आखिर क्यों जल उठा बेंगलुरु– आर सुकुमार

वह 2000 के दशक का शुरुआती वर्ष था। इंफोसिस लिमिटेड ने बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक्स सिटी के अपने कैंपस में एक शानदार विंग बनाई ही थी, तब मैं कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति से मिलने गया था। हम जब कैंपस घूम रहे थे, और कारोबार व लोगों और लगभग हरेक इमारत के स्वागत कक्ष में रखे रंग-बिरंगे चमकीले छातों के बारे में बातें कर रहे थे, तब उन्होंने कंपनी के कुछ हाउस्कीपिंग स्टाफ की ओर इशारा किया। वे सभी अपनी नीली यूनिफॉर्म में थे। मूर्ति ने कहा, ये कर्मचारी पास की मलिन बस्तियों और कम आयवाले इलाकों से हैं, और वे यह मानते हैं कि इंफोसिस की प्रगति में ये भी साझेदार हैं। मगर अगले ही पल उन्होंने कहा, मुझे चिंता होती है कि क्या होगा, अगर उनके हितों का ख्याल न रखा गया?

वे और मैं इस चिंता से वाकिफ थे, और भारत व दुनिया ने इसे बीते सोमवार को समझा, जब यह शहर कुछ घंटों के लिए जल उठा। इस हिंसा में एक की मौत हुई, 100 के करीब बसों को आग के हवाले किया गया और 20,000 करोड़ का आर्थिक नुकसान कंपनियों को हुआ है। यह हिंसा सिर्फ इन आंकड़ों के लिहाज से ही मायने नहीं रखती, बल्कि यह कुछ ऐसा था कि किसी ने भारत की सिलिकॉन वैली के मदरबोर्ड को कुछ घंटों के लिए हटाया और उसके नीचे की गंदगी को सामने ला दिया हो।

पहली नजर में देखें, तो प्रदर्शनकारियों के निशाने पर पड़ोसी राज्य तमिलनाडु था। इन दोनों राज्यों के बीच कावेरी जल बंटवारा लंबे अरसे से विवाद का मुद्दा बना हुआ है। न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति (हालांकि यह थोड़ी-बहुत ही है) और न ही अदालती निर्देश इस दशक भर पुरानी समस्या को सुलझा सके हैं। कर्नाटक में इस साल ज्यादा बारिश नहीं हुई है, और यह राज्य जल संकट से जूझ रहा है। लगातार दो साल पर्याप्त बारिश न होने के कारण यहां के किसान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यहां के अधिकतर किसान ईख उपजाते हैं, जिसमें स्वाभाविक रूप से पानी की जरूरत ज्यादा होती है। ऐसे किसानों को दोतरफा मार पड़ी है। एक तो, इंद्र देवता नाराज हैं और फिर चीनी कारोबार से जुड़ी आम मुश्किलें उनके सामने हैं, जैसे कि चीनी मिलों का किसानों को समय पर फसल की कीमत न देना। राज्य में किसानों की आत्महत्या में हुई खतरनाक वृद्धि पर मिंट ने पिछले साल एक रिपोर्ट भी छापी थी।

किसानों का गुस्सा तमिलनाडु के साथ ही कर्नाटक राज्य सरकार पर भी है, क्योंकि ये मानते हैं कि वह इस दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही। उनकी नाराजगी बेंगलुरु से भी है, जो पुराने भारत और इंडिया के विभाजन का एक छोटा वाहक है। मार्च में, हजारों किसानों ने इस शहर को कुछ देर के लिए रोक दिया था, क्योंकि वे बेंगलुरु और राज्य के बाकी हिस्सों के बीच पानी के असमान वितरण पर नाराज थे।

