डेढ़ दशक पहले जो जंग शुरू होकर खत्म हो गई थी, भारत की रेडियो तरंगों पर वर्चस्व बनाने की वह जंग इस बार मुकेश अंबानी और सुनील मित्तल के बीच उबाल पर है। रिलायंस जियो इंफोकॉम लिमिटेड के लांच के मद्देनजर भारती एयरटेल लिमिटेड ने अपने डेटा की दरों में कमी की और जियो की प्रायोगिक शुरुआत के विभिन्न पहलुओं के खिलाफ सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) के साथ मिलकर सरकार में लॉबिंग भी की। एयरटेल इस एसोसिएशन का अंग है और जिस पर काफी हद तक उसका नियंत्रण भी है।
तभी से ये दोनों कंपनियां कथित प्वॉइंट्स ऑफ इंटरकनेक्शन (पीओएल) यानी एक-दूसरे के नेटवर्क पर कॉल की सुविधा उपलब्ध कराने के मुद्दे पर आपस में बुरी तरह उलझी हुई हैं। जियो का आरोप है कि भारती एयरटेल उसे पर्याप्त प्वॉइंट्स नहीं दे रही, लिहाजा प्रतिदिन दो करोड़ कॉल मुहैया कराने में वह सफल नहीं हो पा रही। वहीं, भारती का जवाब है कि इस समस्या की वजह जियो के अपने नेटवर्क की गड़बडि़यां हैं। अब गेंद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के पाले में है, जो 15 सिंतबर से 19 सिंतबर तक की कॉल के आधार पर यह तय करेगा कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ? खबरें ऐसी भी हैं कि भारती एयरटेल अपने उपभोक्ताओं को जियो पर जाने से रोकने के लिए नंबर पोर्ट करने की सुविधा नहीं दे रही। अगर यह आरोप सही है, तो ट्राई इस पर भी कार्रवाई कर सकता है।
वैसे, पिछले हफ्ते इकोनॉमिक टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड को दिए अपने इंटरव्यू में सुनील मित्तल ने मेल-मिलाप का रुख दिखाया है। उनके जवाबों का सार यही है कि प्वॉइंट्स ऑफ इंटरकनेक्शन और नंबर पोर्टेबिलिटी ऐसी समस्याएं हैं, जो किसी नए प्रोजेक्ट की शुरुआत में आती हैं। इसे जल्दी ही सुलझा लिया जाएगा। भारती एयरटेल एक मजबूत कंपनी है, और जियो के खिलाफ यह अपनी पकड़ बनाए रखेगी।
मित्तल बिल्कुल सही हैं। रिलायंस इंडस्ट्री लिमिटेड के रसूख के सामने भारती ने तब भी अपनी पकड़ बनाए रखी थी, जब साल 2002 के अंत में रिलायंस इंफोकॉम को लांच किया गया था। तब भी, रिलायंस का मैदान में उतरना विवादास्पद था, क्योंकि कंपनी को सिर्फ फिक्स्ड टेलीफोन का लाइसेंस मिला हुआ था, जबकि इससे आगे बढ़कर उसने मोबाइल सेवा लांच की थी। भारती और अन्य कंपनियों ने इसके खिलाफ लामबंदी की और उस लांच को रोकने के लिए कानूनी सहारा भी लिया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। रिलायंस के आने से दरों को लेकर नई स्पर्द्धा शुरू हुई, जिससे भारत में मोबाइल टेलीफोन की टैरिफ दुनिया भर में सबसे कम हो गया और बाजार का विस्तार हुआ। बाद के पांच वर्षों में यह विस्तार तो करीब हर साल दोगुना या उससे ज्यादा हुआ।
आज भारती का दबदबा इस वजह से भी है, क्योंकि रिलायंस इंफोकॉम के पीछे लगा दिमाग व उसकी बड़ी ताकत मुकेश अंबानी और उनके छोटे भाई अनिल अंबानी साल 2004 के मध्य में रिलायंस साम्राज्य पर मालिकाना हक के लिए आपस में एक कटु लड़ाई में उलझ गए थे। साल 2005 में दोनों भाइयों ने मतभेद सुलझा लिए, और दूरसंचार उद्योग अनिल अंबानीके खाते में चला गया, मगर तब तक इसकी गति कुछ कमजोर जरूर हो गई थी।
मित्तल ने इस विवाद के ऊपर सार्वजनिक तौर पर कुछ भी नहीं कहा, मगर यह निश्चित रूप उनके लिए राहत देने वाली बात रही होगी। इस विवाद का फायदा एयरटेल को मिला। जाहिर है, तब भी, यह करीबी लड़ाई थी। 2000 के दशक की शुुरुआत तक भारतीय दूरसंचार क्षेत्र में मित्तल एक मजबूत शख्सियत के तौर पर उभर चुके थे। कभी जिलेटिन निर्माता रहे इस शख्स के लिए यह मामूली बात नहीं थी कि वह अंबानी, टाटा, बिड़ला, मोदी और गोयनका की बराबरी में खड़े रहे।
बीते वर्षों में, ऐसी अफवाहें भी तैरती रही हैं कि भारती एयरटेल पर दूरसंचार विभाग मेहरबान रहा है, हालांकि सबूतों के आधार पर ऐसा कहना आसान नहीं है। स्पेक्ट्रम नीति के अभाव में, रेडियो तरंगों का आवंटन अनौपचारिक रूप से ही होता था या फिर इसके लिए तात्कालिक नीतियां बनाई गईं। अगर इससे भारती को फायदा मिला, तो ऐसा ही लाभ दूसरी कंपनियों को भी हासिल हुआ है।
भारत में दूरसंचार नीति 1990 के शुरुआती वर्षों के बाद विकसित हुई है। इसने पांच ऐसे क्रांतिकारी बदलाव देखे हैं, जिन्होंने प्रभावी तरीके से इस उद्योग की गति को नए मोड़ दिए। पहला बदलाव 1999 में हुआ, जब सरकार ने दूरसंचार कंपनियों को यह अनुमति दी कि वे लाइसेंस शुल्क व्यवस्था से बाहर निकलकर राजस्व साझा करने वाली व्यवस्था अपनाएं। इस बदलाव का फायदा सभी दूरसंचार कंपनियों को मिला और इसने 2000 की दशक की दूरसंचार-क्रांति के लिए आदर्श स्थिति पैदा की। दूसरा बदलाव 2002-03 में हुआ, जब सरकार ने फिक्स्ड टेलीफोन लाइसेंस धारक दूरसंचार कंपनियों को मोबाइल सेवा मुहैया कराने की अनुमति दी। इसी ने रिलायंस इंफोकॉम की मोबाइल टेलीफोनी ऑपरेशन को कानूनी जामा पहनाया, जिसने इस सेवा की शुरुआत इस बदलाव से पहले ही कर दी थी। टाटा टेलीसर्विसेज लिमिटेड को भी इस बदलाव का फायदा मिला।
साल 2007-08 में तीसरा और उसके तुरंत बाद चौथा बदलाव आया, जब सरकार ने सीडीएमए प्लेटफॉर्म पर मोबाइल सेवा दे रही कंपनियों को महत्वपूर्ण जीएसएम प्लेटफॉर्म पर भी अपनी सेवा देने की इजाजत दी, और 1999 की उस नीति पर वापस लौटने का फैसला किया, जिसमें प्रत्येक सर्किल या ऑपरेटिंग एरिया में सिर्फ चार टेलीकॉम कंपनियों को उतरने की अनुमति थी। इस बदलाव का फायदा एक बार फिर रिलायंस कम्युनिकेशंस लिमिटेड (अनिल अंबानी के पास रिलायंस इंफोकॉम का अधिकार चले जाने के बाद कंपनी का नया नाम) और टाटा टेली सर्विसेज को मिला। इस क्षेत्र के कई नए खिलाडि़यों को भी इसका लाभ मिला, हालांकि इसने 2-जी घोटाले का मंच भी तैयार किया।
पांचवां बदलाव 2012 में हुआ, जब सरकार ने ब्रॉडबैंड वायरलेस लाइसेंस धारक कंपनियों को वॉयस सेवा मुहैया कराने की अनुमति दी। तब एक ही कंपनी के पास पूरे भारत का ब्रॉडबैंड वायरलेस लाइसेंस था, और वह कंपनी थी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड।
हर मामले में, ऐसा दिखा कि नीतियों में बदलाव तकनीक और उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया है। वास्तव में, इन दोनों के मद्देनजर ही नीतियां बनाई जानी चाहिए। हालांकि तमाम बदलावों का नुकसान पुरानी दूरसंचार कंपनियों को हुआऔरफायदा एक नई कंपनी को। एक कटु सच्चाई यह भी है कि कई कंपनियों ने अपनी बेहतरी के लिए खुद भी ज्यादा कुछ नहीं किया। पिछले वर्ष देश भर में किए गए एक सर्वे में मिंट ने पाया कि उनमें से कोई ‘अच्छी’ दूरसंचार कंपनी नहीं हैै, बल्कि सेवा के मामले में उन सभी में ‘खराब में सबसे खराब’ की होड़ है।
रिलायंस जियो की शुरुआत ने भारती और अन्य पुरानी दूरसंचार कंपनियों के लिए हालात प्रतिकूल बना दिए हैं। इन पुरानी कंपनियों ने अभी तक वॉयस कॉल फ्री नहीं की है, वे लगातार नेशनल रोमिंग चार्ज वसूल रही हैं और इन्होंने इनोवेटिव (और आक्रामक भी) डेटा-प्राइसिंस मॉडल को भी नहीं अपनाया है। जाहिर है, तुलनात्मक रूप से ही सही, जियो ने खुद को उपभोक्ता-हितैषी बनाने के लिए ये तीनों सुविधाएं अनिवार्य रूप से दी हैं।