बिरसा मुंडा की विरासत– अनुज लुगुन

आनेवाले 15 नवंबर को महायोद्धा बिरसा मुंडा की 141वीं जयंती होगी. इसी तिथि को अलग राज्य के रूप में झारखंड की स्थापना हुई. यानी इस तारीख को बिरसा मुंडा को कई तरीकों से याद किया जायेगा. इस दिन झारखंड सरकार की ओर से बड़ा आयोजन होगा, आदिवासी हितों की घोषणाएं भी होंगी. लेकिन, बिरसा की विरासत क्या है? यह सवाल हर समय मौजूद रहेगा.

मुख्यधारा के इतिहास लेखन ने आदिवासी संघर्षों को उपेक्षा की नजर से देखा है. अब भी कई आदिवासी संघर्ष और उनके नायक स्वाधीनता संघर्ष के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गुमनाम हैं. बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में भी आदिवासी संघर्ष और उनके नायकों का जिक्र नहीं होता है. जबकि, आदिवासी लोक गीतों, कथाओं और स्मृतियों में उनकी उपस्थिति को सहज ही महसूस किया जाता है.

फिलहाल हम आदिवासी संघर्ष के उन स्वरूपों की चर्चा करेंगे, जिन्होंने सबसे पहले और सबसे ज्यादा औपनिवेशिक शक्तियों का प्रतिरोध किया है.

बिरसा मुंडा के ‘उलगुलान’ को असंतोष के परिणास्वरूप अचानक खड़ा हुआ विद्रोह नहीं कहा जा सकता है. किसी भी आदिवासी आंदोलन को सिर्फ तात्कालिक असंतोष कह कर उसके महत्व को कम कर नहीं देखा जाना चाहिए. इसके लिए पहले उनकी अपनी सामाजिक व्यवस्था को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए. आदिवासी समाज के बारे में विचारों की दुनिया में अब तक दो तरह का भ्रम देखने को मिलता है- एक तो यह कि वह जंगलों में रहता है.

आदिवासी ‘जंगली’ और ‘असभ्य’ हैं. दूसरा, कि वह ‘फल संग्राहक’ समाज है, और जंगल ही उनकी आजीविका का एक मात्र साधन है. इस विचार की वजह से ही आदिवासी समाज और उसके संघर्षों के सही मूल्यांकन में चूक हुई है. अगर बिरसा मुंडा का ‘उलगुलान’ ‘दिकु’ या शोषकों के विरुद्ध है, अगर बिरसा मुंडा ‘जंगल की दावेदारी’ पेश कर रहे हैं, तो वह ‘जंगल’ सिर्फ ‘जंगल’ नहीं है, वह ‘दृश्य’ नहीं है, बल्कि उसके अंदर एक पूरी व्यवस्था है, उसका दार्शनिक आधार और अपनी विशिष्ट जीवन शैली है.

‘आदिवासी भी किसान हैं’, इस बात की स्वीकृति बहुत कम देखने को मिलती है. आदिवासियों का किसानी समाज इस मामले में दूसरे किसानी समाज से थोड़ा भिन्न है कि आदिवासियों ने ‘जंगल’ और ‘कृषि’ दोनों को साथ-साथ रखा. एक उनकी दार्शनिकता का आधार है, तो दूसरा उनकी अर्थव्यवस्था का. बाह्य हस्तक्षेप ने उनकी इस व्यवस्था को ध्वस्त किया, जिसके परिणामस्वरूप उनके जीवन में जटिलताएं आती गयीं. बिरसा मुंडा के उलगुलान को समझने के लिए हमें सन् 1793 की स्थायी बंदोबस्ती की नीति या उससे पहले से हो रहे भूमि व्यवस्था के बदलाव एवं उसके सामाजिक प्रभाव को समझने का प्रयास करना होगा.