बेंगलुरु और राज्य के बाकी हिस्सों के बीच टकराव का ताजा बिंदु पानी का बंटवारा है। पिछले करीब डेढ़ दशक से कर्नाटक में लोग इसलिए नाराज हैं कि उन्हें सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) के क्षेत्रमें बेंगलुरु की तरक्की से हासिल आर्थिक लाभ से अलग कर दिया गया है। इस आईटी क्रांति ने बेशक सबके जीवन-स्तर को बेहतर बनाया हो। फिर चाहे वह रसोइया और हाउस्कीपर हो या फिर रियल एस्टेट का जुड़ा कारोबारी या टैक्सी ऑपरेटर, मगर जो लोग इससे लाभान्वित हुए, उनमें से अधिकतर कर्नाटक के नहीं हैं। इंफोसिस के पूर्व मुख्य वित्तीय अधिकारी और मनीपाल ग्लोबल के अध्यक्ष मोहनदास पई की मानें, तो कर्नाटक की आईटी कंपनियों में काम करने वाले करीब 15 लाख लोगों में से आधे से भी कम राज्य के बाशिंदे हैं। बाकी सभी प्रबंधकीय, प्रशासनिक काम करने वाले पेशेवर लोग दूसरे राज्यों के हैं। मिंट में ‘ए टेल ऑफ टू कर्नाटक्स’ नाम से छपा 2015 का एक अध्ययन बताता है कि राज्य किस कदर असामान्य विकास का शिकार है।

यह अंतर राज्य में सिर्फ शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच में ही नहीं है, बल्कि शहरों के बीच भी है। गिनी कोइफिसिएंट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता के लिहाज से देश में कर्नाटक (0.29 प्रतिशत) शीर्ष के छठे स्थान पर है। वहीं, 2016 की मिंट स्टडी के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में असमानता में यह राज्य 0.44 फीसदी के साथ तीसरे स्थान पर है। इसके विपरीत, तमिलनाडु (0.30 फीसदी) में ग्रामीण असमानता कर्नाटक की तुलना में बेशक थोड़ी सी ज्यादा हो, मगर शहरी असमानता 0.35 फीसदी है। 2011 की जनगणना के अनुसार, तमिलनाडु की 48.5 फीसदी आबादी, तो कर्नाटक की 38 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है। दो तरह से इसे समझ सकते हैं। तमिलनाडु में अपेक्षाकृत अधिक वैविध्य विकास रहा है। 1990 और 2000 के दशक में आई आईटी क्षेत्र में तेजी और 2000 के दशक में ऑटो, ऑटो पुर्जे और हार्डवेयर विनिर्माण क्षेत्र में आई तेजी, दोनों का इस राज्य को लाभ मिला। और फिर 1980 के दशक में पिछड़े वर्ग के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 69 फीसदी आरक्षण की राज्य सरकार की सकारात्मक नीति का फायदा भी तमिलनाडु को मिला, क्योंकि अलग-अलग पृष्ठभूमि के काफी सारे लोग इन क्षेत्रों के रोजगार के योग्य बन सके।

हफिंगटन पोस्ट के अपने लेख में टीएस सुधीर ने उन सभी लोगों व समूहों की पड़ताल की है, जो पिछले हफ्ते बेंगलुरु में हुई हिंसा में आगे थे। कर्नाटक रक्षण वेदिके, जय कर्नाटक, कन्नड़ ओक्कूटा और कन्नड़ सेना जैसे क्षेत्रीय गुट हाल के वर्षों में खूब मजबूत हुए हैं, सदस्यों के लिहाज और अपनी महत्ता के हिसाब से भी। उनका उद्भव ठीक वैसा ही है, जैसे 1960 के दशक में मुंबई में शिवसेना का हुआ। शिवसेना ने महाराष्ट्र के लोगों की इस चिंता को उभारा कि उनके यहां की अच्छी नौकरियां प्रवासी, खासकर तमिल, झटक रहे हैं।

एक हफ्ता होने को है, बेंगलुरु में जनजीवन सामान्य हो चला है, और पिछले सोमवार का विरोध-प्रदर्शन जल्दी ही भुला दिया जाएगा। मगर उस दिन इस शहर में जो हुआ, वह फिर से हो सकता है। चाहे इसी शहर में हो या फिर भारत के किसी दूसरे नगर में। असमानता और अन्याय हमारे शहरों को माचिस की डिब्बियों में बदल रहे हैं और उन्हें भड़काने के लिए एक चिंगारी ही काफी है।

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