विज्ञान पत्रिका ‘नेचर जियोसाइंस’ का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि सिंधु और गंगा नदी के मैदानी क्षेत्र का तकरीबन साठ फीसद भूजल प्रदूषित हो चुका है। उसका दावा है कि चार दक्षिण एशियाई देशों में फैले इस विशाल क्षेत्र का पानी न तो पीने योग्य बचा है और न ही सिंचाई योग्य। हालत यह है कि कहीं भूजल सीमा से अधिक खारा हो चुका है तो कहीं उसमें आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। आंकड़ों में कहा गया है कि दो सौ मीटर की गहराई पर मौजूद भूजल का बड़ा हिस्सा प्रदूषित हो चुका है वहीं तेईस फीसद भूजल अत्यधिक खारा हो चुका है। सैंतीस फीसद भूजल में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। गौरतलब है कि भारत, बांग्लादेश व नेपाल स्थित गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी का मैदानी क्षेत्र सिंधु-गंगा मैदान अर्थात इंडो-गैंगेटिक बेसिन कहलाता है। इसका क्षेत्रफल तकरीबन 25.50 करोड़ हेक्टेयर है।
इस क्षेत्र में विश्व के कुल भूजल का करीब पच्चीस फीसद हिस्सा संग्रहीत है जो पीने के अलावा सिंचाई के काम आता है। लेकिन जिस तेज गति से इसका भूजल प्रदूषित हो रहा है और आर्सेनिक की मात्रा बढ़ रही है वह आने वाली आपदा का ही सूचक है। आर्सेनिक एक जहरीला तत्त्व होता है जो प्राकृतिक रूप से भूजल में पाया जाता है। लेकिन मौजूदा समय में अत्यधिक खनन और रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण भूजल में आर्सेनिक की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक शोध में कहा गया है कि आसेर्निक-युक्त भूजल के उपयोग से सत्तर देशों के करीब 13.7 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हैं। इसके उपयोग से डायरिया, उल्टी, खून वाली उल्टियां, पेशाब में खून आना, बाल गिरना और पेट दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साथ ही इससे फेफड़े, त्वचा, किडनी और लिवर प्रभावित होते हैं।
गौरतलब है कि प्रदूषित भूजल में खतरनाक रोग उत्पन्न करने वाले जीव पाए जाते हैं जो स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। प्रदूषित भूजल में पाए जाने वाले विषाणु पीलिया, पोलियो, गैस्ट्रो इंटराइटिस और चेचक जैसे रोगों को जन्म देते हैं वहीं जीवाणुओं द्वारा अतिसार, पेचिस, मियादी बुखार, हैजा, सूजाक व क्षय रोग उत्पन होते हैं। आर्सेनिक के अलावा प्रदूषित भूजल में कैडमियम, सीसा, मरकरी, निकल तथा सिल्वर की मात्रा भी बढ़ जाती है जो सेहत के लिए बेहद खतरनाक साबित होती है। प्रदूषित भूजल में लोहा, मैंगनीज, कैल्सियम, बेरियम, बोरान व अन्य लवणों जैसे नाइट्रेट, सल्फेट, बोरेट और कार्बोनेट आदि की अधिकता भी मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक आंकड़े के मुताबिक हर आठ सेकेंड में एक बच्चा प्रदूषित भूजल के सेवन से काल का ग्रास बन रहा है। हर साल पचास लाख से अधिक लोग दूषित भूजल के सेवन से मौत के मुंह में जा रहे हैं।
