स्वच्छता, समाज और सरकार– सुभाष गताडे

एक सौ पांच साल की कुंवर बाई, जिन्होंने अपनी बकरियां बेच कर शौचालय का निर्माण कराया, ‘स्वच्छता दिवस’ के अवसर पर दिल्ली में सम्मानित की जाएंगी। खबरों के मुताबिक कुंवर बाई ने कोटाभररी नामक अपने गांव (जिला राजनांदगांव) में स्त्रियों को खुले में शौच जाने की असुविधा से बचाने के लिए यह निर्माण कराया। बेशक कुंवर बाई का सरोकार व त्याग काबिले-तारीफ है और उनको स्वच्छता दूत नियुक्त किया जाना, एक तरह से इस बात पर मुहर लगाना है। पिछले दिनों दो भाई-बहनों के बारे में भी समाचार छपा था, जिन्होंने अपना जेब-खर्च बचा कर शौचालय का निर्माण कराया था। मगर अब जबकि स्वच्छ भारत अभियान का आगाज हुए दो साल होने को हैं, यह सोचने की जरूरत है- जो प्रश्न मैगसेसे सम्मान से विभूषित बेजवाडा विल्सन बार-बार उठाते रहते हैं- कि इन शौचालयों की सफाई कौन करेगा? कहने का तात्पर्य यह कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आप फिर उसी तबके को इस गंदे कहलाने वाले पेशे में धकेलेंगे जो ‘ऐतिहासिक तौर पर’ या ‘परंपरागत तौर पर’ इसे करता आ रहा है और आज उससे हटने के लिए बेहद बेचैन है।

दूसरा बड़ा सवाल यह कड़वी सच्चाई है कि आखिर आज भी भारत हाथ से मल उठाने की वैश्विक राजधानी क्यों बना हुआ है, जिससे अग्रणी प्रांतों की राजधानियां ही नहीं, देश की राजधानी भी अछूती नहीं है। मिसाल के तौर पर, अमदाबाद के बारे में प्रकाशित तथ्य काबिलेगौर हैं। गुजरात में सक्रिय एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता के मुताबिक ‘अमदाबाद में ऐसी दो सौ जगहें हैं जहां अमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन द्वारा स्वच्छकारों को हाथ से मल उठाने को हर रोज मजबूर किया जाता है। हमारे पास 1993 के बाद के ऐसे 152 मामलों के विवरण उपलब्ध हैं, जब सफाई करने वाले ड्रेनेज की सफाई करते हुए मर गए। हम लोगों ने इस संबंध में राज्य सरकार से संपर्क कर कहा कि 2013 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार दस लाख रुपया मुआवजा प्रदान किया जाए, मगर आज भी इन गटर कामगारों के परिवारों को मुआवजा नहीं मिला है।’

दिलचस्प है कि जब उपरोक्त लेखक ने राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की वेबसाइट खोल कर यह पता करना चाहा (प्रस्तुत आयोग ऐसे कर्मचारियों के सशक्तीकरण के लिए बना है), तो वह लगभग बीस साल पुरानी सूचनाएं प्रस्तुत कर रहा है। इतना ही नहीं, उसमें 1993 में बने कानून का उल्लेख है जो मल उठाने में मुब्तिला कामगारों की मुक्ति के नाम पर बना था, मगर 2013 के अधिक बेहतर कानून का उसमें उल्लेख तक नहीं है। क्या यह अकारण है कि सामाजिक तौर पर वैधता और राजनीतिक स्तर पर इस मामले में इस कदर नजर आती बेरुखी के चलते ही भारत अब भी हाथ से मल उठाने में दुनिया में अव्वल बना हुआ है। जहां तक देश की राजधानी का सवाल है, हजारों लोग आज भी हाथ से मैला उठाने के काम में मुब्तिला हैंं। इसे सुन कर दिल्ली का उच्च न्यायालय खुद भी ‘विचलित और बेचैन था’ जब उसके सामने ‘दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेस अथॉरिटी’ ने अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें इस संबंध में विवरण शामिल थे। दरअसल, अदालत ‘नेशनलकैम्पेन फॉर डिग्निटी ऐंड राइट्स आॅफ सीवरेज वर्कर्स’ द्वारा वर्ष 2007 में दायर याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें मैला उठाने वाले लोगों के लिए पुनर्वास की मांग की गई थी। गौरतलब है कि कुछ वक्त पहले इन्हीं महकमों ने शपथपत्र देकर अदालत को बताया था कि उनके यहां (राजधानी में) हाथ से मैला उठाने वाला कोई व्यक्ति तैनात नहीं है।

