ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ खड़ा एक गांव– पंकज चतुर्वेदी

एक छोटा-सा गांव, जिसकी आजीविका और अर्थव्यवस्था पर्यटन से चलती हो, उसने पर्यावरण के खतरे को महसूस किया। उसने मान लिया कि प्रकृति है, तभी उसका जीवन है, और इसके लिए जरूरी है कि जीवनशैली सुधारी जाए। यह है सिक्किम से 125 किलोमीटर दूर उत्तरी सिक्किम का गांव लाचेन। गांव ने तय किया है कि अब वहां न बोतल में बंद पानी आएगा, न प्लास्टिक या थर्मोकोल के डिस्पोजेबल बर्तन। कभी यह गांव पूरे साल ठंडा रहता था। ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ डल्टन हुकर ने सन 1855 मेें द हिमालयन जर्नल में इसे दुनिया का सबसे सुंदर गांव घोषित किया था।

तिब्बत पर चीन के अधिकार से पहले भी, 1950 के आस-पास लाचेन सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। बाद में यह क्षेत्र लंबे समय तक आम लोगों के लिए बंद रहा। सीमा पर स्थिति सामान्य होने के साथ ही पर्यटक यहां फिर से आने लगे हैं। राज्य सरकार ने इसे ‘हेरीटेज विलेज’ घोषित किया है। बढ़ते पर्यटकों और पैसे की गरमी के बीच पता ही न चला कि कब उनके बीच गरमी एक मौसम के रूप में आकर बैठ गई। मच्छर बढ़ने लगे। बारिश कम या बेमौसम होने लगी। पर्यटकों के वाहनों का धुंआ अपना असर दिखाने लगा। बर्फ गिरनी कम हो गई। पहाड़ों से क्षरण होने लगा। समाज को पानी के संकट का अंदेशा भी लगा। गांव की संरक्षक झील गुरुडोंगमार की धारा कब सिकुड़ गई, पता ही नहीं चला।

हालात हाथ से निकलने लगे, तो समाज को अपनी गलतियां याद आईं। समझ आया कि यह वैश्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय असर है, जिससे गांव व समाज का अस्तित्व संकट में है। इसके बाद गांव में पानी की प्लास्टिक बोतलों पर पाबंदी लगाई गई। समाज ने जिम्मा लिया कि लोगों को साफ पेयजल वह स्वयं उपलब्ध कराएगा। डिस्पोजेबल प्लेट पर भी पाबंदी लगी। अब तो लोग बायो-डिग्रेडेबल कचरा स्वयं अलग करके उसका निबटान भी खुद करने लगे हैं। गांव वाले ही निगरानी करते हैं कि ऐसी कोई प्लास्टिक की चीज वहां आने न पाए। बोतलबंद पानी लाना और बेचना अपराध है। पर्यटकों को बैरियर पर ही इससे आगाह कर दिया जाता है।

 

अब यह सब कानून से ज्यादा स्वयं के अनुशासन और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष में परिवर्तित हो चुका है। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के बाद यह दुनिया का पहला ऐसा स्थानीय निकाय है, जहां बोतलबंद पानी पर पाबंदी लगी है। यह बानगी है कि हमारे पहाड़ों के पर्यटन-स्थलों से शुरुआत की जाए, तो साल-दर-साल बढ़ रहे पानी की बोतलों के प्लास्टिक कचरे से निजात पाने का बड़ा काम हो सकता है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज जिस तरह ‘साफ पानी’ के लिए बाजार के फेर में फंसकर खुद को ठगा महसूस करता है, ऐसे में, उत्तरी सिक्किम का लाचेन गांव उम्मीद की एक किरण जगाता है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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