सन‍् 1766 का पहाड़िया विद्रोह, 1767 का चुआड़ विद्रोह, 1771 का चेरो विद्रोह, 1784 का तिलका मांझी का विद्रोह, 1782का तमाड़ विद्रोह, 1820 का कोल विद्रोह एवं हो विद्रोह,1831 का मुंडा विद्रोह, 1832 का भूमिज विद्रोह, 1837 की सेरेंगसिया घाटी की लड़ाई, 1855 का संताल हूल, सरदारी आंदोलन से लेकर 1900 में बिरसा की शहादत की घटनाओं को क्रमबद्ध रूप में देखें, तो आदिवासियों का विद्रोह एक ऐसे समाज का विद्रोह है, जिसकी अपनी सामाजिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था रही है. किसानी समाज के मूल्योंको समाहित किये हुए वह कथित मुख्यधारा के समाज से ज्यादा श्रमशील, समरस और प्रगतिशील रहा है. आदिवासी समाज के स्वाभिमान व स्वायत्तता को समझे बिना उनके संघर्ष की विरासत के मूल्यों को ग्रहण नहीं किया जा सकता है.

बिरसा मुंडा का संघर्ष आदिवासी किसानी समाज का संघर्ष रहा है. उनका संघर्ष एक ऐसी व्यवस्था से था, जो किसानी समाज के मूल्यों और नैतिकताओं का विरोधी था. जो किसानी समाज को लूट कर अपने व्यापारिक और औद्योगिक पूंजी का विस्तार करना चाहता था.

आजादी के बाद हमने बिरसा मुंडा की शहादत को तो याद रखा, लेकिन हम उसके मूल्यों से दूर होते गये. हमारी सत्ताएं उसी व्यवस्था की पोषक होती गयीं, जिनके विरुद्ध हमारे योद्धाओं ने लड़ाई लड़ी. आज आदिवासी समाज किसानी समाज के मूल्य और पूंजीवादी समाज के मूल्य के बीच का संघर्ष है.

चूंकि हमारे देश में क्रांति नहीं हुई और आजादी के बाद पूंजी की दिशा में समाज का एक ध्रुवीय विस्तार होता गया, इसने फिर से उस पुराने द्वंद्व को आज हमारे सामने ला खड़ा किया है. हमारी व्यवस्था किसानी समाज और औद्योगिक समाज के बीच संतुलन बनाने के बजाय एक ध्रुवीय होकर केवल औद्योगिक मूल्यों का प्रसार करना चाहती है. चूंकि अब सत्ता पर किसानी नेतृत्व नहीं रह गया है, इसलिए बहुत तेजी से किसानी मूल्यों को राजनीति के परिदृश्य से भी गायब किया जा रहा है.

इसी का परिणाम है कि वैसे संवैधानिक प्रावधान जो किसानी हितों की रक्षा करते थे, वे सब तेजी से या तो संशोधित किये जा रहे हैं या खत्म किये जा रहे हैं. हाल के दिनों में हुए सीएनटी एक्ट का संशोधन इसी का परिणाम है. इसी का परिणाम है कि पेसा (पीइएसए) जैसे जनहितकारी कानून भी लागू नहीं हो रहे हैं. अलग झारखंड राज्य के गठन के बाद यहां की राजनीति ने ‘उलगुलान’ के विचार को कभी आगे नहीं बढ़ाया, बल्कि उसका पूरा ध्यान खदान-खनन की ठेकेदारी, टेंडर पर केंद्रित हो गया. झारखंड से पलायन की मूल वजह भी यही है. अनियंत्रित और अबाध बाहरी हस्तक्षेप ने यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना को छिन्न-भिन्न कर दिया है.

आज की वैश्विक दुनिया में पूंजीवादी समाज सभी प्राकृतिक स्रोतों पर कब्जा कर लेना चाहता है. अब यह साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर नव-उपनिवेश को जन्म दे रहा है और इसका सबसे बड़ा खतरा किसानी समाज पर ही मंडरा रहा है. ऐसे में बिरसा मुंडा की शहादत को याद करना प्रतिरोध के उन स्वरों को जीवित रखना है, जो सहभागी और सहजीवी मूल्यों के पक्षधर हैं.

जो लाभ पर नहीं, बल्कि साझेपन पर यकीन करते हैं. जब तक समाज से औपनिवेशिक शक्तियों को पराजित नहीं कर दिया जाता है, तब तक प्रतिपक्ष ही बिरसा मुंडा की विरासत का कर्णधार होगा. निस्संदेह यह प्रतिपक्ष किसी सदन का विपक्ष नहीं, बल्कि समाज के हाशिये में खड़े वंचितों का पक्ष है.

 

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