गंगोत्री ग्लेशियर का बिगड़ता मिजाज- ममता सिंह

ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में ग्लेशियरों का पिघलना कोई अचरज की बात नहीं रह गई है। हर साल ग्लेशियरों का दायरा सिकुड़ने और समुद्र की सतह कुछ उठ जाने के आंकड़े आते रहते हैं। मगर उससे भी महत्त्वपूर्ण बात अब तक ग्लेशियरों के बचाव की दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठाया जाना है। मौजूदा हालात में सर्वाधिक चिंता का विषय यही है। अभी हाल के वाडिया इंस्टीट्यूट आॅफ हिमालयन जियोलॉजी के हिमनद विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में इस बात का खुलासा किया है कि करीब एक सौ उनचास वर्ग किलोमीटर में फैले, कभी लुभावने नीले रंग का दिखने वाले गंगोत्री ग्लेशियर का रंग अब प्रदूषण की वजह से काला पड़ रहा है। इसकी सतह पर कार्बन और कचरे की काली परत जम गई है। केवल इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों ने अपने नए अनुसंधान में यह भी पाया है कि हिमालय का यह सबसे बड़ा ग्लेशियर उन्नीस मीटर प्रति वर्ष की गति से सिकुड़ता जा रहा है।


दरअसल, अपने देश के लिए सबसे अहम बात यह है कि गंगोत्री ग्लेशियर गंगा का उद्गम होने की वजह से गंगोत्री धाम में लाखों की संख्या में श्रद्धालु हर साल यहां पहुंचते हैं। साथ ही विदेशी पर्यटक भी सैर-सपाटे के मकसद से यहां आते रहते हैं। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की वजह से ग्लेशियर का मुहाना गोमुख काफी पहले ही बह चुका है और अब तो वैज्ञानिकों ने नए शोध के जरिए संकेत दिया है कि इस ग्लेशियर के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। गंगोत्री ग्लेशियर के माइक्रो क्लाइमेट में तेजी से बदलाव आ रहा है। रिसर्च में स्पष्ट कहा गया है कि अगर प्रदूषण और तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो आने वाले दिनों में स्थिति और ज्यादा बिगड़ेगी।


गंगोत्री ग्लेशियर समुद्र तल से 3950 मीटर की ऊंचाई पर है। वर्ष 2002 में यहां चौबीस फुट बर्फबारी रिकार्ड की गई थी, जबकि वर्ष 2015 में सिर्फ 24 सेंटीमीटर बर्फबारी ही देखी गई। गंगोत्री ग्लेशियर बहुत सारे ग्लेशियरों का एक समूह है। इसमें मुख्यतया तीन ग्लेशियर रक्तवर्ण, चतुरंगी और कीर्ति हैं। बीते पच्चीस सालों में इसकी लंबाई लगभग 890 मीटर तक कम हुई है। ऐसा होना न केवल वैज्ञानिकों, बल्कि प्रकृति प्रेमियों के लिए भी चिंता का विषय है। हाल के अध्ययन ने गंगोत्री ग्लेशियर पर उत्पन्न हुए संकट के लिए न केवल ग्लोबल वार्मिंग को दोषी ठहराया है, बल्कि उक्त क्षेत्र में बढ़ रहे इंसानी दखल को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना है। गंगोत्री ग्लेशियर के खराब स्वास्थ्य का असर गंगा जैसी सदानीरा नदियों पर भी पड़ना लाजिमी है।