गौर करें तो यहां समस्या भूजल का प्रदूषित भर होना नहीं है। भूजल स्तर में लगातार गिरावट भी देखने को मिल रही है। इसलिए कि भारत में भूजल का वितरण सर्वत्र एक समान नहीं है। कुछ क्षेत्रों में तो भूजल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जबकि अन्य क्षेत्रों में इसकी कमी है। भूजल संबंधीऐसी वितरण व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए ताकि जल-हानि न हो और जल प्रदूषित होने से बच जाए। यह समझना होगा कि भूजल जल-आपूर्ति का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है जिसका उचित उपयोग और संरक्षण होना चाहिए। इसलिए और भी कि भारतीय उपमहाद्वीप में भूजल का व्यवहार अत्यधिक जटिल है। जीईसी 1997 के दिशा-निर्देशों व संस्तुतियों के आधार पर देश में स्वच्छ जल के लिए भूजल संसाधनों का आकलन किया गया। देश में कुल वार्षिक पुन: पूरणयोग्य भूजल संसाधनों का मान 433 घन किमी है। प्राकृतिक निस्सरण के लिए 34 बीसीएम जल स्वीकार करते हुए शुद्ध वार्षिक भूजल उपलब्धता का मान संपूर्ण देश के लिए 399 बीसीएम है। वार्षिक भूजल का मान 231 बीसीएम है जिसमें सिंचाई उपयोग के लिए 213 बीसीएम तथा घरेलू व औद्योगिक उपयोग के लिए जल का मान 18 बीसीएम है।
भारत के जल संसाधन पर नजर दौड़ाएं तो भारत में विश्व के जल संसाधनों का चार फीसद भाग पाया जाता है। इसका लगभग एक तिहाई भाग वाष्पीकृत हो जाता है तथा पैंतालीस फीसद भाग ढाल के अनुरूप बह कर तालाबों, झीलों और नदियों में चला जाता है। वर्षण से जल की जो थोड़ी-सी मात्रा यानी तकरीबन बाईस फीसद मृदा में प्रवेश कर भूमिगत हो जाती है उसे भौम जल या भू-जल कहा जाता है। धरातलीय जल तथा पुनर्भरण योग्य भूमिगत जल से 1,869 घन किमी जल उपलब्ध है और इनमें से केवल साठ फीसद यानी 1,121 घन किमी जल का लाभदायक उपयोग किया जाता है। भूजल पीने के पानी के अलावा पृथ्वी में नमी बनाए रखने में भी मददगार साबित होता है। पृथ्वी पर उगने वाली वनस्पति तथा फसलों का पोषण भी इसी जल से होता है।
यहां यह भी जानना जरूरी है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में सालाना मीठे व स्वच्छ पानी की खपत अधिक होती है। विश्व बैंक के विगत चार साल के आंकड़ों के अनुसार घरेलू, कृषि व औद्योगिक उपयोग के लिए प्रतिवर्ष 761 अरब घन मीटर जल का इस्तेमाल होता है। मौजूदा समय में पानी की कमी बढ़ गई है और उसका मूल कारण भूजल का दूषित होना है। भौगोलिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो भारत के पठारी भाग भूजल की उपलब्धता के मामले में कमजोर हैं। यहां भूजल कुछ खास भूगर्भिक संरचनाओं में पाया जाता है, जैसे भ्रंश घाटियों और दरारों के सहारे। वहीं दूसरी ओर उत्तरी भारत के जलोढ़ मैदान हमेशा से भूजल में संपन्न रहे हैं। लेकिन अब उत्तरी व पश्चिमी भागों में भूजल के तेजी से दोहन से अपूर्व कमी देखने को मिल रही है।
भूजल के स्तर में गिरावट महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड या बिहार के सीतामढ़ी तक सीमित नहीं है। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में भूजल स्तर सत्तर फीसद तक नीचे पहुंच चुका है। आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान समय में भारत के 29 फीसद विकास खंड भूजल के दयनीय स्तर पर हैं। ऐसा माना जा रहा है कि 2025 तक लगभग साठ फीसद विकास खंड चिंतनीय स्थिति में आ जाएंगे। हालांकि देश में जल संरक्षण तथा प्रबंधन कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए समय-समय पर अनेकउपायकिए गए हैं। मसलन 1945 में केंद्रीय जल आयोग का गठन किया गया, जो राज्यों के सहयोग से देश भर में जल संसाधनों के विकास, नियंत्रण, संरक्षण तथा समन्वय को आगे बढ़ाता है। 1970 में केंद्रीय भू-जल बोर्ड का गठन किया गया। बोर्ड का मुख्य कार्य भू-जल संसाधनों के प्रबंधन, स्थायी व वैज्ञानिक विकास के लिए प्रौद्योगिकियों को विकसित करना तथा राष्ट्रीय नीति की निगरानी में उन्हें वितरित करना है।
