आरक्षण को लेकर आंदोलनरत मराठों की यह मांग ठीक उसी प्रकार की है जैसी हरियाणा के जाटों और गुजरात के पाटीदार पटेलों ने की थी। पटेलों और जाटों के जैसे ही मराठा भी मूलत: एक कृषक जाति है, पर आज के वर्तमान नव-उदारवादी दौर में खेती-किसानी पर छाए आर्थिक संकट ने मराठा जाति को अपने भविष्य के प्रति आशंकित कर दिया है। ऐसा नहीं है कि संपूर्ण मराठा कौम इस संकट से जूझ रही हो। मराठा जाति चुनावी राजनीति में सदा से केंद्रीय भूमिका में रही है। राज्य के राजनीतिक अर्थशास्त्र में यह जाति नियंत्रणकारी स्थिति में रहती आई है। मगर वर्तमान नवउदारवादी दौर में कुछ मुट्ठी भर मराठा परिवारों ने तमाम संसाधनों और अवसरों को हथिया लिया है। मंत्रालयों, सहकारी समितियों और बैंकों से लेकर सहकारी गन्ना मिलों और निजी क्षेत्र के उद्यमों तक इस समुदाय के एक अभिजात तबके ने अपना वर्चस्व बनाया हुआ है। बहुसंख्यक मराठा कौम आज शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसरों से स्वयं को वंचित महसूस कर रही है। अकाल, भुखमरी और बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं और बाजार में उत्पादन लागत भी न मिल पाने जैसी व्यवस्थागत खमियों से जूझता एक मराठा किसान आज खेती-किसानी से मुक्ति पाना चाहता है, पर कोई वैकल्पिक रोजगार उसके पास नहीं है। इस प्रकार एक आम मराठा का हक मारने वाले लोग उसी के समाज के उच्च अभिजात तबके से आते हैं। पर शीर्ष मराठा नेतृत्व ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए परदे के पीछे से वह हर संभव कोशिश की है, जिससे मराठा जाति के अंदर का असंतोष और आक्रोश समस्या के वाजिब कारणों की ओर न होकर अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को प्राप्त आरक्षण विषयक विशेष सुविधाओं की दिशा में मोड़ा जा सके।
अगर बात यहीं तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, लेकिन मराठा समुदाय के जातिवादी पूर्वाग्रहों को भी उनके असंतोष के शमन के लिए उभारा जा रहा है। निकट अतीत में भी भूस्वामी पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल तमिलनाडु आदि में अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को कमजोर करने या हटाए जाने की मांग कोलेकर धरना-प्रदर्शन करते आए हैं। इस पूरे मामले में ग्रामीण कृषि संबंध भी ध्यातव्य हैं। भूमिहीन खेत मजदूर दलित और आदिवासी समुदायों से आते हैं और मनरेगा आदि राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजनाओं और शिक्षा से आती जागरूकता के चलते भूस्वामी जातियों से इनका टकराव दिनोंदिन उग्र होता जा रहा है। ब्राह्मण आदि उच्च जातियों के नगरवासी हो जाने से अब मुकाबला सीधे-सीधे दलित मजदूरों और भूस्वामी पिछड़ी जातियों के बीच हो रहा है। और यह भी सच है कि कुछ गिनती के मराठा लोगों के पास ही गांव की अधिकतर जमीनें हैं, शेष बहुसंख्यक मराठा जाति में तो छोटी जोत वाले किसान हैं या भूमिहीन मजदूर हैं। पर मराठा जाति के ये बड़े भूस्वामी अपना आर्थिक-सांस्कृतिक वर्चस्व कायम रखने के लिए अपने मार्ग में बाधक बनने वले दलित-आदिवासी संरक्षक अत्याचार निवारण अधिनियम की कानूनी अड़चन को ही जड़ से उखाड़ देना चाहते हैं। इसलिए अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के दुरुपयोग का मिथ्या राग अलाप कर वे इसे खारिज कराना चाहते हैं।
अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को उखाड़ फेंकने के लिए लामबंद होते ये मराठा जलूस उस वर्गीय खाई को अनदेखा करने की साजिश का हिस्सा हैं, जिसके चलते उच्च वर्गीय मराठा समुदाय का वर्गीय आधिपत्य खतरे में पड़ सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान मराठा असंतोष कृषि पर छाए संकट से उपजा है और यह स्वत:स्फूर्त है, लेकिन अधिकतर टिप्पणीकार यह भी स्वीकार कर रहे हैं राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और शिवसेना जैसे मराठा अस्मिता को भुनाने वाले राजनीतिक दल पूंजीवादी आर्थिक नीतियों से उपजे असंतोष को दिशाच्युत करके उसे दलित-विरोधी बना डालने की कुचेष्टा कर रहे हैं। इन रैलियों में पूरे महाराष्ट्र से जिस प्रकार लाखों लोग सड़कों पर उमड़ आए हैं, वह कृषि संकट और बेरोजगारी की भयावहता का साफ सूचक है लेकिन अदालतों के विभिन्न निर्णयों में यह साफ कर दिया गया है कि आर्थिक पैमाना पिछड़ेपन का निर्धारक नहीं हो सकता।