जमीनी हालात और सरकारी महकमों द्वारा किए जा रहे औपचारिक दावों के बीच के फर्क को अपवाद नहीं कहा जा सकता। पिछले दिनों जब राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के समक्ष विभिन्न राज्य सरकारों के वरिष्ठ अधिकारियों की एक समीक्षा बैठक हुई तब वहां प्रस्तुत आंकड़े भी सूखे संडासों की संख्या और उसके लिए तैनात स्वच्छकारों (मैला उठाने वालों) की संख्या के बीच के गहरे अंतराल को उजागर कर रहे थे, जिसके चलते यह प्रश्न भी उठा कि ‘क्या देश भर के हजारों सूखे संडास खुद अपनी सफाई करते हैं?’देश के एक अग्रणी अखबार में इस संदर्भ में प्रकाशित रिपोर्ट ने इस मसले पर और रोशनी डाली थी: मिसाल के तौर पर तेलंगाना ने बताया कि 31 दिसंबर 2015 को उसके यहां 1,57,321 सूखे संडास थे जबकि हाथ से मल उठाने में एक भी व्यक्ति सक्रिय नहीं था। हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट ने भी बताया था कि उसके यहां 854 सूखे संडास हैं, जबकि एक भी स्वच्छकार नहीं है। छत्तीसगढ़ ने रिपोर्ट किया कि उसके यहां 4,391 सूखे संडास हैं, मगर महज तीन लोग सफाई के काम में लगे हैं।…उसी तरह कर्नाटक ने 24,468 सूखे संडासों का विवरण दिया जबकि मैला उठाने वालों की संख्या महज 302 बताई और मध्यप्रदेश के आंकड़े थे 39,962 सूखे संडास और महज 11 मैला उठाने वाले।

आखिर हाथ से मैला उठाने का काम आज भी क्यों जारी है, जबकि टेक्नोलॉजी में जबरदस्त प्रगति हुई है और भौतिक संपन्नता भी बढ़ी है? अगर हम अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा वर्ष 2015 में जारी ‘रिसोर्स हैंडबुक टु एंड मैन्युअल स्केवेजिंग’ को देखें तो वह मानता है कि मैला उठाने की प्रथा इस वजह से जारी है कि शुद्धता और प्रदूषण को लेकर जाति संबंधी सांस्कृतिक धारणाएं बनी हुई हैं और लांछनास्पद कहे गए कामों का जन्म आधारित आवंटन आज भी जारी है:

-जेंडर भेदभाव से संलिप्त जातिगत विषमताएं (क्योंकि अधिकतर सूखे संडासों की सफाई का काम महिलाएं करती हैं) बरकरार हैं।

-हाथ से मैला उठाने की प्रथा की रोकथाम व ऐसे स्वच्छकारों के पुनर्वास के लिए बनी योजनाओं पर अमल के मामले में राज्य सरकारों की बेरुखी और विफलता बार-बार उजागर हुई है।

-जातिगत भेदभाव की समाप्ति के प्रति लोगों में गंभीरता की कमी और दंड से बचे रहने का चलन तथा राज्य की जवाबदेही की कमी।