इसी तरह 1980 में राष्ट्रीय जल बोर्ड तथा 2006 में भू-जल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए सलाहकार परिषद का गठन किया गया। 2012 में राष्ट्रीय जल नीति तैयार की गई, जिसके तहत सुनिश्चित किया गया कि जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वर्षा का प्रत्यक्ष उपयोग व अपरिहार्य वाष्पोत्सर्जन को कम करने का प्रयास होगा। देश में भूजल संसाधन की मात्रा व गुणवत्ता की स्थिति का पता लगाया जाएगा। जलवायु परिवर्तन के अनुरूप जल संसाधनों के संरक्षण तथा अनुरूप प्रौद्योगिकी विकल्प को आजमाया जाएगा। औद्योगिक परियोजनाओं की खातिर जल उपयोग के लिए परियोजना मूल्यांकन व पर्यावरणीय अध्ययन का विश्लेषण किया जाएगा।
लेकिन सच तो यह है कि इन प्रयासों के बावजूद भारत में जल संरक्षण व प्रबंधन के लिए व्यापक स्तर पर संचालित कार्यक्रम परिणाम की दृष्टि से प्रभावी साबित नहीं हुए है। भूजल के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए एक स्पष्ट प्रभावी कानूनी ढांचे का अभाव बना हुआ है। नतीजतन, भूजल न सिर्फ बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है बल्कि उसके स्तर में भी भारी गिरावट आ रही है। हैरान करने वाली बात है कि इस गहराते संकट का असर दिखने के बाद भी बचाव के लिए कोई कारगर पहल नहीं हो रही है। नतीजतन हर वर्ष अरबों घन मीटर भूजल प्रदूषित हो रहा है। यह समझना होगा कि भारत सालाना जल उपलब्धता के मामले में चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से बहुत पीछे है। ऐसे में अगर गिरते भूजल को बचाने और प्रदूषित होने से रोकने के समुचित उपाय नहीं किए गए तो हालात खतरनाक स्तर तक पहुंच सकते हैं।
उचित होगा कि सरकार प्रदूषित होते और गिरते भूजल की समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालीन उपायों के साथ ही कुओं व तालाबों के संरक्षण, सिंचाई के स्रोतों के विकास और जल स्रोतों के पुनर्जीवन के बारे में ‘जल मित्रों’ के जरिए जनभागीदारी के साथ जागरूकता फैलाने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों को गति दे। घटते भूजल संसाधनों के संवर्धन के लिए समुद्र में प्रवाहित होने वाले अतिरिक्त वर्षा अपवाह का संरक्षण करे और फिर उसकी सहायता से पुन: पूरण द्वारा भूजल संसाधनों में वृद्धि करे। जलाशयों के जल का समय-समय पर परीक्षण करा नियमित सफाई सुनिश्चित करे। जनसाधारण में जल प्रदूषण के प्रति जागरूकता फैलाए। तटवर्ती भागों में समुद्री जल का निर्लवणीकरण करके जल का विभिन्न कार्यों में प्रयोग करे। राष्ट्रीय स्तर पर भूजल प्रदूषण की रोकथाम के लिए योजना बना कर उसका प्रभावी क्रियान्वयन करने की भी जरूरत है। इसे हर पल याद रखना चाहिए कि भूजल समस्त वनस्पतियों, पशुओं तथा मानव जीवन का आधार है।