अध्ययन के मुताबिक पिछले डेढ़ सौ सालों में गंगोत्री ग्लेशियर अपने मुहाने से चार किलोमीटर पीछे तक खिसक गया है। गंगा नदी को जल से भरने वाला गंगोत्री ग्लेशियर कमजोर पड़ गया है। इस नए शोध के पहले जलवायु वैज्ञानिकों की एक टीम ने वर्ष 2000 से लेकर 2012 तक की अवधि में बर्फ और मौसम संबंधी मानकों के विश्लेषण में भी यह पाया है कि दस साल के दौरान अधिकतम और न्यूनतम तापमान में क्रमश: 0.9 डिग्री सेल्सियस और 0.05 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इनदस वर्षों के दौरान वार्षिक बर्फबारी में 38 सेंटीमीटर की कमी का खुलासा भी हुआ है। गंगोत्री क्षेत्र में अधिकतम तापमान 9.8 डिग्री सेल्सियस से लेकर 12 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। जबकि न्यूनतम तापमान शून्य से 1.5 डिग्री नीचे से लेकर शून्य से 2.9 डिग्री सेल्सियस नीचे के बीच रहता है। वर्ष 2002 में इस क्षेत्र में 416 सेंटीमीटर सबसे ज्यादा हिमपात हुआ था। वर्ष 2004 और 2009 में यह बहुत कम, क्रमश: 157 और 138 सेंटीमीटर दर्ज किया गया था।


गंगोत्री ग्लेशियर का एक हिस्सा इस साल जुलाई में भी टूट कर भागीरथी नदी में समा गया था। टूटे ग्लेशियर के बारे में अभी वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं, हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लेशियर में आई दरारों और बारिश का पानी जमा होने की वजह से इस तरह की घटनाएं हुई होंगी, लेकिन वैज्ञानिक पड़ताल के बाद ही साफ हो पाएगा कि असलियत क्या है। वैज्ञानिकों के मुताबिक वर्ष 2012 में गंगोत्री ग्लेशियर का एक टुकड़ा टूट कर गिरा था, लेकिन उसका पता नहीं चल पाया। जानकार बताते हैं कि हिमखंड उस टुकड़े को बहा कर अपने साथ ले गए थे। गंगोत्री ग्लेशियर में गोमुख के ऊपर बड़ी दरारें अब भी देखने को मिली हैं।


वर्ष 2013 में उत्तराखंड जल प्रलय के दौरान भी इस तरह की कोई घटना देखने को नहीं मिली थी। इसका मतलब साफ है कि भविष्य में कोई भी बड़ी घटना यहां घट सकती है। गंगोत्री ग्लेशियर में हो रहे परिवर्तन का सबसे पड़ा कारण वैज्ञनिक इंसानी दखल को ही मान कर चल रहे हैं। असल में तपोवन का रास्ता गोमुख के ऊपर से होकर गुजरता है। धार्मिक पर्यटन के नाम पर ज्यादा से ज्यादा लोग वहां जाने लगे हैं, जिसका दुष्परिणाम अब दिख रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर को सबसे पहले वर्ष 1780 में मापा गया था। उसके बाद से हर साल उन्नीस मीटर की दर से यह ग्लेशियर पिघल रहा है। इसके अतिरिक्त यहां पर बाईस छोटे-छोटे ग्लेशियर हैं और वे भी प्रभावित हो रहे हैं। गंगा का मंदिर, सूर्य, विष्णु और ब्रह्मकुंड जैसे पवित्र स्थल भी यहीं आसपास हैं, इसलिए धार्मिक लोगों की आवाजाही इस क्षेत्र में बनी रहती है।


इसके अलावा हिमनद विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि इस साल मार्च में उत्तराखंड सहित हिमालयी राज्यों के जंगलों में भयानक आग लगी थी। ऐसे में ग्लेशियर भी धुंए के रूप में कार्बन डाई-आक्साइड गैस की चपेट में हैं। जबकि अभी यह गैस वायुमंडल में ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही है। अब जैसे ही बारिश होगी, वैसे ही ब्लैक कार्बन के कण नीचे आकर ग्लेशियर पर परत की तरह बिछ जाएंगे। इनसे ऊर्जा का संचार होगा और ग्लेशियर के पिघलने की गति बढ़ जाएगी। इसका असर तात्कालिक नहीं, बल्कि दूरगामी देखने को मिलेगा। इसका अर्थ सहजता से यह लगाया जा सकता है कि निकट भविष्य में गंगोत्री ग्लेशियर पर और ज्यादा खतरा बढ़ने की संभावना है। बात सिर्फ गंगोत्री ग्लेशियर की नहीं है। भारत सरकार ने भी स्वीकार किया है कि करीब दो सौ अड़तालीस ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जबकि उन्नीस ग्लेशियरों का आकार तेजी के साथ बढ़रहाहै।


केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के साथ मिल कर वर्ष 2011 से 2014 के बीच हिमालय के ग्लेशियरों का एक अध्ययन कराया था, जिसमें यह पता चला कि हिमालयी क्षेत्रों में करीब 34,919 ग्लेशियर हैं, जो 75,779 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। अध्ययन में इस बात का भी जिक्र है कि 1752 ग्लेशियरों में कोई परिवर्तन नहीं दिखा है, जबकि अठारह ग्लेशियरों के हिमाच्छादित क्षेत्र का विस्तार हुआ है। भारत सरकार ने स्पष्ट कहा है कि देश के ज्यादातर ग्लेशियर हर साल सात से इक्कीस मीटर की दर से पिघल रहे हैं।


ग्लेशियर बनने में हजारों साल लगते हैं। जब वे सिकुड़ना शुरू करते हैं तो उसके चलते मौसम का मिजाज भी प्रभावित होता है। ग्लेशियरों के पिघलने के चलते आने वाले समय में वर्षा और भी कम होने की संभावना है। ग्लेशियरों के पिघलने की वजह ग्लोबल वार्मिग तो है ही, पहाड़ों पर मानवीय गतिविधियां बढ़ना भी इसकी बड़ी वजह है। पर्यटन और धार्मिक यात्राओं को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ों पर बेजा मानवीय गतिविधियां बढ़ रही हैं। इसलिए न केवल सरकारों को, बल्कि धार्मिक पर्यटकों और अन्य सैलानियों को भी यहां पर होने वाली मानवीय दखल से बचाना होगा, तभी जाकर ग्लेशियरों की सुरक्षा हो पाएगी। अकेले सरकार कुछ नहीं कर सकती।


गंगोत्री ग्लेशियर की रंगत पहले की तरह बरकरार रहे और ज्यादा कालापन न हो, इसलिए सरकार ने वैज्ञानिक रिपोर्ट आने के तुरंत बाद गंगोत्री क्षेत्र में चंद रोज पहले ही यह तय किया है कि एक दिन में डेढ़ सौ से ज्यादा श्रद्धालु और सैलानी गंगोत्री धाम नहीं जा सकते हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की केंद्रीय विशेषज्ञ समिति ने इस पर तुरंत मुहर भी लगा दी और भागीरथी इको सेंसिटिव जोन में बाईस मार्गों पर ही पर्वतारोहण को मंजूरी भी दे दी है। देश भर में खेल को बढ़ावा देने के नाम पर अनेक एजेंसियां पर्वतारोहण का आयोजन करती हैं। इसी तरह सैलानियों को हेलीकॉप्टरों, गंडोला वगैरह के जरिए ग्लेशियरों पर पहुंचाने का प्रबंध किया जाता है।


इस तरह ग्लेशियरों पर हर रोज ढेर सारा गलनीय-अगलनीय कचरा फैल जाता है। लोगों के आवागमन से वहां का तापमान बढ़ता है। इसलिए नियम बनाया गया था कि पर्यटकों द्वारा अपने साथ ले जाने वाले प्लास्टिक के सामान की गिनती की जाए। साथ ही यह भी शर्त लगाई गई कि जितना सामान श्रद्धालु साथ ले गए हैं लौटते समय उन्हें उतना वापस लाना भी होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है। इस पर कड़ी निगरानी की आवश्यकता है। गंगोत्री ग्लेशियर पर कार्य कर रहे वैज्ञनिक डॉ. मनोहर अरोड़ा के मुताबिक ग्लेशियर में तापमान माइनस से दो डिग्री सेल्सियस और अधिकतम आठ डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। अभी बर्फ पिघल रही है, लेकिन भगीरथी के पानी में गाद (सिल्ट) नहीं आ रही है। जबकि ग्लेशियर से पिघल कर निकलने वाले पानी में गाद होती है। दुनिया भर में ग्लेशियरों के पिघलने पर चिंता जताई जा रही है। गंगोत्री ग्लेशियर को बचाने के लिए सख्ती से कदम उठाने की जरूरत है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *