कुपोषण से कैसे लड़ सकते हैं– रीतिका खेड़ा

हाल ही में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2016 में 118 देशों की सूची में भारत को 97वें स्थान पर रखा गया है। हममें से जो लोग भारत में भूख और पोषण से संबंधित मुद्दों की उपेक्षा के लिए चिंतित रहते हैं, उनके लिए ये आंकड़े बड़ी खबर हैं, जिसने मीडिया का भी ध्यान खींचा है।

कुपोषण एक ऐसी समस्या है, जो विभिन्न पीढ़ियों में पाई जाती है। एक कुपोषित मां द्वारा एक कम वजनी, एनीमिया पीड़ित, छोटे कद के बच्चे को जन्म देने की ज्यादा संभावना होती है। यह ऐसी समस्या नहीं है, जिससे आसानी से निपटा जा सकता है, जैसा कि भूख के लिए कहा जाता है। इसके अलावा अल्पपोषण या कुपोषण सिर्फ अपर्याप्त भोजन या पोषक तत्वों की कमी की समस्या नहीं है। इससे लड़ने के लिए सिर्फ पर्याप्त भोजन की ही नहीं, बल्कि उचित स्वास्थ्य दखल (जैसे, सुरक्षित प्रसव की सुविधा, प्रतिरक्षण यानी टीकाकरण), स्वच्छ पेयजल, सार्वजनिक स्वच्छता और सफाई आदि की भी जरूरत है।

फिर भी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 में चार घटक ऐसे हैं, जो भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने में थोड़ी मदद कर सकते हैं। पहला, इसमें जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत दो तिहाई आबादी को रियायती दरों पर सस्ते अनाज का हकदार बनाया गया है। हालांकि यह सच है कि 2000 के दशक तक पीडीएस से रिसाव एक बड़ी समस्या थी, यह भी सही है कि भ्रष्टाचार से लड़ने में कई राज्यों ने प्रगति की है। वर्ष 2011-12 (इसी वर्ष तक का प्रतिनिधित्व आंकड़ा उपलब्ध है) के एक अनुमान के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में रिसाव की दर घटकर 10 फीसदी पर आ गई, जो 2004-05 में 50 फीसदी थी, ओडिशा में 75 फीसदी से घटकर 20 फीसदी पर आ गई और बिहार में रिसाव की दर 90 फीसदी से घटकर 20 फीसदी पर आ गई। तबसे लगता है कि ज्यादा राज्यों में पीडीएस में सुधार के लिए काम किया गया है। जून, 2016 में किए एक सर्वे में हमने पाया कि मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल में भी रिसाव दर घटकर दस फीसदी से नीचे आ गई है।

दूसरा, खाद्य सुरक्षा कानून ने बच्चों के लिए दो कार्यक्रमों को शामिल किया है-छह साल तक के बच्चों के लिए समेकित बाल विकास सेवा योजना (आईसीडीएस) और स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन योजना (एमडीएम)। चिकित्सा एवं पोषण संबंधी शोधों से पता चलता है कि गर्भ में भ्रूण से लेकर जन्म के एक हजार दिनों तक का समय बच्चों के पोषण के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। अगर शुरुआती कुछ वर्षों में बच्चे को कुपोषण से नहीं बचाया गया, तो बाद के प्रयासों के सफल होने की संभावना बहुत कम होती है। इससे आईसीडीएस और एमडीएम योजनाओं की महत्ता का पता चलता है। इन कार्यक्रमों के तहत बच्चों को पौष्टिक भोजन दिया जाता है, यह तत्काल सुनिश्चित करने की जरूरत है। बजट कटौती की कोशिश, बार-बार रिसाव संबंधी खबरें, तीन वर्ष तक के बच्चों के लिए घर पर राशन के बदले पहले से ही पैक खाना या नकदी देने संबंधी मंत्रालय की घोषणा से यह संकेत मिलता है कि इन कार्यक्रमों कोलेकर राजनीतिक प्रतिबद्धता, जो शुरू से ही कम रही है, पिछले दो-तीन वर्षों में घटी है। बच्चों को अंडा या काला चना देने की राज्यों की सफल पहल (ओडिशा एवं तमिलनाडु में) की उपेक्षा की जा रही है। इन योजनाओं के मेन्यू में अंडा देने के प्रस्ताव को कुछ राज्यों ने खत्म कर दिया है। अंडा काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें विटामिन सी को छोड़कर बाकी सभी पोषक तत्व होते हैं।

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, खाद्य सुरक्षा कानून में सार्वभौमिक मातृत्व हक के सिद्धांतों को मान्यता दी गई है। इसके तहत आदर्श रूप में महिलाओं को छह महीने के वेतन के बराबर मुआवजा दिया जाना चाहिए, लेकिन इस कानून में प्रति बच्चा छह हजार रुपये देने का प्रावधान किया गया है। यह काफी कम है, लेकिन अब तक इसे भी लागू नहीं किया गया है। पायलट योजना के तहत जिन 50 से ज्यादा जिलों में इस प्रावधान को खाद्य सुरक्षा कानून के पारित होने से पहले शुरू किया गया था, वह अब भी जारी है। ओडिशा और तमिलनाडु ने अपने बजट से यह पहल शुरू की।

मीडिया ने मातृत्व लाभ संशोधन विधेयक पारित होने पर काफी शोर मचाया, जिसमें महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश बढ़ाया गया, पर शायद ही किसी ने इस तथ्य के बारे में टिप्पणी की कि इसका लाभ सिर्फ उन्हीं दस फीसदी महिलाओं को मिलेगा, जो नियोजित क्षेत्र में काम करती हैं। महिलाओं की एक बड़ी आबादी को किसी तरह का संरक्षण प्राप्त नहीं है। फील्ड सर्वे के दौरान हमें ऐसी कई महिलाएं मिलीं, जिन्हें प्रसव के कुछ ही दिनों बाद कठिन मेहनत वाले काम पर जाना पड़ा। ऐसी महिलाओं को नकद मुआवजा देने से उनकी जरूरतें तो पूरी होंगी ही, उनके बच्चों को भी फायदा होगा।

यह याद करने की जरूरत नहीं है कि भाजपा ने एक कमजोर खाद्य सुरक्षा कानून लाने के लिए यूपीए-दो की आलोचना की थी। भाजपा के दिग्गजों मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज ने इसे मजबूत करने के लिए संसद में कुछ संशोधन सुझाए थे; तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को खुला पत्र लिखकर एनएफएसए को अपर्याप्त बताया था।

अब वही भाजपा सत्ता में है, तो इस कानून को और भी कमजोर करने जा रही है। संदिग्ध आधार पर पौष्टिक खाद्य वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है, मातृत्व हक प्रावधान को लागू करने के बारे में कोई बात नहीं कर रहा, इन कार्यक्रमों के केंद्रीय बजट में कटौती की कोशिश हो रही है। पीडीएस, जिसने भ्रष्टाचार से लड़ने की शुरुआत की थी, उसे अब आधार कार्ड के साथ जोड़ा जा रहा है, जिससे कुछ लोगों को इससे वंचित किया जा रहा है, व्यवधान पैदा होता है और एक बार फिर भ्रष्टाचार के लिए दरवाजा खुल रहा है। ये कार्यक्रम एक बड़ी आबादी के लिए जीवनरेखा हैं और सरकार अपने जोखिम पर उन्हें नजर अंदाज कर रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *