेडकर को ‘महानतम हिंदू नेताओं में से एक’ बताना बेईमानी ही कही जाएगी, क्योंकि 1935 से ही उन्होंने खुद को हिंदू मानना बंद कर दिया था, और जब वह मरे, तब बाकायदा एक बौद्ध थे। अब जरा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की श्रद्धांजलि पर गौर कीजिए।

1949-50 में प्रसाद ने अंबेडकर (और नेहरू) के हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार-प्रयासों का तीखा विरोध किया था। मगर उसके छह साल बाद प्रसाद ने अंबेडकर को ‘हमारे संविधान के शिल्पकार’ और ‘महान व्यक्तित्व’ बताया। अंबेडकर के गृह प्रांत के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाई बी चह्वान ने उन्हें माटी का लाल बताया और उनकी मौत को देश व खास तौर से बॉम्बे सूबे का भारी नुकसान बताया। लेकिन सबसे अहम आकलन तब के युवा नेता मधु दंडवते की तरफ से आया। उन्होंने अंबेडकर को ‘एक महान विद्वान, बड़ा शिक्षाशास्त्री, आजाद भारत के संविधान का शिल्पकार, सामाजिक अन्याय का साहसिक विरोधी… और सामाजिक बदलाव की प्रखर शक्ति’ कहा। मैं समझता हूं कि अंबेडकर खुद भी इन उपलब्धियों को इसी क्रम में रखते। चटर्जी और प्रसाद की तरह नेहरू भी भूल गए कि अंबेडकर एक बड़े विद्वान थे। अंबेडकर को सबसे अच्छी श्रद्धांजलि मधु दंडवते ने दी थी।

 

अंबेडकर के पार्थिव शरीर को इंडियन एअरलाइन्स के विमान से ले जाया गया और दादर हिंदू कॉलोनी स्थित उनके घर पर रखा गया, जहां पूरे दिन लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहे। अगले दिन जुलूस के साथ शव को अंतिम संस्कार के लिए समुद्र किनारे ले जाया गया। शहर की आधे से ज्यादा टेक्सटाइल फैक्टरियां बंद हो गईं, क्योंकि कामगार अंबेडकर को श्रद्धांजलि देने के लिए कतारों में खड़े थे। मगर एक अनोखी श्रद्धांजलि अभी उन्हें दी जानी शेष थी।करीब50 हजार लोगों ने उसी दिन बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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