हमारे शहर संक्रामक रोगों के कब्जे में हैं। राजधानी दिल्ली तक इनसे नहीं बची है। डेंगू, चिकनगुनिया, बर्ड फ्लू, टायफायड, स्वाइन फ्लू जैसे तमाम रोग तेजी से फैल रहे हैं। मैं खुद पिछले दो वर्षों में चिकनगुनिया व स्वाइन फ्लू का शिकार बन चुका हूं। इन बीमारियों का फैलना कोई नई प्रवृत्ति भी नहीं है।
23 सितंबर, 1994 का दिन याद कीजिए। उस दिन सूरत के कई हिस्सों में न्यूमोनिक प्लेग के फैलने की खबर आई थी। अस्पताल मरीजों की भीड़ को संभालने की जद्दोजहद में जुटे थे। महज एक सप्ताह में इसके लक्षण वाले मरीजों की संख्या बढ़कर 1,061 हो गई। आम लोग भयभीय हो गए। वहां से पलायन करने लगे। तब सूरत की करीब एक चौथाई आबादी (लगभग सात लाख लोग) शहर छोड़ गई थी। लोग अपने साथ यह रोग अन्य जगह भी लेते गए, जिसने बाद में दिल्ली, मुंबई, नासिक, यहां तक कि कोलकाता में भी पैर पसार लिया। हालत यह थी कि हीरा उद्योगों के कारण गुलजार रहने वाले सूरत के तमाम इलाके वीरान-से हो गए थे। लंदन में उतरने वाले एअर इंडिया के विमानों को ‘प्लेग प्लेन’ कहा जाने लगा था। और तो और, मानसून के बाद खुली नालियों, मलिन बस्तियों व चारों तरफ पसरे कचरे के कारण सूरत किसी ‘मध्ययुगीन हॉरर शो’ की तरह डराने लगा था।
कुछ ऐसा ही कर्नाटक के बीदर जिले में हुआ। नौ मई, 2016 को इसके बर्ड फ्लू से संक्रमित होने की खबर आई। यहां मोलकेरा गांव के पोल्ट्री फार्म से कुछ मामले सामने आने के बाद दहशत फैल गई थी। हालांकि, कनार्टक का पशुपालन विभाग तत्काल हरकत में आ गया और एहतियातन करीब डेढ़ लाख मुर्गों को मारने के आदेश दे दिए गए। अब हालात से निपटा जा चुका है, लेकिन बार-बार होने वाले ये मामले चौंकाते हैं, मुश्किलें पैदा करते हैं। दरअसल, वक्त-बेवक्त ऐसी बीमारियों के उभरने का बड़ा कारण स्वच्छता का अभाव है।
साफ-सफाई पर न तो गुलाम भारत में पर्याप्त ध्यान दिया गया और न ही आजादी के बाद। 1907 में प्लेग से देश में 13 लाख जानें गई थीं। बावजूद इसके बरतानिया राज का मुख्य ध्यान हैजा पर रहा। उसने स्वच्छता को लेकर जो थोड़ा-बहुत काम किया भी, वह सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए कि सैनिक और नौकरशाह कहीं इसकी चपेट में न आ जाएं। साफ-सफाई सुनिश्चित करने के लिए म्युनिसपैलिटी को अधिक फंड मुहैया कराने की बजाय अंगरेजों ने मैला ढोने को बढ़ावा देना शुरू किया। इसके बाद तो तमाम अक्षमता का ठीकरा उन लोगों पर फोड़ा जाने लगा, जो गरीबी की वजह से मैला ढोने को विवश थे। दुख की बात है कि आज भी यही हो रहा है। हमारी नगरपालिकाओं व नगर निगमों में यह बीमारी कायम है।
भारत में स्वच्छता के प्रति चिंता आज भी गंभीर विषय है। स्थिति यह है कि 90 फीसदी ठोस कचरा सीधे-सीधे लैंडफिल एरिया में फेंक दिया जाता है। भारी धातु की निगरानी की माकूल व्यवस्था तक नहीं है। अब चंडीगढ़ का ही उदाहरण लें। इसे उत्तर भारत का एक बेहतर और योजनाबद्ध शहर माना जाता है। यहां प्रतिदिन औसतन 370 टन ठोस कचरा पैदा होता है, मगरठोस अपशिष्ट प्रबंधन बजट का मात्र सात-आठ फीसदी ही कचरा-संग्रहण पर खर्च किया जाता है। नतीजतन 70 फीसदी पंजीकृत घरों, 20 फीसदी मलिन बस्तियों और आसपास के गांवों से ही कचरा इकट्ठा हो पाता है। इसके सभी 56 सेक्टरों के लिए सिर्फ 10-15 सफाईकर्मी हैं, जिनमें से अधिकतर डायरिया, पीलिया और ट्रेकोमा जैसे परजीवी रोगों से जूझते रहते हैं। इनके पास न तो ऐसे संसाधन हैं कि ये ठोस कचरे के सीधे संपर्क में आने से बचें और न ही इन्हें अपने रोजगार से जुड़े स्वास्थ्य-संबंधी खतरों का एहसास है।