इस प्रथा की समाप्ति के लिए संसद या कार्यपालिका के स्तर पर जो कोशिशें हुर्इं, वे पूरे मन से नहीं की गर्इं। अगर हम आजादी के तत्काल बाद महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाई गई बर्वे समिति को देखें (1948), जिसकी सिफारिशों को केंद्र सरकार ने भी स्वीकार किया था, और उसके बाद बनी मलकानी समिति की रिपोर्ट को पलटें या इसी किस्म के अन्य नीतिगत हस्तक्षेपों या विधायी कार्रवाइयों को देखें, जिनमें केंद्र सरकारद्वारा1993 में तथा 2013 में बनाए कानूनों को शामिल कर सकते हैं- यही समझ में आता है कि ऐसे कदमों की कोई कमी नहीं रही है। मगर कुल मिलाकर वहीं का वहीं कदमताल होता रहा है। अगर हम 1993 में बने ‘एम्प्लायमेंट आॅफ मेन्युअल स्केवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन आॅफ डाइ लैटरिन्स (प्रोहिबिशन)’ अधिनियम, 1993 को देखें तो पता चलता है कि इस अधिनियम को महज अधिसूचित करने में चार साल लग गए, जब उसे भारत सरकार के गजट में दर्ज किया गया। फिर, कानून बनने के बाद इतने लंबे अरसे में न कभी किसी सरकारी अधिकारी और न ही किसी कंपनी या फर्म को इसके लिए सजा दी गई कि उनके मातहत यह प्रथा क्यों बेरोकटोक चल रही है।

गोया इस अधिनियम की विफलता को ही रेखांकित करने के लिए सरकार ने एक नया कानून सितंबर 2013 में ‘द प्रोहिबिशन आॅफ एम्प्लायमेंट एज मैन्युअल स्केवेंजर्स ऐंड देअर रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013′ के नाम से बनाया और उसकीअधिसूचना भी जारी कर दी गई। इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि स्थानीय और रेलवे अधिकारियों को इसके प्रावधानों से बचाने के लिए पहले से ही एक रास्ता कानून में छोड़ दिया गया, जो हाथ से मैला उठाने वालों को तैनात करते रहे हैं।

सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान की दूसरी सालगिरह की तैयारियां शुरू कर दी हैं। विभिन्न महकमों को निर्देश दिया है कि अभियान की शुरुआत में जो प्रतिज्ञा ली गई थी उसे फिर दोहराएं, ताकि सुस्त पड़ रहे अभियान को नई गति दी जा सके। विश्व बैंक में सक्रिय रहे एक विशेषज्ञ को सरकार ने अपनी इस योजना की देखरेख के लिए विशेष तौर पर नियुक्त किया है और सेवा कर के मद में स्वच्छ भारत उप-कर लगा कर इस योजना के लिए धन जुटाने की रूपरेखा तैयार की है।

दरअसल, यह अहसास करने की जरूरत है कि धन संग्रह, बेहतर प्रबंधन, गतिशीलता जैसी बातें अभियान जैसे चल रहा है उसमें नई हरकत अवश्य पैदा कर सकती हैं, मगर उसमें कोई गुणात्मक बदलाव नहीं ला सकतीं। शायद अब वक्त आ गया है कि जाति के आधार पर बंटे भारतीय समाज में हम ऊंच-नीच अनुक्रम में जातियों की स्थिति और निम्न कही गई जातियों के साथ सदियों से नत्थी स्वच्छता संबंधी कामों की लंबी-चौड़ी सूची तथा उसे मिली सामाजिक वैधता को समझें और एक सामाजिक समस्या के तकनीकी समाधान ढंूढ़ने में जुट जाएं। नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे आलोचकों के इस नजरिये पर भी गौर करें कि भारत को ‘स्वच्छ’ बनाने की तमाम कोशिशें मोटामोटी जाति के ‘पेशागत’ दायरे तक फोकस रही हैं और कोशिशें इसी बात की की गई हैं कि व्यक्ति को सुधारा जाए या उसे कुछ तकनीकी उपकरण प्रदान किया जाए और जाति को वैसे ही बरकरार रखा जाए।

आने वाले दो अक्तूबर को जब स्वच्छ भारत अभियान अपने दो साल पूरे करेगा, तो क्या इस दिशा में नई जमीन तोड़ने का आगाज किया जा सकता है!

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