कितने दाना मांझी– रघु ठाकुर

मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के आदिवासी बहुल करहल प्रखंड में कुपोषण के चलते बीते बारह सितंबर तक उन्नीस बच्चे मौत के शिकार हो चुके थे, लगभग सौ बच्चे बीमार थे, जिनमें छत्तीस बच्चे अस्पताल में भर्ती कराए गए थे। हो सकता है कि इसे बाकी खबरों की तरह एक सामान्य खबर मान कर लोग आगे बढ़ जाएं। लेकिन मेरे दिमाग में वह व्यवस्था घूम रही थी, जिसके जटिल तंत्र की वजह से उन लोगों को भी मरना पड़ता है, जिन्हें बचाया जा सकता था। जब यह खबर सुर्खियों में आ गई और सोशल मीडिया पर इसकी व्यापक चर्चा होने लगी, तब तंत्र सक्रिय हुआ और प्रखंड चिकित्सा अधिकारी ने जाकर स्थिति की जांच शुरू की और अपनी रिपोर्ट में कहा कि बच्चे कुपोषण से मरे।

कुपोषण का संबंध व्यक्ति की आर्थिक स्थिति से होता है और कुपोषण को दूर करने के नाम पर अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से लेकर भारत सरकार और सूबाई सरकारें करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं। फिर भी आदिवासी कुपोषण से मर रहे हैं। साफ है कि सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के कारण ही आदिवासी अंचलों में जो पोषण आहार आदि वितरित होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। मामले के तूल पकड़ने पर भोपाल से स्वास्थ्य सचिव और अन्य अधिकारी श्योपुर जांच के नाम पर ‘तीर्थाटन’ के लिए पहुंचे। इसके बाद एक नई रपट जारी हुई, जिसमें कहा गया कि बच्चे कुपोषण से नहीं, बल्कि कमजोरी से मरे हैं; कुपोषण और कमजोरी में फर्क है। शहडोल एक आदिवासी बहुल जिला है और वहां आमतौर पर आदिवासी रोजगार को लेकर परेशान रहते हैं। वहां की हालत यह है कि कई महीनों से मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों को मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है। यहां तक कि अपने मेहनताने के लिए उन्हें रिश्वत की मांग का सामना करना पड़ रहा है। अगर इतने दिनों तक मजदूरों को उनकी मजदूरी का पैसा न मिले तो उनके सामने खड़ी मुश्किलों का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन जो स्थिति मध्यप्रदेश में है, वही देश के अन्य प्रदेशों के गरीबों और आदिवासियों के साथ है।

हाल ही में मेरे सामने जब किसी तरह एक वीडियो सुर्खियों में आकर टीवी पर चलने लगा तो न केवल मेरे लिए, बल्कि शायद किसी के लिए भी अपनी संवेदनाओं पर काबू रखना संभव नहीं रह गया होगा। उस वीडियो के जरिए यह खबर दुनिया तक पहुंची कि ओड़िशा में एक आदिवासी दीना मांझी को अपनी पत्नी का शव अस्पताल से गांव ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिली और उसे वह शव अपनी रोती हुई बेटी के साथ चौदह किलोमीटर तक कंधे पर ढोकर पैदल जाना पड़ा। इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं चुपचाप चलती रहती होंगी। ओड़िशा में ही एक और घटना हुई, जहां एक आदिवासी महिला की रेल दुर्घटना में मृत्यु होने पर उसे पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल ले जाना था तो शव को गठरी में बांधने के लिए उसके पैर की हड्डी तोड़ी गई। जब यह खबर मीडिया में आई तो वहां के पुलिस अधिकारी ने बयान दिया कि यह परंपरा लंबे समय से चल रही है। मध्यप्रदेशमें एक और अमानवीय घटना दमोह में हुई, जहां बस में औरत की मृत्यु होने पर बस के ड्राइवर और कंडक्टर ने उस महिला की लाश और परिवार को बीच जंगल में उतार दिया। गरीबों और आदिवासियों के साथ ऐसी अमानवीय घटनाएं समूचे देश में घट रही हैं। उत्तर प्रदेश के कानपुर में भी एक गरीब व्यक्ति अपने बच्चे को सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए कंधे पर टांगे भटकता रहा और आखिर उस बच्चे की मौत हो गई।

केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक, विकास के बड़े बड़े दावे कितने खोखले और अमानवीय हैं, इसकी कल्पना करना मुश्किल है। व्यवस्था की यह अमानवीयता देश के दूसरे हिस्सों में भी आम है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की कई प्रजातियां समाप्तप्राय हैं, क्योंकि उनके पास न तो जीने की क्षमता है और न रोजगार का जरिया। 1993 में (अविभाजित मध्यप्रदेश में) रिवई पंडो की भूख से मौत का मामला समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ था। इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया गया। रिवई पंडो की मौत की चर्चा समूचे प्रदेश और देश में हुई। सरकार बदली, लेकिन हालात नहीं बदले। अब स्थिति यह है कि आदिवासियों की यह प्रजाति लगभग समाप्त हो रही है। राजनीतिक व्यवस्था उन हालात को पैदा करती है जो आदिवासियों और गरीबों को मौत की ओर धकेलते हैं। राजनीति केवल मौत की सौदागर बन जाती है। यह सही है कि अभी इन गरीबों और आदिवासियों में चेतना और संगठन नहीं है, लेकिन आखिर ऐसी निर्मम मौतों को वे कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे। सत्ताधीशों को सावधान होना चाहिए। वरना यह गरीबी और अमानवीयता की व्यवस्था गरीबों को कोई और रास्ता अख्तियार करने के लिए बाध्य करेगी।

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