उम्र की अपनी शारीरिक परेशानियां होती हैं, फिर इसमें वे परेशानियां जुड़ जाती हैं, जो बढ़ी उम्र की वजह से किसी को यह समाज देता है। मेरे एक भारतीय मित्र कुछ साल पहले पेंसिल्वेनिया (अमेरिका) के एक कॉलेज से रिटायर हुए, तो जीवन अचानक ही कठिन हो गया। पत्नी का निधन पहले ही हो गया था और बच्चों के साथ विदेश में रहने की अपनी दिक्कते थीं, सो हारकर उन्होंने एक ‘ओल्डएज होम’ में शरण ले ली। तब उन्हें एहसास हुआ कि जिन अमेरिकी वृद्धाश्रमों को हमारे यहां लोग आदर्श बताते हैं और उनकी तारीफ करते नहीं थकते, उनकी अपनी अलग ही समस्याएं हैं। इस समृद्ध देश के वृद्धाश्रमों में बाकी सुविधाएं चाहे जो हों, लेकिन वहां पर होने वाला रंगभेद अश्वेत लोगों को काफी परेशान करता है।
अमेरिका के और पश्चिम के कई देशों के वृद्धाश्रमों में भारतीय बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
आमतौर पर जो भारतीय युवा वहां नौकरी के लिए जाते हैं और अपना परिवार बसा लेते हैं, वे कुछ समय बाद अपने माता-पिता को भारत से बुला लेते हैं। आमतौर पर अमेरिका में बस जाने वाले युवा दंपतियों में पति-पत्नी, दोनों ही कोई काम करते हैं, इसलिए शुरू के वर्षों में अपने माता-पिता की जरूरत पड़ती है, जिनसे उन्हें अपने बच्चों की देखभाल के लिए अच्छा सहारा मिल जाता है। अमेरिका की भाषा में जिसे ‘बेबी सिटिंग’ कहा जाता है। मगर जब बच्चे बड़े होकर स्कूल जाने लगते हैं, तो यही माता-पिता अकेलेपन और उपेक्षा का शिकार होने लगते हैं। परदेस में अक्सर उन्हें वह समाज भी नहीं मिलता, जिससे वे जुड़ा महसूस कर सकें। यह स्थिति उन्हें वृद्धाश्रमों की ओर धकेल देती हैं।
जो अपने बच्चों के पास विदेश नहीं जाते, उनकी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। इतना जरूर है कि वे अपने समाज और अपने पुराने सोशल नेटवर्क के बीच रहते हैं, लेकिन उपेक्षा उन्हें भी सहनी पड़ती है। सबसे बड़ी बात है कि इस बढ़ी उम्र में जब उन्हें भौतिक और मानसिक तौर पर अपने बच्चों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बच्चे उनके पास नहीं होते। देश के तमाम शहरों में ऐसे कई मां-बाप हैं, जो बड़े-बड़े घरों में बैठे हुए अपने बच्चों की चिट्ठी या फोन का इंतजार करते रहते हैं। इनमें सभी की आर्थिक स्थिति अच्छी हो, ऐसा नहीं है। कई तो ऐसे हैं, जो अपने बच्चों को विदेश भेजने के जुगाड़ में अपनी सारी संपत्ति बेच चुके होते हैं, उन्हें चिट्ठी और फोन के अलावा ‘मनीट्रांसफर’ का भी इंतजार होता है।
ऐसे दौर में जब संयुक्त परिवारों तक में बुजुर्गों की उपेक्षा के उदाहरण हमें हर जगह दिखाई देते हैं, अपने बच्चों या अपने समाज से अलग रहने वाले बुजुर्गों के कष्ट आसानी से समझे जा सकते हैं। दिक्कत यह है कि हम न तो बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई तंत्र विकसित कर पाए हैं और न ही समाज या सरकार को इसके लिए संवेदनशील बना पाए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)