रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के स्थान पर चार सितंबर से उर्जित पटेल ने रिज़र्व बैंक गवर्नर का कार्यभार संभाला है। रघुराम राजन के कार्यकाल के अंतिम 6 माह, विवादों से भरे रहे।
नए गवर्नर उर्जित पटेल, अभी तक रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर और पूर्व गवर्नर के सहयोगी तो रहे ही, साथ ही मौद्रिक नीति के बारे में उनकी राय, रघुराम राजन से मेल खाती है। मुद्रा स्फीति को रोकने के लिए अति आग्रही रघुराम राजन ब्याज दरों को न घटाने की ज़िद के लिए जाने जाते रहे हैं। हालांकि, कुछ मौकों पर राजन ने ब्याज दरों को घटाया भी, लेकिन इस बाबत बाजार और सरकार दोनों की अपेक्षाओं पर वे खरे नहीं उतरे। ब्याज दरों के अलावा भी उर्जित पटेल के लिए रिज़र्व बैंक गवर्नर का कार्यभार चुनौतीपूर्ण रहने वाला है।
गौरतलब है कि मौद्रिक नीति को मुद्रास्फीति केंद्रित होना चाहिए, इस बाबत उर्जित पटेल निवर्तमान गवर्नर से एक राय ही नहीं रखते बल्कि जब रिज़र्व बैंक को यह फैसला करना था कि मौद्रिक नीति को मुद्रास्फीति लक्षित करते, किस तरह मुद्रास्फीति को लक्षित किया जाए, तो उर्जित पटेल की अध्यक्षता में बनी समिति ने ही यह सुझाव दिया था कि उपभोक्ता कीमत सूचकांक को ही लक्षित किया जाए।
माना जाता है कि यदि ब्याज दरों को घटाया गया होता तो न केवल घरों, ऑटोमोबाइल और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ सकती थी, बल्कि निवेश, मांग और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास भी तेजी से हो सकता था। लेकिन राजन की ज़िद के सामने किसी की न चली। आर्थिक और मौद्रिक स्थितियों के संदर्भ में उर्जित पटेल, राजन से ज्यादा भाग्यशाली कहे जा सकते हैं, क्योंकि जब राजन ने कार्यभार संभाला था, तो उस समय वैश्विक बाजारों में उथल-पुथल का माहौल था ही, भारतीय रुपया भी तेजी से कमजोर हो रहा था।
हालांकि, कहा जा रहा है कि उर्जित पटेल ऐसे समय रिज़र्व बैंक के गवर्नर बने हैं, जब भारत सरकार ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां भी इस साल 8 प्रतिशत की ग्रोथ रेट के प्रति आश्वस्त हैं। विदेशी भुगतान की स्थिति भी अनुकूल है, भारी मात्रा में विदेशी निवेश भी देश में आ रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़ रहा है और साथ ही साथ मुद्रास्फीति भी काबू में है और अच्छे मानसून के चलते भविष्य में मुद्रास्फीति के और नीचे जाने के पूरे आसार हैं। देश में राजनैतिक स्थिरता भी पर्याप्त है।
नए गवर्नर की सबसे बड़ी और पहली चुनौती यह है कि वह कैसे ग्रोथ की अपेक्षाओं और मुद्रास्फीति की चिंताओं में संतुलन बिठाते हैं। यह कहना आसान, लेकिन करना मुश्किल है, क्योंकि उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि मुद्रास्फीति को रोकते हुए कहीं ग्रोथ की संभावनाएं न समाप्त हो जाएं। उन पर ‘मुद्रास्फीति बाज़’ का जो तमगा लग गया है, उससे भी पार पाना होगा।
नए गवर्नर की दूसरी प्रमुख चुनौती है सरकारी बैंकों में बढ़ते एनपीए को रोकना। पिछले कुछ समय में बैंकों के एनपीए बेतहाशा बढ़े। इस स्थिति में सुधार लाने का जो काम रिज़र्व बैंक और सरकार ने शुरू किया, वह अभी अधूरा हीहै। सरकारी बैंकों के एनपीए 6 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुके हैं।
उनकी तीसरी प्रमुख चुनौती है, सरकारी बैंकों में नई तकनीक को प्रोत्साहित कर उन्हें नए और पुराने निजी बैंकों के समक्ष प्रतिस्पर्धी बनाना। चौथे, रुपये को मजबूत बनाना या कम से कम उसे कमजोर न होने देना। नए गवर्नर के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण चुनौती है। आज देश में विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति राजन के गवर्नर बनने के समय से कहीं बेहतर है। लेकिन नए गवर्नर को यह ध्यान रखना होगा कि निकट भविष्य में 35 अरब डालर के विदेशी मुद्रा जमा की परिपक्वता आने वाली है, इसलिए अप्रवासी भारतीयों को पुनः भारत में जमा लाने के लिए प्रेरित करना होगा। विदेशी संस्थागत निवेशकों के कार्यकलापों पर भी पैनी नजर रखनी होगी।
पांचवें, नए गवर्नर के समक्ष एक ऐसी चुनौती है, जो इससे पहले के गवर्नर के समक्ष नहीं थी और वह है कि मौद्रिक नीति समिति का कार्य सुगमता से चले। गौरतलब है कि रेपोरेट तय करने के संबंध में एक नई वैधानिक मौद्रिक नीति समिति बनी है और उर्जित पटेल को इस कार्य के लिए, इस समिति के साथ मिलकर काम करना होगा।