अजब चिकनगुनियामय देश हमारा – मृणाल पांडे

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सहित पुणे, लखनऊ और चंडीगढ़ जैसे कई बड़े शहर इन दिनों चिकनगुनिया, डेंगू और तमाम तरह की बरसाती पानी के जलभराव से उपजी महामारियों के शिकार हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में तिल धरने की जगह नहीं, घर-घर लोग तड़प रहे हैं और तमाम उपलब्ध सरकारी-गैरसरकारी अस्पताल नाकाफी साबित हो रहे हैं। अधिकतर बीमार शहरी मलिन बस्तियों के वे गरीब हैं, जो हर तरह की नागर सुविधा : बिजली, पानी, सीवरेज या नियमित सफाई से महरूम हैं। बीमारी के वाहक मच्छर शुरू में इन्हीं जगहों से प्रकटे और अब सारे शहर में फैल चुके हैं तो हायतौबा मची है।

स्लम यानी झुग्गी बस्तियां आज दुनिया के लगभग हर बड़े, फैलते शहर में मौजूद हैं। हमारे लगातार स्मार्ट और मॉडर्न बनाए जा रहे शहरों के (घरेलू कामों से लेकर निर्माण क्षेत्र तक) के अधिकतर काम निबटाने वाले लोग इन्ही मलिन बस्तियों से हर सुबह निकलकर आते हैं और शाम को चुपचाप वापस उन्हीं में समा जाते हैं। फिर भी, कुछेक लोगों-संगठनों को छोड दें, तो अधिकतर शहरी इस क्षेत्र के योगदान को अनदेखा करते हुए इन अवैध बस्तियों पर सिर्फ लानतें ही भेजते रहते हैं। यह नहीं पूछते कि इनके लगातार बनने और फैलने की वजहें क्या हैं? क्यों लगातार पुलिस प्रशासन द्वारा धकियाये जाने और तमाम दिक्कतों के बावजूद लोग लगातार शहरों में आकर बस रहे हैं? केंद्र सरकार की झुग्गी झोपड़ी तथा जनगणना समिति के आंकडों के अनुसार 2001 की जनगणना में हमारे शहरों में मलिन और अवैध बस्तियों के बाशिंदों की तादाद जितनी ( 5 करोड़ 24 लाख) पाई गई थी, अब उससे कहीं अधिक (लगभग आठ करोड़) हो चुकी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार शहरों की 60 से 70 परिवारों वाली इंसानों के रहने के अयोग्य वह सघन बस्ती, जहां बिजली या पेयजल सरीखी नागरिक सुविधाओं तथा समुचित सेनिटेशन का अभाव हो, स्लम है। और इन स्लम बस्तियों में ही आज औद्योगिक प्रगति की राह पर चल निकले तमाम विकासशील देशों (ब्राजील से भारत तथा फिलीपींस तक) के महानगरों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, जिसने उन शहरों की भव्यता को गढ़ा व उनके वैध नागरिकों को सेवाएं दी हैं, बीमारियों तथा अपराधियों से घिरा नारकीय जिंदगी बिता रहा है।

शहरों में जब आर्थिक, सामाजिक गैरबराबरी बढ़ती जाए, फिर भी अपरिहार्य वजहों से अमीर व गरीब, साधन-संपन्न् व विपन्न्, बीमार और तंदुरुस्त लोग अगल-बगल रहने को मजबूर हों, तो कुंठा, हिरस और आपराधिक गतिविधियों में बढ़ोतरी होना तय है। और गरीब इलाकों की उपेक्षा से उपजी बीमारियां सारे इलाके को घेरने में देर नहीं लगातीं। लिहाजा अगर मामूलीराम चिकनगुनिया या डेंगू में पड़े हों तो ईशांत शर्मा और विद्या बालन भी इसके शिकार बनने को अभिशप्त हैं। आने वाले समय में भी यह स्थिति कायम रहेगी क्योंकि गांवों से शहरों की ओर पलायन हर देश में लगातार बढ़ेगा। इस दशा में न सही उदारता की तहत, लेकिन संपन्न् नागरिकों को साफ पेयजल, पर्याप्त बिजली तथा महामारियों और चोरी बटमारी से स्थायी सुरक्षा दिलवाने के लिए ऐसी बस्तियों को हटाकर उनके निवासियों के लिए पुनर्वास का बंदोबस्त करना हर सरकार के लिए एक बुनियादी औरबड़ी चुनौती बनकर उभर रहा है।

