मलेरिया से लड़ रहे एक गांव की कहानी– भरत डोगरा

पड़ोसी देश श्रीलंका को मलेरिया मुक्त बनने का प्रमाण-पत्र दिए जाने से हम प्रसन्न हो सकते हैं, लेकिन हमारे लिए मलेरिया से मुक्ति एक सपने की तरह ही है। खासकर मध्य भारत में और वहां भी विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में, जहां मलेरिया का प्रकोर बहुत ज्यादा है और जानलेवा भी। वहां फाल्सीपेरम मलेरिया की बड़े पैमाने पर उपस्थिति आदिवासी गांवों में एक बड़ी समस्या बनी हुई है।

बाकी जगहों पर हालात अच्छे हों, ऐसा भी नहीं है। और तो और, तमाम स्वास्थ्य सुविधाओं वाली राजधानी दिल्ली तक से मलेरिया की वजह से जान जाने की खबरें आती रहती हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में हर साल लगभग 20 लाख लोग मलेरिया की चपेट में आते हैं, जिनमें से तकरीबन 700 व्यक्तियों की जान चली जाती है। ये आंकडे़ मुख्य रूप से सरकारी अस्पतालों व जांच-केंद्रों से प्राप्त जानकारी पर आधारित हैं, जबकि दूर-दराज के गांवों के लोग इस सुविधाओं तक पहुंच ही नहीं पाते। कुछ साल पहले एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने भारत में मलेरिया के कारण डेढ़ से सवा दो लाख तक मौतें होने का अनुमान लगाया था, लेकिन सरकार इसे सही नहीं मानती। इन दोनों के बीच की स्थिति विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े दिखाते हैं। उसका कहना है कि भारत में हर साल मलेरिया से तकरीबन 20 हजार मौतें होती हैं, जबकि डेढ़ करोड़ लोग चपेट में आते हैं।

अगर हम सरकारी आंकड़ों को भी सच मान लें, तब भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। मलेरिया से होने वाली मौतों के अध्ययन यही बताते हैं कि इसके अधिकांश शिकार गांवों में रहने वाले निर्धन होते हैं और उन्हें उस समय इलाज उपलब्ध नहीं होता, जिस समय उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। कई बार उनकी ऐसी स्थिति भी नहीं होती कि वह दूर जाकर इलाज करवा सकें।

इस समय, जब हर ओर श्रीलंका का उदाहरण दिया जा रहा है, हमारे लिए छत्तीसगढ़ का एक उदाहरण ज्यादा महत्वपूर्ण है। वहां के एक आदिवासी गांव में जन स्वास्थ्य सहयोग संस्थान नाम की संस्था ने एक प्रयोग किया। दूर-दराज के इस गांव में संस्थान ने एक अभियान चलाया, जिससे गांव के लोगों और स्कूली बच्चों को जोड़ा गया। वहां मरीज के रक्त के सैंपल को व्यवस्थित ढंग से भेजने के लिए गांववासियों को ही प्रशिक्षित किया गया है। स्कूल के बच्चे खून का यह सैंपल उस बस कंडक्टर को देते हैं, जिसे नियमित रूप से संस्था के मुख्य अस्पताल की ओर जाना होता है। सैंपल मिलते ही अस्पताल लैब में इसकी जांच कर दी जाती है व इसके अनुकूल दवा का पैकेट मरीज के लिए तैयार कर लिया जाता है। जब बस लौटती है, तो मलेरिया से मुक्ति की उम्मीद भी मरीज तक पहुंच जाती है। बेशक, श्रीलंका की उपलब्धि बहुत बड़ी है और हमारा मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम दम तोड़ चुका है, अब जरूरत है स्थानीय जरूरतों के हिसाब से नई कोशिश करने की।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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