यह सच है कि घरों से निकलने वाले कचरे में काफी ज्यादा हिस्सा सड़ने वाला होता है, लेकिन हम आज तक घर के अंदर उसे बाकी कचरे से अलग करने का इंतजाम नहीं कर पाए। हमें ऐसे कचरे से खाद बनाने को बढ़ावा देना चाहिए। दूसरी-तीसरी श्रेणी के शहरों में सब्जी और मिश्रित कचरे के निपटारे के लिए बायोमिथेनेशन प्लांट लगाने को भी बढ़ावा मिलना चाहिए। मुश्किल यह है कि घरों से कचरा उठाने का भी आजतक कोई औपचारिक तरीका नहीं अपनाया गया। आमतौर पर सफाईकर्मी ही तय करते हैं कि वे कब आएंगे और कहां आएंगे? नतीजतन, अधिकतर कचरा इधर-उधर फेंक दिया जाता है या अनियंत्रित तरीके से निपटाया जाता है। कई बार तो इसमें आग लगा दी जाती है।
आखिर इससे बचने का उपाय क्या है? चंडीगढ़ और सूरत जैसे शहर ही हमें इसकी राह दिखाते हैं। चंडीगढ़ ठोस अपशिष्टों के एकीकृत प्रबंधन को विकसित करने पर तेजी से ध्यान दे रहा है। इसके तहत घरों में ही कचरे को अलग-अलग करने और उसके भंडारण की योजना है। इसके अलावा, कचरे की रिसाइकिलिंग, खाद-निर्माण और बिजली-उत्पादन को भी बढ़ावा दिया जाएगा। सूरत भी कचरा-संग्रहण और गली-सड़कों की साफ-सफाई के मामले में सार्वजनिक स्वास्थ्य का अगुआ बन गया है। यहां रेस्तरां में साफ-सफाई की अलग व्यवस्था की गई है। मलिन बस्तियों में शौचालय बनाए गए हैं। 489 निगरानी कार्यकर्ता हैं, जो बीमारियों की हालत पर निगरानी रखते हैं।
इन कर्मियों ने साल 2014 में 23 लाख ऐसी जगहों की पड़ताल की, जहां मलेरिया के मच्छरों के पनपने की आशंका थी। यहां के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने 41 हेल्थ सेंटर बनाए हैं, जिनको मोबाइल हेल्थ क्लीनिक और 500 से ज्यादा निजी अस्पतालों का साथ मिलता है। गली-मोहल्लों से कचरा इकट्ठा करने का समय तय है, और हर सफाईकर्मी के लिए एक इलाका भी तय है। जगह-जगह डस्टबिन रखे गए हैं और गंदगी फैलाने वालों पर दंड की भी व्यवस्था है। इन्हीं तमाम कोशिशों का नतीजा है कि मलेरिया, फाइलेरिया जैसे मच्छर-जनित रोग यहां अब तेजी से कम हो रहे हैं।
हालांकि, दक्षिण एशिया में श्रीलंका एक उल्लेखनीय उदाहरण है, जो हाल ही में मलेरिया मुक्त देश घोषित हुआ है। मच्छर से पैदा होने वाले रोगों से निपटने के लिए इस मुल्क ने उन इलाकों में मोबाइल मलेरिया क्लीनिक खोले, जहां इसका संक्रमण काफी ज्यादा था। साथ ही, स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा व नागरिक जागरूकता को बढ़ावा दिया गया और लोगों को प्रभावशाली व त्वरित चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराई गईं। नतीजतन, जहां साल 2006 में इस देश में मलेरिया के एक हजार के करीब मामले सामने आएथे,2012 में वह लगभग शून्य हो गया।
अपने यहां भी ऐसा संभव है। प्रभावी कचरा प्रबंधन तंत्र बनाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। भोपाल में हुआ एक अध्ययन बताता है कि सफाईकर्मियों की सीमित संख्या, कचरे-डिब्बे की बदहाली, कचरा ढोने वाली गाड़ियों का खराब रखरखाव और कचरा-निपटान की उचित व्यवस्था का न होना कचरा प्रबंधन की व्यवस्था को बदहाल बनाता है। व्यवस्थित सोच की कमी आज भी बड़ा मसला है। जनता की सीमित भागीदारी और सीमित संस्थागत बजट का संकट भी जस का तस बना हुआ है। रही-सही कसर बेहतर नीति की कमी पूरा कर देती है। ऐसे में, राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत तो है ही, उचित निगरानी और संस्थागत मदद की भी दरकार है। तभी हमारे शहरों की तस्वीर बदल सकेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)