अंग्रेजी में पहले-पहल इस मूलत: फ्रेंच शब्द ‘स्लम" का इस्तेमाल लेखक चार्ल्स डिकेंस ने 1851 में लंदन की गरीब बस्तियों के संदर्भ में किया था, जहां बेपनाह गंदगी के बीच लोग छोटे-छोटे कमरों में भेड़ों की तरह ठुंसकर रहते थे। पश्चिम में तब औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दिन थे। और उन्न्ीसवीं सदी की इन स्लम बस्तियों ने पश्चिमी जगत में लंदन, पेरिस तथा न्यूयार्क जैसे शहरों के चेहरे भी बिगाड़कर रख दिए थे। अर्द्धसामंती यूरोप में आर्थिक विषमता, वर्गभेद और मजदूरों का उच्च वर्गों, नौदौलतियों तथा साहूकारों द्वारा निर्मम शोषण उतना ही आम था, जितना वह आज हमारे महानगरों में है। और वहां का संपन्न् वर्ग भी उनकी तब तक अनदेखी करता रहा जब तक खुद उस पर संक्रामक बीमारियों की मार नहीं पड़नी शुरू हुई।

पश्चिम में जैसे-जैसे लोकतंत्र मजबूत हुआ, आम नागरिकों की माली हालत सुधरी तो स्लम बस्तियों को लेकर मध्यवर्ग के नागरिकों तथा बुद्धिजीवियों ने संसद से सड़क तक मुखर प्रतिवाद उठाया। तब जाकर गरीबों को पहली बार राज्य की तरफ से योजनाबद्ध ढंग से बनाए गए सब्सिडाइज्ड व बुनियादी सुविधाओं से लैस आवास मुहैया कराए गए। ब्रिटेन में एक रेलवे इंजीनियर जोसेफ बाजलगेट ने सेनिटेशन सुधार मुहिम की तहत (सिर्फ 30 लाख पाउंड की राशि से) हर गर्मियों में शहर में महामारी फैलाने वाले लंदन के कुख्यात जलमलव्ययन सिस्टम की कायापलट कर दी। जब नदी किनारे की पुरानी गंदी बस्तियां हटीं तो खाली जगह भी निकली और उससे और भी सुधारों की गुंजाइश बनी। पहले गंदे नाले में तब्दील हो चुकी और बदबू तथा महामारी का स्रोत बन चुकी टेम्स नदी को साफ किया गया और फिर नदी तट में निकल आई जमीन को पार्क व पगडंडियों से सजाकर आमजन के लिए सैर का इंतजाम तथा नदी पार जाने को कई आकर्षक मजबूत पुलों का निर्माण किया गया। इंजीनियरों तथा वास्तुकारों ने यह सारा काम अपने तकनीकी कौशल तथा जनहितकारी भावना द्वारा बिना जनता की वाहवाही या सरकारी अनुकंपा के लालच के किया।

हमारे यहां नजारा अलग ही है। दिल्ली में राष्ट्रकुल खेलों पर इतना खर्चा हुआ तो भी मजदूरों के स्लम जस के तस रहे। हर दल की सरकार ने गरीबों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था के नाम पर राज्य में योजनाओं की बाढ़ लगा दी, लेकिन न स्लम हटाए न गरीब कम हुए। हर चुनाव से पहले इन वोटबहुल अवैध बस्तियों को सत्तारूढ़ दल के नेताओं का नाम देकर रातोंरात वैध बनाने या गरीबों को पुनर्वास के लिए अन्यत्र मिली जमीन को उनसे डरा-धमकाकर सस्ते में खरीदने का आपत्तिजनक क्रम जरूर शुरू हो गया। जहां से गरीबों को हटाया गया, वह जगह तुरंत बिल्डरों ने हथिया ली और अब वहां वे कीमती रिहायशी फ्लैट बना रहे हैं। जबकि दरबदर गरीब किसी दूसरी जगह अवैध स्लम बसाने को मजबूर हैं।

भारत में मलिन बस्तियों को मिटाना और नागरिक सुविधाओं का सही विकास तभी संभव होगा, जब हमारे मध्यवर्ग के लोग अपने स्वार्थ साधने को सरकार के नुमाइंदों के तोताचश्म पिछलग्गू बनने के बजाय बहुसंख्यक गरीबों की भी पैरवी करें। ताकि सरकारें शहरों के टुकड़ा-टुकड़ा विकास की जगह सभी नागरिकों को बुनियादी सुविधाएंदेसकने लायक ढांचा प्लान करने को मजबूर हों। इसी के साथ हर बस्ती तक बिजली, पानी, सड़क पहुंचाने तथा ग्रामीण रोजगार सृजन को प्राथमिकता दी जाए। आज यह सिर्फ नैतिकता का ही नहीं, खुद अमीरों की अपने जीवन की सुरक्षा का भी तकाजा है।

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं

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