जहां तक अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को लेकर मराठा आदि के कथित असंतोष की बात है, तो इस अधिनियम का क्रियान्वयन महाराष्ट्र समेत पूरे देश में जमीनी स्तर पर बड़े ही सतही ढंग से हो रहा है। इसके तहत दर्ज मामलों में दोष सिद्धि की दर बहुत कम रहती है। अगर पढ़े-लिखे कुछ जागरूक और प्रभावी दलित वैधानिक विकल्प के रूप में इसे इस्तेमाल करना भी चाहते हैं, तो पुलिस इस अधिनियम के तहत आमतौर पर मामला दर्ज ही नहीं करती। पर अगड़ी जातियों और पिछड़ी जातियों का राजनीतिक नेतृत्व इन जातियों की दलित-विरोधी गोलबंदी के लिए उन्हें भरमाता है कि देखिए, अत्याचार निवारण अधिनियम का बेजा इस्तेमाल दलितों के द्वारा किया जाता है, जबकि इस पर कोई बात नहीं करता कि शिकायतकर्ता दलितों को कानून के शिकंजे में उलझाने के लिए डकैती और लूट के फर्जी मुकदमों में अगड़ी और पिछड़ी जातियों द्वारा आरोपी बनाया जाता रहा है।
स्पष्ट है कि मराठा राजनीतिक दल अपने समाज के बहुसंख्यक छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों के स्वत: उद्भूत आक्रोश को भोथरा करके अपने स्वार्थों के लिए उसे हथिया रहे हैं और वर्ग संघर्ष की इस लड़ाई को आरक्षणकीमांग और दलित-विरोधी आंदोलन में तब्दील कर देना चाहते हैं। वे अपने राजनीतिक हितों के लिए इस स्वत: प्रसूत क्षोभ को दलित बनाम पिछड़ा के खांचे में ढालना चाहते हैं। राज्य सरकार को कृषि क्षेत्र में जारी सतत संकट पर ध्यान देकर रोजगार सृजन की नीति पर चलना चाहिए। मराठा जाति की यह समस्या उस आर्थिक तंत्र से जुड़ी है, जो पूंजीवादी ताकतों के दबाव में हमने अपनाया है, इसलिए बिना व्यवस्थागत परिवर्तन के इस चुनौती का सामना नहीं किया जा सकता। आरक्षण का झुनझुना पकड़ाना या मराठों में दलितों के खिलाफ जहर भरना इस कृषक जाति की त्रासदी का कोई हल नहीं बन सकता।
मराठा जैसी दबंग कृषक जाति के दलित-विरोधी अतीत के मद्देनजर उनके वर्तमान आरक्षण आंदोलन को और अत्याचार निवारण अधिनियम खारिज करने की उनकी मांग को कोई कैसे न्याय और तर्क की कसौटी पर खरा साबित कर सकता है? यह पूरा आंदोलन दलित-विरोधी क्रूरता के इतिहास को उलटने और नकारने की जातिवादी साजिश है। अगर आज बहुसंख्यक मराठा जाति अच्छे शिक्षा संस्थानों, उच्च वेतन वाले तकनीकी रोजगार के अवसरों और उच्च गुणवत्तापूर्ण जीवन के अवसरों से स्वयं को वंचित पाती है, वर्तमान नवउदारवादी समय में स्वयं को ठगा पाती है, तो इसकी जड़ें अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे में हैं, न कि शिक्षा और आरक्षण से दलितों और आदिवासियों को प्राप्त होने वाले किंचित बेहतर अवसरों ने इनके अवसर छीने हैं। जिस प्रकार मराठों के सर्वभक्षक उच्च वर्ग द्वारा दलितों के खिलाफ बहुसंख्यक हताश मराठों के कान फूंके जा रहे हैं, उससे इस बात की पूरी आशंका है कि मराठा आंदोलन का यह अहिंसक शांत चरित्र अपने नीचे व्यापक दलित-विरोधी हिंसा की आग को छिपाए हुए है। यह शांति तूफान के आने से पहले की नाटकीय और अस्थायी शांति साबित हो सकती है। इस प्रकार की वर्चस्वशील ताकतवर जातियों के आंदोलनों में हम पहले भी हिंसा और क्रूरता के नग्न प्रदर्शन देखते आए हैं। हरियाणा के हालिया जाट आंदोलन में जिस प्रकार बड़े पैमाने दूसरे समुदायों के खिलाफ हिंसा हुई, निजी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, उसकी पुनरावृत्ति होने की आशंका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
जाटों और पटेलों समेत मराठों की यह लड़ाई वंचितों के न्याय की लड़ाई नहीं, बल्कि अपने वर्चस्व के सामने आसन्न पूंजीवादी खतरों और आशंकाओं को दूर करने के लिए चुनावी राजनीति और आंदोलनों के माध्यम से अनैतिक, पर संवैधानिक जोड़-तोड़ का प्रबंधन करना है, अपने हितों पर छाए संभावित खतरों से बचने के लिए इन जातीय हितों और सुविधाओं का बीमा करवाना है। क्षुद्र जातीय स्वार्थों की यह लड़ाई पहले से ताकतवर जातियों द्वारा और ज्यादा ताकत हासिल करना है। सामाजिक न्याय और उत्पीड़न से मुक्ति की जो शब्दावली दलित और आदिवासी आंदोलनों में अब तक हम देखते आए थे, ठीक वही शब्दावली कृषक लठैत जातियों के द्वारा हथिया ली गई है। मराठा आदि जातियों के इस राजनीतिक आंदोलन में आग्रह और याचिका की भाषा नहीं, बल्कि सीधे-सीधे धमकी और आदेश की भाषा है। मराठा आंदोलन के मूक मार्चों में उसी गांधीवादी हिंसक अहिंसा की धमक है, जिसका शिकार पूना समझौते में आंबेडकर को बनना पड़ाथा। दलित राजनीति ने हमारे लोकतंत्र को सार्वभौमिक नागरिक मूल्य दिए हैं, लेकिन ताकतवर कृषक जातियों के ये आरक्षण केंद्रित आंदोलन भारतीय लोकतंत्र को मूल्यविहीन संकीर्ण जातीय राजनीति में बदलने पर आमाद हैं।